आज सुबह-सुबह
मन ने कहा
मेरा मन नहीं लग रहा..
अरे! तुम्हारे पीछे ही तो
सारा दिन बिताती हूँ
तरह-तरह से तुम्हें ही तो
बहलाती हूँ
अच्छा चलो, साहित्य अकादमी या
फिर ज्ञानपीठ
किताबें खरीदेंगे..
अभी-अभी तो गये थे
किताबें भी ली थी
मन ने मना कर दिया..
तो चलो चांदनी चौक,करोल बाग
या कनॉट प्लेस..लेकिन
धूप बड़ी कड़ी है..अच्छा छोड़ो
मॉल चलते हैं
ठंढ़े-ठंढ़े..
नहीं-नहीं ,मॉल नहीं
मन झल्लाकर बोला..
वहाँ यंत्र की तरह घूमते रहना
इस कोना से उस कोना
बड़ी कोफ़्त होती है
दम घुटता है..
तो सुनो ,ऐसा करते हैं
आज सोमवार है
हाट लगता है
मन चहक उठा
हाँ-हाँ वहीँ चलते हैं
वहाँ धरती से जुड़े लोग
मिलते हैं
कहीं कृत्रिम हँसी नहीं
कहीं कोई दिखाबा नहीं
बस..छोटी-छोटी बातें
गाँव-घर की बातें
सील-बट्टा ,चिमटा, अंगीठियां
हरी-हरी,ताज़ी-ताज़ी
मिट्टी लगी सब्जियां..
सीधे-सादे साधारण से लोग
कमर-कन्धों पर
बच्चों को उठाये
कितने स्वाभाविक लगते हैं..
कितने निश्छल लगते हैं..
यही सही है
यही ठीक रहेगा..
चलो वहीँ चलते हैं
मेरा मन लगेगा..
मन ने कहा
मेरा मन नहीं लग रहा..
अरे! तुम्हारे पीछे ही तो
सारा दिन बिताती हूँ
तरह-तरह से तुम्हें ही तो
बहलाती हूँ
अच्छा चलो, साहित्य अकादमी या
फिर ज्ञानपीठ
किताबें खरीदेंगे..
अभी-अभी तो गये थे
किताबें भी ली थी
मन ने मना कर दिया..
तो चलो चांदनी चौक,करोल बाग
या कनॉट प्लेस..लेकिन
धूप बड़ी कड़ी है..अच्छा छोड़ो
मॉल चलते हैं
ठंढ़े-ठंढ़े..
नहीं-नहीं ,मॉल नहीं
मन झल्लाकर बोला..
वहाँ यंत्र की तरह घूमते रहना
इस कोना से उस कोना
बड़ी कोफ़्त होती है
दम घुटता है..
तो सुनो ,ऐसा करते हैं
आज सोमवार है
हाट लगता है
मन चहक उठा
हाँ-हाँ वहीँ चलते हैं
वहाँ धरती से जुड़े लोग
मिलते हैं
कहीं कृत्रिम हँसी नहीं
कहीं कोई दिखाबा नहीं
बस..छोटी-छोटी बातें
गाँव-घर की बातें
सील-बट्टा ,चिमटा, अंगीठियां
हरी-हरी,ताज़ी-ताज़ी
मिट्टी लगी सब्जियां..
सीधे-सादे साधारण से लोग
कमर-कन्धों पर
बच्चों को उठाये
कितने स्वाभाविक लगते हैं..
कितने निश्छल लगते हैं..
यही सही है
यही ठीक रहेगा..
चलो वहीँ चलते हैं
मेरा मन लगेगा..
कहीं कृत्रिम हँसी नहीं
ReplyDeleteकहीं कोई दिखाबा नहीं
बस..छोटी-छोटी बातें
गाँव-घर की बातें
सील-बट्टा ,चिमटा, अंगीठियां
हरी-हरी,ताज़ी-ताज़ी
मिट्टी लगी सब्जियां..
सीधे-सादे साधारण से लोग
कमर-कन्धों पर
बच्चों को उठाये
कितने स्वाभाविक लगते हैं..
कितने निश्छल लगते हैं..
बहुत सुंदर..मन वहीँ तो लगता है जहाँ अपनापन है..दिखावा नहीं..
मन का लगना जरुरी ..........सुन्दर रचना
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गंगा से सवाल पूछने वाला संगीतकार - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteजी का लगाना नहीं दिल्लगी, नहीं दिल्लगी...
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी कविता ,उम्दा पंक्तियाँ ..
सीधे-सादे साधारण से लोग
ReplyDeleteकमर-कन्धों पर
बच्चों को उठाये
कितने स्वाभाविक लगते हैं..
कितने निश्छल लगते हैं..
बहुत सुंदर..
कहीं कृत्रिम हँसी नहीं
ReplyDeleteकहीं कोई दिखाबा नहीं
बस..छोटी-छोटी बातें
गाँव-घर की बातें
सील-बट्टा ,चिमटा, अंगीठियां
हरी-हरी,ताज़ी-ताज़ी
मिट्टी लगी सब्जियां..
...मन अपनों को ढूंढता है ..
बहुत सुंदर..
वाह .... मन के माध्यम से आज कल की कृत्रिमता भरी ज़िन्दगी पर सटीक लिखा है ...
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