Monday, October 28, 2013

ज़माना चाहे जितना भी बदल गया हो,लोग-बाग कितने भी 'मॉडर्न' हो गये हों .......लेकिन शादी के बाद, बेटी के विदाई की भावुक कर देनेवाली नाज़ुक घड़ियाँ, जस-की-तस हैं.......वे कभी नहीं बदलेंगी......इसी भाव पर आधारित है ये कविता.......

दर्द का एक दौड़ सा
मन में समाता 
जा रहा है.....और पलकें 
इन दिनों,
तुमसे बिछड़ने की 
करुण सी वेदना में,
भींगने जब-तब लगी है.......
काँपता,नींदों में मन 
और धड़कनें
बढ़ने लगीं हैं,
विदा की घड़ियाँ
सिमटकर
अब हमें....छूने लगी हैं,
मन व्यथित-व्याकुल
समंदर में
लिपटता जा रहा है,
विदा का बादल उमड़
चारो दिशा
मंडरा रहा है.....
इन दिनों तुमसे विलग
होने की
निर्मम कल्पना,
प्रति-पल
विकल करने लगी है.....
और.....आँखों में उदासी
पिघलने
जब-तब लगी है.......

Monday, October 7, 2013

सांस लेता हूँ तो
लिख देती हो 
तुम,
मुस्कुराता हूँ तो  
लिख देती हो 
तुम,
लूं जम्हाई सामने 
ग़ल्ती से जो,
छींक भी आये तो 
लिख देती हो 
तुम.
मैं जगूं,बैठूँ ,
पियूँ ,खाऊँ कि सोऊँ,
चुप रहूँ ,
लिखूँ,पढूँ,
बोलूँ न बोलूँ 
घोलकर स्याही
खड़ी रहती हो 
तुम,
बात कोई हो न हो 
बेबात लिख देती हो 
तुम,
सांस लेता हूँ तो 
लिख देती हो 
तुम.......