Monday, June 30, 2014

कुछ लिखते समय अगर.…….

कुछ लिखते समय अगर दिमाग में उर्दू का कोई शब्द आ जाये तो मैं उसके लिये हिंदी का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं ढूँढती……इसी स्वभाव के कारण मुझसे एक ऐसी कविता बन गयी जिसमें उर्दू के काफी शब्द एक साथ आ गये ……और सौभाग्यवश वो कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छप गयी . प्रकाशित होने के दो-चार दिनों बाद ,हिंदी साहित्य के एक जाने-माने रचनाकार का फोन आया. अपना नाम बताने के बाद बोले,'बेटे ,आपकी कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' के नये अंक में पढ़ी है.…… मैं गद्गद ,इतने बड़े साहित्यकार ने पढ़कर फोन किया …….तब तक उनकी अगली पंक्ति 'लेकिन आपने इतने ज़्यादा उर्दू शब्दों का प्रयोग क्यों किया ?'मैं एकदम से सकपका कर ,साहस जुटाकर बोली ,'सर ,आपको अच्छी नहीं लगी क्या ? वे बोले ,'अगर अच्छी  नहीं लगती तो क्या मैं फोन करता ? 'मुझे बहुत अच्छी लगी ………पर आगे से उर्दू के नहीं हिंदी के शब्दों का ही प्रयोग किया करो'.…….' 'जी ज़रूर कोशिश करूँगी कह तो दी मैंने…….  लेकिन करूँ क्या ? गाहे-बगाहे उर्दू के शब्द दस्तक दे ही देते हैं…….और मैं मुँह नहीं मोड़ पाती…… उसी का प्रमाण है ये कविता जिसका अभी-अभी ज़िक्र की हूँ ……  

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू  के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख-ए-फ़ितरत का नशा, 
कभी शाम-ए-ज़श्न  ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में 
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें 
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं  भर रहा परवाज़ था.
कभी  था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा 
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी 
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा 
और जिंदगी चलती रही .…… 
  

Sunday, June 8, 2014

आज की युवा पीढ़ी......

आज की युवा पीढ़ी ,एक नई सोच,एक नये उत्साह और भरपूर आत्मविश्वास के साथ ,सर उठाकर जीना चाहती है,आसमान को छूना चाहती है.…और इसके लिये बेहद ज़रूरी है कि समाज का हर वर्ग समानाधिकार के साथ,अपना-अपना दायित्व संभाले,कदम-से-कदम मिलाकर विकास के रास्ते पर     चले ……न कोई छोटा हो न कोई बड़ा,न कोई ऊँचा हो न कोई नीचा......निश्चय ही रास्ता सुगम हो जायेगा,मंज़िल  तक पहुँचना आसान और तरक्की के सभी द्वार खुद-ब-खुद खुलते चले जायेंगे......लेकिन इन सबके बीच में ,एक बहुत बड़ी रुकावट है ……. और वो है 'आरक्षण'. हो सकता है कभी किसी सामाजिक व्यवस्था में इसकी आवश्यकता रही हो किन्तु आज के परिवेश में 'आरक्षण' समाज के विकास में बाधक और एक अनावश्यक बोझ के अलावा कुछ भी नहीं.यह वर्ग,वर्ण और जाति विशेष को आगे की ओर नहीं बल्कि पीछे की ओर ले जाता है,इससे सम्मान की नहीं अपमान की गंध आती है.…… काश! ये 'आरक्षण' नाम का पत्थर रास्ते से हट जाये......और एक स्वस्थ ,खिलखिलाते हुये सुबह का हम स्वागत कर सकें...... ये मैं सोचती हूँ ,पता नहीं आप सब मित्र लोग क्या सोचते हैं.……. 

Saturday, June 7, 2014

दिल से दिल तक के रस्ते पर.…….

दिल से दिल तक के 
रस्ते पर 
भारी,ट्रैफिक जाम लगा है.…… 
हर्ष-विषादों की 
जमघट है,
सही-गलत की 
तख्ती है,
चुप्पी की आवाज़ 
घनी है 
अहंकार की 
सख्ती है.…… 
नाराज़ी की भीड़-भाड़ में 
तरल गरल की 
हलचल है,
चढ़ा मुलम्मा छल पर 
निकला,
जिसमें जितना 
बल है……. 
झूठ-शिकायत की 
पेटी है,
इल्ज़ामों के दश्ते हैं,
राजनीति की सधी 
चाल से 
टूटे-बिखरे 
रिश्ते हैं.…….