पिता के बाद ……
बची हुई माँ
अचानक
कितनी निस्तेज
लगने लगती है……
एक नये प्रतिबिम्ब में
तब्दील हुई,
खुद को ही नहीं
पहचानती है ……
बेरंग आँखों की उदासी से
उद्धेलित मन को
बाँधती है,
सुबह-शाम की उँगलियाँ थामे
अपने-आप ही
संभलती है,
तूफान के प्रकोप को समेटती हुई
रुक-रुक कर
चलती है ………
मन के
सूनेपन को
जाने किस ताकत से
हटाती है ,
यादों के प्रसून-वन में
हँसती- मुस्कुराती है ,
भावनाओं के साथ
युद्ध करते हुये
आँसुओं को
पी जाती है……और
कभी कमज़ोर दिखनेवाली
माँ……
अचानक
कितनी मजबूत
लगने लगती है ………