मेरे जेठ-जिठानी के शादी की पचासवीं सालगिरह पर, मैनें ये कविता उनकी ओर से लिखी है.........
ऐ हमसफ़र यहाँ तक,
मंजिल जो तय हुई है,
हम तो, निभाएंगे ही,
तुम भी उसे निभाना,
कुछ हम कहेंगे तुमसे,
कुछ तुम हमें सुनाना.
सुबहों की धूप को हम
शबनम से नहा देंगे,
पंखों पे तितलियों के
हम मन को उड़ायेंगे,
फूलों के रसों-गंधों में
डूबकर-डुबाकर,
मिट्टी की महक में हवा,
कुछ बूँद मिलायेंगे .
फ़िक्रों की पर्चियों को
हम साथ भुलायेंगे,
कुछ कहकहों के कतरे
मिल-मिल के सजायेंगे,
खामोशियों की आहट,
चुन -चुन के हम रखेंगे
फिर देर रात बैठे
वो आहटें पढेंगे........
कुछ हम न बदल जाएँ
कुछ तुम न बदल जाना,
ऐ हमसफ़र यहाँ तक,
मंजिल जो तय हुई है,
हम तो, निभाएंगे ही
तुम भी उसे निभाना,
कुछ हम कहेंगे तुमसे
कुछ तुम हमें सुनाना.