जयपुर के 'गेस्ट-हाउस' से लिखी हुई........एक पुरानी चिठ्ठी मिली तो मन हुआ पोस्ट करने का ............
वहां चलती होगी तुम्हारे
आस-पास.........
आश्विनी बताश
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
यहाँ,
लेने को सांस.
खिड़कियों की जाली से
छनकर आती है,
ताजगी
बाहर ही,
रह जाती है,
रह जाती है,
शीशा खुलते ही
मच्छरों का त्रास
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
यहाँ,
लेने को सांस.
तुम्हें दिखता होगा
सारा आकाश .......
और
यहाँ,
खिड़कियों में
खिड़कियों में
बंधा हुआ
आस-पास,
आस-पास,
दीवारों पर लटकते हुए
'फोटो -फ्रेम' जैसा,
होता है
प्रकृति का एहसास,
तुम घिरी होगी
ठीक जाड़ों के पहलेवाली,
हल्की,सुनहरी
हल्की,सुनहरी
धूप से,
नपी-तुली
सूरज की किरणें यहाँ,
समय के
अनुरूप से,
देखती होगी तुम
गोधूली की बेला,
छितिज का हर पार,
यहाँ,
सबके बीच में
आ जाता है दीवार,
कट जाता है
नीम का पेड़,
नीम का पेड़,
कटती है
चिड़ियों की कतार,
यहाँ,
सबके बीच में
आ जाती है दीवार,
वहां चांदनी रातों को
तुम,
हाथों से
छू लेती हो .....
यहाँ,
कभी आ जाता है,
पल - भर
खिड़की पर चाँद
और सोचती हूँ.......
और सोचती हूँ.......
वहां चलती होगी
तुम्हारे
आस -पास ........
अश्विनी बताश
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
लेने को सांस.