तब…… यानि 1967-68,आसनसोल में कोयले के चूल्हे पर खाना बनाती थी . एक पीला-लाल रंगवाला मिट्टी के तेल का 'जनता-स्टोव' भी रहता था…… जल्दबाज़ी में कुछ काम हो,उस समय के लिये .एक दिन बगल में रहनेवाली मेरी फ्रेंड मिसेज गुहा आकर बोलीं ,मैंने एक नयी चीज खरीदी है…… चलिये,देखने.वहाँ गयी तो वो दिखाने लगीं.....टेबल पर रखा हुआ एकदम ठोस लोहे से बना गहरे हरे रंग की कोई चीज....... बोलीं,ये डबल बर्नर वाला चूल्हा है . न कोयला ,न मिट्टी तेल ,न बिजली.....बस गैस के सिलिंडर से चलेगा,माचिस कि तीली से जलेगा . जब चाहिये स्विच ऑन, जब चाहिये स्विच ऑफ. दंग रह गयी………क्या मज़ेदार चीज है , मन-ही-मन सोची ,ये तो कोयला और मिट्टी के तेल से रोज़ होनेवाले घमासान का अंत कर देगी सो अता-पता पूछकर घर आयी और आते ही आर्डर कर दिया गया……शायद कलकत्ता से आने में 15-20 दिन लगे थे. कितनी सहूलियत हो गयी थी खाना बनाने में……आज किचेन में इतनी सारी सुविधाओं के बाबजूद भी ,मुझे उस समय की वो सुविधा........अतुलनीय लगती है..........
Thursday, February 13, 2014
Sunday, February 9, 2014
कि ऋतु वसंत है .......
रच लें हथेलियों पर
केसर की पखुड़ियाँ.....
बाँध लें साँसों में
जवाकुसुम की
मिठास.....
सजा लें सपनों में
गुलमोहर के
चटकीले रंग……
बिखेर लें
कल्पनाओं में
जूही की कलियाँ......
कि ऋतु वसंत है .......
केसर की पखुड़ियाँ.....
बाँध लें साँसों में
जवाकुसुम की
मिठास.....
सजा लें सपनों में
गुलमोहर के
चटकीले रंग……
बिखेर लें
कल्पनाओं में
जूही की कलियाँ......
कि ऋतु वसंत है .......
Thursday, February 6, 2014
अभी हाल ही में.......
अभी हाल ही में मेरे 'नेफ्यू' की किताब 'when the saints go marching in' प्रकाशित हुई……उसी अवसर पर आधारित है ये कविता......
लिखने-छपने के
इस माहौल में.....
लेकिन.....कपड़ा मेरी पसंद का
तुम्हें पसंद नहीं,
पर्स रखते नहीं,
टाई लगाते नहीं,
जूते,मोज़े ,चप्पल
मेरा दिमाग खड़ाब है क्या ?
कलम,पेंसिल
पता नहीं.....कौन रंग ,
कितनी लम्बाई,
कितने डायमीटर का
रखते हो,
रुमाल ,जाने रखते भी हो
या
नहीं रखते हो .
कौन से राइटर की किताबें
पढ़ते हो ,
किस-किससे है 'कुट्टी'
जानती नहीं ,
मिठाई-विठाई तुम खाते नहीं
अंडा-मुर्गी
मैं लाती नहीं.....
कितना आसान होता
कमीज़-पैंट ,जूता-मोज़ा,
रुमाल-टाई
या फिर
किताबें-कलम ,पेंसिल
साथ में.....
एक डब्बा मिठाई.……
लेकिन तुम्हें जानते हुये,
ऐसी कोई ज़हमत
मैंने नहीं उठाई......और
सोचते-सोचते
दिमाग में,
ये बात आयी.......
क्यों न दूं तुम्हें
अनगिनित शुभकामनायें.....
गिनते रहना......
निश्चय ही खुशी से लोगे,
संभालकर रखोगे.....
अब ऐसा भी नहीं कि
थैंक यू ,थैंक यू
कहने लगोगे......
पता है, घिसी-पिटी बातों में
यकीन नहीं तुम्हें.......पर
मुझे यकीन है
हँस दोगे......और
बड़ों के लिये
बच्चों की हँसी से
बढ़कर
कुछ भी नहीं.......
Wednesday, February 5, 2014
कम उम्र और ......
कम उम्र और दरभंगा जैसे छोटे शहर में पली-बढ़ी, सीमित ज्ञान लिये जब पहली बार कलकत्ता पहुँची......एकदम विस्मित थी . इतना बड़ा स्टेशन ,प्लेटफॉर्म से लगी हुई गाड़ियों की कतार,सब कुछ अजूबा . निकलते ही आँखों के सामने हावड़ा ब्रिज.....अद्भुद.किताबों में पढ़ती आयी थी …… उससे कहीं ज़यादा प्रभावशाली . ईंटों वाला रास्ता ,ऊँची-ऊँची इमारतें ,विक्टोरिया मेमोरियल ,न्यू मार्केट ,चौरंगी ,पार्क स्ट्रीट ,डलहौजी स्क्वाएर , राइटर्स बिल्डिंग काली बाड़ी ,दक्छिनेश्वर का मंदिर,वेलूर मठ सब कुछ देख-देखकर एकदम अवाक! ख़ुशी की जैसे पराकाष्ठा......(ये 1965-66 की बात है )अम्मा कहती थी कि वो 12 साल की उम्र में ,नाना-नानी के साथ कलकत्ता गयी थी.....और मेरे बाल-मस्तिष्क पर कलकत्ता की जो अनुपम छवि खींच दी थी......सौ फीसदी सही थी.....बाद में 1981से 1986 तक वहाँ रही……… लेकिन अभी भी वो पहली बार वाली छवि जस-के-तस दिल और दिमाग में सुरक्छित है.......मैं यह कह सकती हूँ कि मेरे लिए कलकत्ता दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक है.किसी एक शहर का खाना और कपड़ा जीवन पर्यन्त के लिए चुनना पड़े तो मैं निःसंदेह "कलकत्ता" को ही चुनूँगी......
संस्कारों के धज्जियों की धूल.....
संस्कारों के धज्जियों की धूल,
जब उड़-उड़ कर
पड़ती है.....आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......तब,
मूंदकर चुप-चाप,
कपड़े का बनाकर
भाप,
भाप,
सेक लेते हैं, अपने आप
निरुपाय
माँ-बाप......
एक कृत्रिम हंसी से
सुसज्जित,
उनके चेहरे के पीछे का
दर्द,
दर्द,
परदे में रह जाता है.....
और
आधुनिकता के प्रकोप से
लहलहाते हुए
शोर में......
उनका हर दुःख
अदृश्य हो जाता है........
बताइए ,
आपको कभी दीखता है?
और
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
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