इसे छोड़ दूं तो वो आती हैं .……उसे छोड़ दूं तो ये आती हैं ,ये यादें भी अजीब हैं.……. पीछा ही नहीं छोड़तीं.......
सन छियासठ में
'सिलीगुड़ी' में,कितने कम में
घर चलाते थे,
एक रूपये का पाव
मछली खाते थे.…….
तब दिल्ली कितना
खुशगवार था,
कलकत्ते में कितना
प्यार था,
इंगलैंड की सुबह में
कितना लावण्य था,
कन्याकुमारी की शाम में
कितना सौन्दर्य था.…….
कितना रोमैंटिक था
नील नदी का किनारा
रातों में,
मज़ा कितना रहता था
इंडो-सूडान क्लब की
बातों में.…….
हाँ-हाँ.…
वो आसनसोल में.…
ऑफिस-कम-रेसीडेंस था,
ऑफिस और घर का
अगल-बगल
इन्ट्रेंस था.…….