Friday, March 20, 2020

आत्मीयता से भरी बातों को........


आत्मीयता से भरी बातों को
"कुरियर" के सहारे,
मुझ तक पहुँचा दिया,
चलो अच्छा किया,
एक शिष्टाचार था
बाकायदा निभा दिया .
विश्वास और अविश्वास के
पलड़े में
झूलता हुआ
अंतर्द्वंद,
मौसम के ढलान पर
अप्रत्याशित परिस्थितियों का
सामना करते हुए,
अपेक्षाओं  के मापदंड से
फिसलता गया,
विधिवत  प्रक्रियाओं को
कार्यान्वित करना,
भूलता गया
और काट-छाँटकर
निकाले हुए समय ने ,
इस लाचार मनःस्थिति को
अपराध मानकर,
अपनी बहुमूल्यता का एलान
इस अंदाज़ में
किया
कि मुजरिम बनाकर,
हमें
कठघरे में
खड़ा कर दिया,
चलो अच्छा किया,
एक शिष्टाचार था
अपने ढंग से निभा दिया.

Saturday, March 14, 2020

वो जमाना..1965 का ..

1965 के ज़माने में शादी के बाद बहू  का घर-गृहस्थी जमाने के लिये ,घर की बड़ी-बूढ़ी साथ जाया करती थीं.....सो मेरी सास भी 'सिलिगुड़ी' आ गयीं.नौकर की सहायता से घर सँभालने लगीं.खाली समय में आँख बंद कर 'साधन' करती थीं या माला फेरती थीं.वो छुआ-छूत मानने के कारण चावल-दाल-रोटी खुद बनाती थीं.इसके अलावा भी विभिन्न प्रकार का भोजन बनाने का उन्हें बेहद शौख था.तब पत्थर के कोयले का चूल्हा होता था,जैसे ही आँच धीमी होती थी ऊपर से और कोयला डालना पड़ता था और लोहे की चिमटी से नीचे की बुझी राख को झाड़ना पड़ता था.खैर! तो होता ये था कि बारह बजे तक सारा खाना बनाकर,चूल्हे पर दाल चढ़ा देती थीं हालाँकि तब तक ‘प्रेशर-कुकर' का अविष्कार हो चुका था लेकिन 'प्रेशर-कुकर' के अंदर रबड़ लगा है यह कहकर वो 'कुकर' का इस्तेमाल नहीं करती थीं.बहरहाल चूल्हे पर पतीले में दाल चढ़ जाता था.अब देखिये,मुझसे कहती थीं......तुम दाल देख लेना. अब बताइये सत्रह साल की बच्ची यानि मैं जिसने कभी हाथ से डालकर पानी भी नहीं पीया हो वो दाल क्या देखेगी......क्या समझेगी....तो होता ये था कि मुझे भी नींद आ जाती थी और आँख खुलने पर जब तक रसोई में पहुँचती थी,सारी दाल उफनकर,कुछ चूल्हे पर और कुछ ज़मीन पर फैल चुकी होती थी.दाल का पानी गिर जाने के कारण चूल्हा बुझ जाता था,दाल कच्ची रह जाती थी.....अगर चूल्हा नहीं बुझता था तो दाल जल जाती थी यानि किसी भी हालत में खाने में दाल नहीं रहता था.....लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे तब होता था जब दाल की इस दुर्घटना पर मेरी सास कभी कोई शिकायत नहीं करती थीं और नये सिरे से हर रोज़ मुझसे कहती थीं कि दाल को जरा देख लेना.उधर मेरे पति,एक-डेढ़ बजे के करीब ऑफिस से लंच खाने के लिये घर आते थे.यहाँ हर रोज दाल का नया किस्सा लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर,उनकी बातों में दाल को लेकर कोई समस्या नहीं दिखती थी.एकदम खुशी-खुशी जो खाना बना रहता था,खाकर 'ऑफिस' चले जाते थे.पता नहीं बार-बार यह प्रक्रिया दोहराये जाने के बाबजूद उन लोगों को मुझपर गुस्सा क्यों नहीं आता था.......कितना धैर्य था उनमें,सोचकर आज भी आश्चर्य होता है.......

Thursday, March 12, 2020

वो जो ..

वो जो मुश्किलों का दौर था
कुछ इस तरह से गुजर गया
कि जो साँस थी चलती रही
मेरी नब्ज़ पर वो ठहर गया ..

आँखें  समन्दर  हो   गयीं
दिल छुप गया जाने कहाँ
वो  दरअसल  मेरी ज़ीस्त
मेरी दास्ताँ ही बदल गया ..

Sunday, March 8, 2020

प्रिय..

प्रिय
जब मैं तुमसे दूर रहूँ
तुम मन-ही-मन में
मन-से-मन की
कह लेना
मैं सुन लूँगा ..

प्रिय साँझ ढ़ले
आँगन में
रजनीगंधा की कलियाँ
निज हाथों से
बिखरा देना
मैं चुन लूँगा ..

प्रिय तम में
पलकों पर तुम
सुन्दर सपनों को लाना
लेकर अपनी
आँखों में
मैं बुन लूँगा ..

प्रिय
जब मैं तुमसे दूर रहूँ
तुम मन-ही-मन में
मन-से-मन की
कह लेना
 मैं सुन लूँगा ..

Saturday, March 7, 2020

विरह ..

विरह का श्रिंगार
आँखों की नमी है ..