एक झटके से उठी
कुर्सी से, कोई नस खिंचा
झटपट कमर का.……. और
'मसल पुल' हो गया है.……
कभी सीधी,कभी टेढ़ी
कभी झुककर
चल रही हूँ,
दर्द से बातें कभी
बिस्तर पे लेटे
कर रही हूँ.……
आये हो अच्छे समय से
है नहीं जाना कहीं
हमको,
नहीं आना किसीको ……
ख़्याल मैं रक्खूँगी
सहलाकर ,लगाकर 'बाम',
करवट मैं
तुम्हारे ही कहे
अनुसार लूँगी.....
खाऊँगी ,पियूँगी
मन भरकर,
तुम्हारे साथ ही
गप-शप करूँगी ,
धूप की गर्मी से
तकिया को गरम कर
सेक दूँगी…….
मित्र ,रूककर
एक-दो दिन ही
चले जाना.....
कि मैं भी
कौन बैठी हूँ यहाँ
हर रोज़ खाली.....
दर्द की इन्तहाँ में भी ये आलम ,ख़ुदाया ख़ैर आपकी लेखनी को सलाम ,बधाइयाँ
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteअच्छी है।
ReplyDeleteबढ़िया है !
ReplyDeleteNew post मोदी सरकार की प्रथामिकता क्या है ?
new post ग्रीष्म ऋतू !
सटीक चित्रण...
ReplyDeleteवाह ये दर्द में भी कविता का आना। पर ठी कहै एक दो दिन का ही अचछा है ये मेहमान।
ReplyDeleteजीवन का सत्य बयान किया है आपने.
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