नीँद थी
एक रोज़ जल्दी
खुल गयी
औ' दृश्य बाहर था
दिखा जो,
कुसुम कलियों से
अलग था,
पुलिन-पंकज से
परे था.
दो मज़ूरे
जोड़-कर लकड़ी का चुल्हा,
सामने ही बन रहे
एक पार्क में,
जठराग्नि को,
शांत करने के लिये
कटिबद्ध थे.
पक रही थी रोटियां,
सिंक रही थी रोटियां,
फुल रही थी रोटियां
और
रह-रह कर
वहाँ से,
उठ रहा था
कुछ धुआँ.
कट रहे थे फाँक, आलू
टोकरी भर,
कुछ मसालों की वहीं
पुड़िया पड़ी थी,
एक शीशी
तेल की,
अकड़ी खड़ी थी.
दो मज़ूरे और आये,
लकड़ियों की गठ्ठरें
सर पर उठाये,
फेंक बोझा
थक, जरा लेटे
उठे, बैठे
कि शायद...
बस ज़रा खाकर ही
कोई
काम होगा .
रोटियों के थाक को
कपड़े से ढककर,
तेज़ चूल्हे पर
कड़ाही को चढ़ाकर,
छौंकने की
छन्न से है
आवाज़ आई,
एक-दो लकड़ी हटाकर,
आँच को
धीमी बनाई.
दो मज़ूरे और निकले
टेंट से
जो नीम के नीचे लगा है,
पार्क में .......
वे अभी तक
सो रहे थे.....
हो कि शायद
रात कल,
रोटी
उन्होंने ही बनाई.
पेड़ की डाली
झुकाकर
एक, डंठल तोड़कर
मुँह से लगाया,
दूसरे ने
टीन का
लंबा कनस्तर,
रख के
चांपा-कल चलाया
और
इतने में
ज़रा जल्दी से हमने,
चाय
अपनी थी बनाई.
थाक रोटी की
बड़ी सोंधी नरम,
लिपटे मसालों में बना
आलू गरम,
बैठकर एक झुंड में,
सब खा रहे थे
और
चांपा-कल का पानी,
हाथ का दोना
बनाकर,
पी रहे थे….
और इस आधार पर ही
आज हमने,
गर्म रोटी,
काट आलू, फाँक वाले
थी बनाई....
पर न कोई स्वाद आया,
फिर मुझे
यह याद आया,
क्योंकि चूल्हा गैस का था
और
पानी की कहूँ क्या,
'फ्रिज' में
परसों का रखा था.
एक रोज़ जल्दी
खुल गयी
औ' दृश्य बाहर था
दिखा जो,
कुसुम कलियों से
अलग था,
पुलिन-पंकज से
परे था.
दो मज़ूरे
जोड़-कर लकड़ी का चुल्हा,
सामने ही बन रहे
एक पार्क में,
जठराग्नि को,
शांत करने के लिये
कटिबद्ध थे.
पक रही थी रोटियां,
सिंक रही थी रोटियां,
फुल रही थी रोटियां
और
रह-रह कर
वहाँ से,
उठ रहा था
कुछ धुआँ.
कट रहे थे फाँक, आलू
टोकरी भर,
कुछ मसालों की वहीं
पुड़िया पड़ी थी,
एक शीशी
तेल की,
अकड़ी खड़ी थी.
दो मज़ूरे और आये,
लकड़ियों की गठ्ठरें
सर पर उठाये,
फेंक बोझा
थक, जरा लेटे
उठे, बैठे
कि शायद...
बस ज़रा खाकर ही
कोई
काम होगा .
रोटियों के थाक को
कपड़े से ढककर,
तेज़ चूल्हे पर
कड़ाही को चढ़ाकर,
छौंकने की
छन्न से है
आवाज़ आई,
एक-दो लकड़ी हटाकर,
आँच को
धीमी बनाई.
दो मज़ूरे और निकले
टेंट से
जो नीम के नीचे लगा है,
पार्क में .......
वे अभी तक
सो रहे थे.....
हो कि शायद
रात कल,
रोटी
उन्होंने ही बनाई.
पेड़ की डाली
झुकाकर
एक, डंठल तोड़कर
मुँह से लगाया,
दूसरे ने
टीन का
लंबा कनस्तर,
रख के
चांपा-कल चलाया
और
इतने में
ज़रा जल्दी से हमने,
चाय
अपनी थी बनाई.
थाक रोटी की
बड़ी सोंधी नरम,
लिपटे मसालों में बना
आलू गरम,
बैठकर एक झुंड में,
सब खा रहे थे
और
चांपा-कल का पानी,
हाथ का दोना
बनाकर,
पी रहे थे….
और इस आधार पर ही
आज हमने,
गर्म रोटी,
काट आलू, फाँक वाले
थी बनाई....
पर न कोई स्वाद आया,
फिर मुझे
यह याद आया,
क्योंकि चूल्हा गैस का था
और
पानी की कहूँ क्या,
'फ्रिज' में
परसों का रखा था.