तुम्हें बुलाने को हमने,
सावन से यूँ
बोला था...कि कह देना,
बारिश की बूँदें
गिरतीं हैं,
अपनी छत से होकर
हर दिन ,
तुम जिसे देखते रहते थे,
खिड़की पर बैठे,
हर पल -छिन.
सावन आँखों में
भरा हुआ,
लेकर जबाब यह
आया था, तुम
फव्वारों से उड़ती,
बूंदों में खोकर,
अपना वह सावन
भूल गए.
मैं जाड़ों की शीत-लहरी को
समझाई थी,
जाकर कहना....कि
बैठ धूप में,
मूंगफली के दानों के संग,
गर्म चाय के
ग्लासों से,
तलहथियों को गरमा जाएँ.
तुमसे मिलकर,
कितने दिन तक,
मुझसे मिलने में
कतराई, फिर बोली थी ...
जब जाड़ों में,
बर्फ़ पड़ती है दिन-रात,
तुम अंदर बैठकर,
उन सफ़ेद खामोशियों को,
कर लेते हो,
आत्मसात और
कि तुम अब,
शीत -लहरी को ,
नहीं पहचानते .
फिर फागुन को बुलवाई थी
कि जाओ,
याद दिला आओ,
होली के गीत,
सुना आओ, उन मालपूओं की
खुशबू पर,
इत्रों के नाम ,
गिना आओ...
लेकिन तुमसे मिल सका नहीं,
तुम व्यस्त थे वहां ,
आसमानी ख़्यालों में ,
ख्वाबों की उड़ानों में ,
परदेश की चालों में.
तुम्हारे सर पर था सवार,
'इस्टर' का सोमवार और
फिर....आखिरी बार,
हमने,
भेजी थी वसंत .
तितलियों के पंखों पर,
फूलों की खुशबू लेकर कि
बता देना....फूलों के रंग ,
सुना आना कोयल की कूक
लेकिन.......
वहां 'स्प्रिंग' के,
बिना खुशबू वाले
फूलों की पकड़ ,
तुम पर,
सख्त होती गयी ,
'कोलोन' का छिडकाव,
दिन-प्रतिदिन तुम्हें
जकड़ता गया,
पतझड़ को 'ऑटम' से
बदलकर, तुमने मन को,
बहला लिया,
यहाँ के तीज-त्यौहार,
'क्रिसमस-ट्री' के
सितारों और लट्टूओं पर
चढ़ा दिया ......और
फिर एक दिन.....
कंकरीट के जंगल ने,
सोंधी मिट्टी की
कोमलता पर,
ऐसा प्रहार किया कि
अलग हो गए
तुम्हारे जड़ -मूल
और बिना कुछ सोचे ,
झट से,
कसकर बांध ली,
तुमने अपनी मुट्ठी
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
बस यही चाह बेगाना बना देती है……………सुन्दर रचना।
ReplyDeleteफिर एक दिन.....
ReplyDeleteकंकरीट के जंगल ने,
सोंधी मिट्टी की
कोमलता पर,
ऐसा प्रहार किया कि
अलग हो गए
तुम्हारे जड़ -मूल
और बिना कुछ सोचे ,
झट से,
कसकर बांध ली,
तुमने अपनी मुट्ठी
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
aur sabkuch khud se alag ... achhi rachna
बहुत सुन्दर, कमाल कि प्रस्तुति, यथार्थ से जुडी हुई!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
ReplyDeletehttp://draashu.blogspot.com
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ReplyDeleteहर मौसम के साथ सन्देश और आगे बढने कि ललक में पीछे छूटे सम्बन्ध ...गहरी वेदना है .
ReplyDeleteअलग हो गए
ReplyDeleteतुम्हारे जड़ -मूल
और बिना कुछ सोचे ,
झट से,
कसकर बांध ली,
तुमने अपनी मुट्ठी
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
बेहतरीन .....
और बिना कुछ सोचे ,
ReplyDeleteझट से,
कसकर बांध ली,
तुमने अपनी मुट्ठी
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
Aah! Kaisa dard simat aaya hai is rachana me!
संवेदनाओं से भरी गहन रचना.
ReplyDeleteजीवन की पल पल परिवर्तित होती छटा की सच्चाईयों की खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
पूरी बात कह दी..
ReplyDeletebohot bohot hi prabhavi kavita hai mridula ji...sach...bohot pyaari. kitni sehejta se keh di itni gehri baat...kudos to u dear :)
ReplyDeleteअलग हो गए
ReplyDeleteतुम्हारे जड़ -मूल
और बिना कुछ सोचे ,
झट से,
कसकर बांध ली,
तुमने अपनी मुट्ठी
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
बेहतरीन शब्द रचना ...
मेरे ब्लाग पर आपके प्रथम आगमन का स्वागत है ...।
भाव बड़े गहरे में है ,सोंचने पे विवश करती कविता
ReplyDeleteसच्चाई को वयां करती रचना , बधाई
ReplyDeleteआदरणीया मृदला प्रधान जी, भूलवश अपने मेरा अनुभूति व्लाग फोलो कर लिया है जबकि आप मेरा" दिल की बातें "व्लाग करना चाहती थी अत अब आप दिल की बातें फालो कर लें, धन्यवाद
ReplyDeleteमृदुला जी , इक पूरी ज़िन्दगी लिख दी चंद पंक्तियों में .....
ReplyDeleteविदेशों के शौकीन भारतियों के लिए ये कविता प्रेणादायक है ....
एक भारतीय स्त्री की विरह वेदना को आपकी कलम ने मूर्त रूप दिया है ....
सशक्त लेखन .....!!
बहती नदी की तरह कविता है आपकी। बेहतर है।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत मार्मिक ... पर जब उस ग्रीन कार्ड पर समय कि धूल चढ़ जाती है ... और कुछ नज़र नहीं आता तो फिर अपनी धरती और वतन कि यादें ताज़ा हो जाती हैं .....
ReplyDeleteजब जाड़ों में,
ReplyDeleteबर्फ़ पड़ती है दिन-रात,
तुम अंदर बैठकर,
उन सफ़ेद खामोशियों को,
कर लेते हो,
आत्मसात और
कि तुम अब,
शीत -लहरी को ,
नहीं पहचानते .
behad sundar rachna ,baaldivas ki badhai .
झट से,
ReplyDeleteकसकर बांध ली,
तुमने अपनी मुट्ठी
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
..ek pyar mein dubi virhani kee manodasha ka manohari sampurn chitran karti aapki rachna man mein gahri utar gayee...
मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना....
ReplyDeleteक्योंकि...... मुट्ठी में,
ReplyDeleteतुम्हारा 'ग्रीन -कार्ड 'था .
...गहरी संवेदनाएं छुपी हैं कविता में...बधाई.
_________________
'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में...
संवेदना को झकझोरती हुई यथार्थ के कनवास पर उकेरी गयी सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDelete-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
"आत्मसात और
ReplyDeleteकि तुम अब,
शीत -लहरी को ,
नहीं पहचानते ."
सुन्दर पंक्तियाँ, सुन्दर रचना..शुभकामनाएं...
मृदुला जी! इसे उलाहना कहूँ, व्यथा कहूँ, पुकार कहूँ, मनुहार कहूँ... या फिर कुछ न कहूँ..क्योंकि यह कविता कुछ न कहने का आह्वान करती है...आपने ज़ुबान पर ताले डाल दिए हैं... मेरे परिजन भी ऐसा ही कहते थे,जबकि उनको ये पता था कि मैं लौट आउँगा!!
ReplyDeleteबढ़िया सटायर है ।
ReplyDeleteउत्तम ख्याल ..
ReplyDelete.मेरे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया ...आगे भी यूँ ही उत्साहवर्धन करते रहें ..
aapki k man kavita pahali baar padhi aur man bheeg gayaa ....
ReplyDeleteसबके दिलों का हाल लिख दिया यथार्थ के धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया
ReplyDeleteकुछ नहीं किया जा सकता, कुछ लोगों की अपनी समझ है तो कुछ के अपने तर्क...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteमुट्ठी में ग्रीन कार्ड ऐसा है
ReplyDeleteजैसे साप के मुह में छुछुंदर.
जोर का झटका देहीरे से लगने वाला मर्म लिए कोमल व्यंग्य.