Wednesday, October 15, 2014

जाड़ों में प्रायः दिख जाते हैं………

जाड़ों में प्रायः
दिख जाते हैं, वृद्ध-दंपत्ति, 
झुकी हुई माँ ,कांपते हुए
पिता.....धूप सेकते हुए.....
कभी 'पार्क'में,कभी
'बालकनी'में,
कभी 'लॉन' में
तो कभी'बरामदों' में.
मोड़-मोड़कर
चढ़ाये हुए 'आस्तीन'
और
खींच-खींचकर
लगाये हुए'पिन' में
दिख जाता है.......वर्षों से
विदेशों में बसे,
उनके धनाढ्य बाल-बच्चों का
भेजा हुआ
बेहिसाब प्यार.
ऊल-जलूल ,पुराने,शरीर से
कई गुना बड़े-बेढंगे
कपड़ों का
दुःखद सामंजस्य,
सुदूर........किसी देश में
सम्पन्नता की
परतों में
लिपटी हुई नस्ल को,
धिक्कारती.......
ठंढ से निश्चय ही बचा लेती है,
इस पीढ़ी की सामर्थ्य को
संभाल लेती है........लेकिन
कृतघ्नता  के आघात की
वेदना का
क्या......
आपसे अनुरोध है......
इतना ज़रूर कीजियेगा,
कभी किसी देश में
मिल जाये वो नस्ल......तो
इंसानियत का,
कम-से कम एक पर्चा,
ज़रूर
पढ़ा दीजियेगा.......... 

10 comments:

  1. वाह शरद के आगमन पर सुंदर कोमल भाव

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.10.2014) को "नारी-शक्ति" (चर्चा अंक-1769)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  3. इंसानियत के ऐसे पर्चे अब कोई पढना नहीं चाहता......

    मन को छू गयी रचना....
    सादर
    अनु

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  4. जो दूर हैं वे तो विवश हैं लेकिन जो घर में साथ रहते हुए भी थमा देते हैं कुछ ऐसा ही...

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  5. बहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना........शुभकामनायें ।
    सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !

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  6. सार्थक प्रस्तुति
    ज्योतिपर्व की हार्दिक मंगलकामनायें!

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  7. मृदुलाजी यह नस्ल अलग किस्म की होती है ..यह हर देश में पाई जाती है ...दुखद है पर सच है ............मर्म को छू गयी आपकी बात

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