कारगिल से जुड़ी ये घटना याद आ गयी ……लड़ाई एकदम घमासान चल रही थी . शाम में दिल्ली के विलिंगटन हॉस्पिटल से एक डॉक्टर साहब का फोन आया ,मेरे पति से बात करना चाह रहे थे . मेरे यह कहने पर कि इस समय वो घर पर नहीं हैं बेहद परेशान लगे सो मैं पूछ बैठी -'कोई खास बात है क्या ?' वे बोले- उनका भाई कारगिल में है ,कभी भी कोई खबर आ सकती है …. लेकिन उसके घर का फोन खड़ाब है. किसी भी तरह फोन ठीक करा दें यही रिक्वेस्ट करने के लिये फोन किया था क्योंकि आपके पति टेलेफोन विभाग में हैं …… मैं बोली आपका काम तो ज़रूर ही हो जाता लेकिन वे सरकारी काम के सिलसिले में विदेश गये हुए हैं . मन भाव-विह्वल हो रहा था ,सोची कुछ तो करना ही है ,उनसे बोली -मैं अपनी ओर से कोशिश करके देखती हूँ . फोन रखने के बाद ,जहाँ तक मुझे याद है रात के 8-9 बजे होंगे ,टेलीफोन विभाग के एक-दो लोगों को फोन की और सारी बातें बताकर आग्रह की……. कि डॉक्टर साहब के भाई का फोन ,यथासंभव जल्दी ठीक करा दें ……सुबह-सुबह डॉक्टर साहब का फोन आया, धन्यवाद देते हुये बोले -भाई से बात भी हो गई……. और मैं इतनी खुश कि क्या बताऊँ ? इन खुशियों की न तो कोई कीमत होती है न ही इनका वर्णन किया जा सकता है……
किसी की मदद करके जो ख़ुशी मिलती है उसकी कीमत आंकना सम्भव नहीं है...और वह मदद यदि किसी सैनिक से जुड़ी हो तो कहना ही क्या..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (29-07-2014) को "आओ सहेजें धरा को" (चर्चा मंच 1689) पर भी होगी।
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हरियाली तीज और ईदुलफितर की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह है एक सिविलियन का योगदान!! एक सच्ची देश-सेवा! आपके इस जज़्बे को सलाम दीदी!!
ReplyDeleteलाजवाब...
ReplyDeleteआपका यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय रहा .... अच्छा लगा पढ़कर ....
ReplyDeleteसादर
समझ सकता हूँ आप कितनी खुश हुई होंगी !
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