1965 के ज़माने में शादी के बाद बहु का घर-गृहस्थी जमाने के लिये ,घर की बड़ी-बूढ़ी साथ जाया करती थीं.....सो मेरी सास भी 'सिलिगुड़ी' आ गयीं.नौकर की सहायता से घर सँभालने लगीं.खाली समय में आँख बंद कर 'साधन' करती थीं या माला फेरती थीं.वो छुआ-छूत मानने के कारण चावल-दाल-रोटी खुद बनाती थीं.इसके अलावा भी विभिन्न प्रकार का भोजन बनाने का उन्हें बेहद शौख था.तब पत्थर के कोयले का चूल्हा होता था,जैसे ही आँच धीमी होती थी ऊपर से और कोयला डालना पड़ता था और लोहे की चिमटी से नीचे की बुझी राख को झाड़ना पड़ता था.खैर! तो होता ये था कि बारह बजे तक सारा खाना बनाकर,चूल्हे पर दाल चढ़ा देती थीं हालाँकि तब तक
'प्रेशर-कुकर' का अविष्कार हो चूका था लेकिन 'प्रेशर-कुकर' के अंदर रबड़ लगा है यह कहकर वो 'कुकर' का इस्तेमाल नहीं करती थीं.बहरहाल चूल्हे पर पतीले में दाल चढ़ जाता था.अब देखिये,मुझसे कहती थीं......तुम दाल देख लेना. अब बताइये सत्रह साल की बच्ची यानि मैं जिसने कभी हाथ से डालकर पानी भी नहीं पीया हो वो दाल क्या देखेगी......क्या समझेगी....तो होता ये था कि मुझे भी नींद आ जाती थी और आँख खुलने पर जब तक रसोई में पहुँचती थी,सारी दाल उफनकर,कुछ चूल्हे पर और कुछ ज़मीन पर फैल चुकी होती थी.दाल का पानी गिर जाने के कारण चूल्हा बुझ जाता था,दाल कच्ची रह जाती थी.....अगर चूल्हा नहीं बुझता था तो दाल जल जाती थी यानि किसी भी हालत में खाने में दाल नहीं रहता था.....लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे तब होता था जब दाल की इस दुर्घटना पर मेरी सास कभी कोई शिकायत नहीं करती थीं और नये सिरे से हर रोज़ मुझसे कहती थीं कि दाल को जरा देख लेना.उधर मेरे पति,एक-डेढ़ बजे के करीब ऑफिस से लंच खाने के लिये घर आते थे.यहाँ हर रोज दाल का नया किस्सा लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर,उनकी बातों में दाल को लेकर कोई समस्या नहीं दिखती थी.एकदम खुशी-खुशी जो खाना बना रहता था,खाकर 'ऑफिस' चले जाते थे.पता नहीं बार-बार यह प्रक्रिया दोहराये जाने के बाबजूद उन लोगों को मुझपर गुस्सा क्यों नहीं आता था.......कितना धैर्य था उनमें,सोचकर आज भी आश्चर्य होता है.......
Bahut achha laga is sansmaran ko padhana...mere blogpe bhee padharen...mujhe khushee hogee..
ReplyDeleteवक्त के साथ धीरज भी चुकता जा रहा है शायद.....
ReplyDeleteसादर
अनु
आज की सबसे बड़ी समस्या ही धरी की है जो खत्म होता जा रहा है युवा पीड़ी में ...
ReplyDeleteसुंदर स्मृति...कहाँ गये वे असीम धैर्यशाली लोग..
ReplyDeleteसुंदर सृजन !
ReplyDeleteRECENT POST : बिखरे स्वर.
यही है वास्तविक भारतीय समाज। आज जिस समाज को दर्शाकर बताया जा रहा है वह हमारा समाज नहीं है, लेकिन इतनी गलतबयानी की गयी है कि अब समाज ऐसा ही होने लगा है। अच्छा संस्मरण।
ReplyDeleteसुन्दर संस्मरण साझा किये हैं आपने |
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeletedownloading sites के प्रीमियम अकाउंट के यूजर नाम और पासवर्ड
This was great to read thanks
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