Monday, March 28, 2011

ऐ हमसफ़र यहाँ तक.......

मेरे जेठ-जिठानी के शादी की पचासवीं सालगिरह पर,  मैनें  ये  कविता  उनकी ओर से लिखी है.........

ऐ हमसफ़र यहाँ तक,
मंजिल जो तय हुई है,
हम तो, निभाएंगे ही,
तुम भी उसे निभाना,
कुछ हम कहेंगे तुमसे,
कुछ तुम हमें सुनाना.
सुबहों की धूप को हम
शबनम से  नहा देंगे,
पंखों पे तितलियों के
हम मन को उड़ायेंगे,
फूलों के रसों-गंधों में
डूबकर-डुबाकर,
मिट्टी की महक में हवा,
कुछ बूँद मिलायेंगे .
फ़िक्रों की पर्चियों को
हम साथ भुलायेंगे,
कुछ कहकहों  के कतरे
मिल-मिल के सजायेंगे,
खामोशियों की आहट,  
चुन -चुन के हम रखेंगे
फिर देर रात बैठे
वो आहटें पढेंगे........
कुछ हम न बदल जाएँ  
कुछ तुम न बदल  जाना,   
ऐ हमसफ़र यहाँ तक,
मंजिल जो तय  हुई है,
हम तो, निभाएंगे ही
तुम भी उसे निभाना,
कुछ हम कहेंगे तुमसे
कुछ तुम हमें सुनाना.



Tuesday, March 22, 2011

कैसी है ये यात्रा.......

पहली बार जब अकेले  हवाई-यात्रा(1984    में दिल्ली से कुबैत)   करनी पड़ी उसीका एक छोटा सा अनुभव............

कैसी है ये  यात्रा 
कैसा है 
ये सफ़र ,
इधर और उधर 
सिर्फ़
नए ,अपरिचित चेहरे .
कहीं बच्चों की 
कतार,
कहीं सरदारजी 
सपरिवार ,
कोई खा रहा 
चौकलेट,
कोई पी रहा 
सिगार .
किसे दिखाऊँ 
उस औरत का 
जूड़ा,
किसे दिखाऊँ 
उन महाशय की 
मूंछें ,
किससे कहूं 
'एयर -बैग' उतारो ,
किससे कहूं 
'सीट -बेल्ट' 
बाँधो.
किसे पिलाऊँ 
अपने हिस्से का 
'कोल्ड -ड्रिंक',
किसके कन्धों पर 
सोऊँ  उठंगकर
कि
बगल की कुर्सी पर
न तुम,न तुम और न तुम.

Friday, March 18, 2011

काश तुम देख पाते.........

कई बार दूसरों के भोगे गए यथार्थ को हम, अपने शब्दों का जामा पहना देते हैं.........उसीका एक उदहारण आप सब के सामने प्रस्तुत है......
बाबा,
तुम कहाँ चले गए......
खेलने की उम्र में
मुझे
बिलखता छोड़कर.
काश तुम देख सकते,
तुम्हारा
वह असहाय पुत्र,
आत्म-बल से
बाधाएँ
पार करता हुआ,
अपने पैरों पर
खड़ा
हो गया है.
काश तुम देख सकते,
तुम्हारे
पुत्र के सशक्त
 कंधे,                                                    
घर-संसार चलाने में
सक्छम
हो गए हैं,
उसकी हथेलियों में
खुशियाँ
भरने लगी हैं,
काश तुम देख सकते,
तुम्हारे घर की
चौखट को,
तुम्हारी पुत्रवधू ने,
आलता-दूध में
पांव रखकर,
पार कर लिया है
और मैं सोचता हूँ.....
तुम
कितने खुश होते,
काश तुम देख सकते . 




Sunday, March 13, 2011

मेरे एख्तियारों को ज़हन.....

मेरे एख्तियारों को ज़हन(दिमाग) 
मेरे तिश्नगी(प्यास) को
मुकाम दे,
मैं गुम्बदे-बे-दर(खुला आसमान)
फ़रेफ्ता(मुग्ध)
वज्दे-ज़ौक(आनंद की मस्ती)
इकराम(कृपा)दे.
वो बलायें जिनका
यकीन था,
एतराफ़(स्वीकृती)
नामंज़ूर कर
कि अहद-ए-ग़ुल(फूलों का ज़माना)
मंज़रों(दृश्य) का
सिलसिला
कायम रहे.

Thursday, March 10, 2011

नीम के पत्ते यहाँ..........

धीरे-धीरे ब्लॉग-परिवार बढ़ता जा रहा है यह देखकर बहुत ख़ुशी होती है.नाम और चेहरे से काफी लोगों को पहचानने लगी हूँ यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी  उपलब्धि है. जाने-अनजाने लेखकों और पाठकों की स्नेहिल प्रतिक्रियाएं किसी खजाने से कम नहीं लगते. एक ऋण है आपका मुझपर जिसे उतारना  संभव ही नहीं है......परस्पर का यह सद्भाव कभी धूमिल नहीं हो,हम सब एक-दूसरे की कविताओं,कहानियों और लेखों से जुड़े रहें.....बस और क्या चाहिए......


नीम के पत्ते
यहाँ
दिन-रात गिरकर,
चैत के आने का हैं 
आह्वान 
करते,
रात छोटी 
दोपहर 
लम्बी ज़रा 
होने लगी है.
पेड़ से 
इतने गिरे पत्ते 
कि
दुबला 
हो गया है 
नीम,
जो पहले 
घना था ,
टहनियों के 
बीच से, 
दिखने लगा 
आकाश ,
दुबला 
हो गया है 
नीम 
जो पहले
घना था. 
क्यारियों से फूल पीले,
अब विदा 
होने लगे हैं,
और गुलमोहर पे पत्ते 
अब सुनो..... 
लगने लगे हैं,
शीत जो लगभग 
गया था,
मुड़के वापस 
आ गया है, 
विदा का फिर 
स्नेहमय, 
स्पर्श देने 
आ गया है.
इन दिनों 
चिड़ियों का आना 
बढ़  गया है,
घोंसले बनने लगे हैं,
घास ,तिनके 
चोंच में 
दिखने लगे हैं.
पेड़ की हर डाल पे, 
लगता कोई मेला 
कि
किलकारी यहाँ 
पड़ती सुनायी ,
घास पर लगता 
कि 
पत्तों की कोई 
चादर बिछाई ,
हवा में फैली 
मधुर ,मीठी ,वसंती
महक ,
अब जाने लगी है,
चैत की चंचल 
हवा में, चपलता चलने 
लगी है.
सूर्य की किरणें सुबह, 
जल्दी ज़रा 
आने लगीं हैं,
धूप की नरमी पे, 
गरमी का दखल
चढ़ने  लगा है.
शाम होती देर से
कि
दोपहर
लम्बी ज़रा,
होने लगी है,
रात में
कुछ देर तक
अब,
चाँद भी
रहने लगा है .
............और यहाँ की
हर ज़रा सी
बात या बेबात में,
याद तुम आती
बहुत हो
हर सुबह
दिन-रात में.
                    तुम्हारी मम्मी

    



Sunday, March 6, 2011

कि न फ़िक्र हो तुमको मेरी.......

कि न फ़िक्र हो
तुमको मेरी,
न मुझे
तेरा ख्याल हो,
या खुदा
वो दिन न हो,
जिसमें
ये अपना हाल हो.
सूरज तुम्हारा
हो अलग
और
चाँद
अलग हो मेरा,
रंग हमारे
अपने -अपने,
ख्वाब
अलग हो सारा,
तुम कहीं रहो
मैं कहीं
और
दिन ढल जाये,
कोई सोये
कोई जागे,
रातें
चल जाये,
हो आसमान
अपना-अपना,
अपने-अपने
हों तारे,
इन्द्रधनुष के
आर-पार
बँट जाएँ
सपने सारे.
सावन-भादो की
बूंदे हों
अपनी-अपनी,
अपना वसंत
और धूप-छांव
अपनी ले-लेकर,
अलग- अलग
रह जाएँ
कि न चाह हो
कोई तुम्हें,
न मेरा कोई
सवाल हो,
या खुदा
वो दिन न हो,
जिसमें
ये अपना हाल हो.

Wednesday, March 2, 2011

एकांत के प्रतिबिम्ब में.......

एकांत के प्रतिबिम्ब में
डूबता-उतराता हुआ
मेरा मन ,
अन्तरंग वीथियों में
परिमार्जित होते हुए
मेरे
सुख-दुःख,
नीले-नीले सपनों को
सजाते-संवारते
हुए
मेरी पलकों के
पंख
और शब्दों के कोलाहल से
भरी हुई
मेरी चुप्पी ने
एक दिन,
अपना सारा कुछ
बाँट दिया
उँगलियों को.......
उँगलियों ने धीरे-धीरे
सब कुछ
निकालकर,
डायरी के पन्नों में
रख दिया.......
अब
बाँटने जैसा
कुछ भी नहीं है
मेरे पास ,
तुम्हें दे सकूँ
ऐसा
कुछ भी नहीं है
मेरे पास.