नीम के पत्ते यहाँ
दिन-रात
गिरकर,
चैत के आने का हैं
आह्वान करते,
रात छोटी,दोपहर
लम्बी ज़रा
होने लगी है।
पेड़ से इतने गिरे
पत्ते
कि दुबला हो गया है
नीम
जो पहले घना था,
टहनियों के बीच से
दिखने लगा आकाश,
दुबला हो गया है नीम
जो पहले घना था।
क्यारियों से फूल पीले
अब विदा
होने लगे हैं
और गुलमोहर पे पत्ते
अब सुनो,
लगने लगे हैं,
शीत जो लगभग गया था,
मुड़ के वापस
आ गया है,
विदा का फिर
स्नेहमय
स्पर्श देने
आ गया है।
इन दिनों चिड़ियों का आना
बढ़ गया है,
घोंसले बनने लगे हैं,
घास, तिनके चोंच में
दिखने लगे हैं।
पेड़ की हर डाल पर
लगता कोई मेला
कि किलकारी यहाँ
पड़ती सुनायी,
घास पर लगता कि
पत्तों की कोई
चादर बिछायी।
हवा में फैली
मधुर,मीठी,वसंती
महक
अब, जाने लगी है,
चैत की चंचल हवा में
चपलता
चलने लगी है।
सूर्य की किरणें
सुबह
जल्दी ज़रा आने लगी हैं,
धूप की नरमी पे
गर्मी का दखल
बढ़ने लगा है।
शाम होती देर से
कि दोपहर
लम्बी ज़रा होने लगी है ,
रात में कुछ देर तक
अब
चाँद भी रहने लगा है।
चपलता
चलने लगी है।
सूर्य की किरणें
सुबह
जल्दी ज़रा आने लगी हैं,
धूप की नरमी पे
गर्मी का दखल
बढ़ने लगा है।
शाम होती देर से
कि दोपहर
लम्बी ज़रा होने लगी है ,
रात में कुछ देर तक
अब
चाँद भी रहने लगा है।