Monday, May 23, 2011

संस्कारों के धज्जियों की धूल......

संस्कारों के धज्जियों की धूल,
जब उड़-उड़ कर
पड़ती है.....आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......तब,
मूंदकर चुप-चाप,
कपड़े का बनाकर
भाप,
सेक लेते हैं, अपने आप
निरुपाय
माँ-बाप......
एक कृत्रिम हंसी से
सुसज्जित,
उनके चेहरे के पीछे का
दर्द,
परदे में रह जाता है..... 
और 
आधुनिकता के प्रकोप से 
लहलहाते हुए 
शोर में......
उनका हर दुःख 
अदृश्य हो जाता है........
बताइए ,
आपको कभी दीखता है?
और 
मैं परेशान हूँ 
कि
मुझे क्यों दीखता है? 

Monday, May 16, 2011

यह कोई लेन-देन का कारोबार नहीं........

यह कोई लेन-देन का
कारोबार नहीं,
नफ़ा-नुकसान 
इसका आधार नहीं, 
निःस्वार्थ प्रेम
माँ के आँचल का
खज़ाना है,
यह स्नेह का 
बंधन है,
व्यापार नहीं.
मेरे दोस्त.......
कभी उँगलियों पर 
मत गिनना,
इसकी 
तौहिनी होती है,
यह ममता की 
अनुभूति है,
बस......
मन में सोती है.
और पिता........
हर उम्र में पिता 
बच्चे के 
मन से कहीं ज़्यादा,
दिमाग में ठहरता है
और दिमाग 
मन की तरह,
अँधा  
नहीं होता.
विश्लेषण करता रहता है,
सोचता रहता है,
खोजता रहता है
और 
इस प्रक्रिया में,
पिता से प्यार 
बढ़ता रहता है....... 


Wednesday, May 11, 2011

अलसुबह हम मानसर की झील में........

परिस्थितियां बदल जातीं हैं  लेकिन कवितायेँ,
जब जिस मनःस्थिति में,जिस परिवेश में लिखी जातीं हैं,
उसी रूप में जिंदा रह जातीं हैं........उनके भाव कभी नहीं बदलते ,
यही सोचकर आज यहाँ एक पुरानी कविता उस समय की ........
जब आसमान नीला होता था ,पानी का रंग पन्ने जैसा ,रूबी जैसा मन रहता था.....

अलसुबह हम 
मानसर की झील में 
कल्लोल कर ,
गिरि-खंड के ओटों में 
छुप,गातें सुखाकर,
उत्तंग पर्वत श्रिंखलों पर                    
बैठकर
बातें करेंगे,
बोलो प्रिय ,
कब हम चलेंगे ....
शाम को
पर्वत की पगडण्डी से
होकर,
दूर तक जाकर
मुड़ेंगे,
वापसी में
और
हम,हर मोड़ पर 
थक कर ज़रा
रुक कर  चलेंगे,
उस रात को हम,
चांदनी में,
भींगकर ,जगकर-जगाकर,
ओस की बूँदें 
हथेली में भरेंगे,
अलसुबह फिर .....
मानसर की झील में
कल्लोल कर,
गिरि-खंड के ओटों में 
छुप,गातें सुखाकर,
उत्तंग पर्वत श्रिंखलों पर
बैठकर
बातें करेंगे,
बोलो प्रिय,
कब हम चलेंगे......




Thursday, May 5, 2011

आइये 'कॉमन वेल्थ गेम'........

आपलोगों के इच्छानुसार इसके पहलेवाली मैथिली कविता का हिंदी अनुवाद (थोड़ी-बहुत हेर-फेर के साथ).

आइये 'कॉमन वेल्थ गेम'
आइये,
सब लगे हैं आपकी
ख़ातिरदारी में,
कुछ हमें भी तो
बताइए .
आपकी खुराक,
हमारे जैसे
अज्ञानियों की
समझ से,
बाहर हों गयी है,
सच मानिए,
हर तरफ़
सनसनी
फ़ैल गयी है .
स्वागत की थाली में,
क्या -क्या परोसा गया,
सोच-सोच कर,
दिमाग डोल गया .
इतना कौन ले   सकता है?
परसन पर परसन,
परसन पर परसन
जैसा आप लेते रहे,
बलिहारी है,
आपके सामर्थ्य की,
गाली सुन- सुन कर,
जीमते रहे .
आपकी भोजन-शैली
देखकर,
हम चकित रह जाते हैं,
कहिये तो......
इतना कैसे पचाते हैं?
इंग्लैंड की महारानी के,
खास 'अर्दली' बनकर आये,
जहाँ छूरी-कांटा से
काट - छांट कर,
'नैपकिन' से होंठ
पोछ-पोछ कर,
नफ़ासत के साथ,
छोटे-छोटे ग्रास
खाने की प्रथा है,
आप दोनों हाथ से
लगातार,
निरंकुश व्यभिचारी की तरह
खा रहे हैं,
दूसरे देश में आकर,
कितने
निर्लज्ज हों रहे हैं .
अनपच,अजीर्ण, अफारा,
चालीस करोड़ के
गुव्वारा से
मात हों गया,
ऐसी पाचन-शक्ति,
देखनेवाला
गश खा गया.
बुद्दिजीवी नि:सहाय,
जनता निरुपाय,
बता दीजिये 'कॉमन वेल्थ गेम',
कुल मिलाकर,
कितना खाए?
इठलाते हुए,जवाब आया.......
धैर्य रखिये,
अंतिम चरण है,
अब तो बस,
मधुरेन समापयेत.
कुछ खायेंगे,
कुछ साथ ले जायेंगे,
 हँसते-खेलते
निकल जायेंगे,
और
यहाँ आपलोग.........
हिसाब लगाते रहिये,
बही-खाता
मिलाते रहिये,
अतिथि देवो भव:
गाते रहिये
और
कुछ नहीं हो
तो ..............बस
जय हो !           
जय हो !
गुनगुनाते  रहिये.





Monday, May 2, 2011

हे 'कॉमन वेल्थ गेम'.......(मैथिली)

हे 'कॉमन वेल्थ गेम',               
अहाँक खोराक,
हमरा जकाँ मूढ़ लोकक 
समझ सँ बाहर
भ गेल .
स्वागत क थारी में ,
केहन-केहन 
ज्योनारि, 
भांपि-भांपि क 
दिमाग डोलि गेल.
परसन पर परसन, 
परसन पर परसन, 
के एतवा खा सकैय ?
किन्तु 
अहाँक सामर्थ्यक बलिहारी 
सुनि-सुनि क गारी ,
निर्विकार भाव सँ 
खैने जाईछी ,
कनिक बताऊ त,
केना पचबैछी?
'इंग्लैंड' क महरानिक
खास अर्दली भ क
ऐलों,
जहाँ छूरी-कांटा सँ
कटैत-घोंपैत,
छोट-छोट ग्रास
नफासत देखबैत,
नैपकिन सँ ठोढ़
पोछैत-पोछैत,
भोजन करवाक प्रथा छैक,
अहाँ दुनुं हाथ सँ,
निरंकुश व्यभिचारी जकाँ 
लपा-लप 
खैने जाईत छी ,
दोसर देश में जा क 
केहन 
निर्लज्ज भ गेल छी.
अनपच ,अजीर्ण ,अफारा,
चालीस करोड़ क 
गुब्बारा सँ,
मात भ गेल,
एहन पाचनशक्ति ......
देखनिहार के 
दांती लागि गेल.
बुद्धिजीवी निरुपाय छथि,
जनता निसहाय ,
हे 'कॉमन वेल्थ गेम',
आर कतेक खाएब?
इठलाईत बजलीह.....
धैर्य राखू ,
अंतिम चरण थिक,
आब त बस
मधुरेन समापयेत,
किछ खाएब ,
किछ ल जाएब,
एतै लोक,
कुदैत रहो ,
भुकैत रहो.............