जब कभी तुम्हारी
आँखों में,
सावन के बादल डोलेंगे,
मैं भी उस बादल में छुपकर,
उन आँखों में
बस जाउंगी......
या फिर
नैनों के कोरों से,
गिरकर,छूकर
तेरे कपोल,
तेरे अधरों के
कोनों पर
दो पल रूककर,
तेरी ऊँगली की
पोरों पर,
सो जाउंगी.......
जब कभी तुम्हारी
आँखों में,
सावन के बादल डोलेंगे.......
जब कभी तुम्हारे
सिरहाने की
खिड़की पर,
सावन की बूँदें आएँगी......
मैं भी
उन बूंदों में रहकर,
दृग के सपने
छलकाऊँगी......
या फिर
झिलमिल लड़ियों के संग,
उनकी लय पर
कुछ-कुछ लिखकर,
वहीँ कहीं
मैं आस-पास,
मीठे मृदु-हास
उड़ाऊँगी,
जब कभी तुम्हारे
सिरहाने की
खिड़की पर,
सावन की बूँदें आएँगी......
जब कभी तुम्हारे
घर -आँगन की
चौखट पर,
सावन हलचल ले आएगा ......
मैं भी उस हलचल में
मिलकर
उन्मुक्त ,मुग्ध हो जाउंगी .......
या फिर
रिमझिम गीतों की धुन ,
तुमको छूकर जब आएँगी.......
मैं मन-तंत्री के तारों पर
चुपके-चुपके,
ला-लाकर उन्हें
बजाऊँगी,
जब कभी तुम्हारे
घर,आँगन की
चौखट पर,
सावन हलचल ले आएगा.......