1981से 1986 तक सूडान में रहे. वहाँ के लोग अधिकतर अरबी भाषा बोलते थे.इंगलिश भी बहुत कम समझते थे.....तो 'इंगलिश-अरेबिक' किताब पढ़कर बड़ी मेहनत से अरबी शब्द ढूँढती थी,याद करती थी और छोटे-छोटे ,टूटे-फूटे वाक्य बनाती थी.....लेकिन फल ये मिलता था कि कंठस्त वाक्य किसीसे कह तो देती थी पर जो जबाब आता था......कुछ भी नहीं समझते थे.फिर भी एक-दो साल बाद इतना तो आ गया था कि नौकर को डांट सकूँ. नौकर से याद आया.जो मेरे यहाँ काम करता था,उसका नाम 'मूसा' था.एक दिन मुझसे बोला कि मुझे कल छुट्टी चाहिये. मेरे पूछने पर कि क्या काम है,बताया कि कल मेरे पिता की सातवीं शादी है और मुझे गवाह बनना है.( ये सारा सवाल-जबाब अरबी भाष में हो रहा था.....सोचिये मैं कितना ज्यादा सीख गयी थी) अभी मैं उसकी बात से पूरी तरह संभल भी नहीं पायी थी कि एकाएक पूछ बैठा, मदाम....आपकी कितनी मम्मी है? इस परिस्थिति से सप्रयास खुद को निकालकर इतना ही बोल पायी.....वाहिद.चौंक गया 'मूसा'.....एक मम्मी वाली बात उसे बेहद अस्वाभाविक लग रही थी लेकिन मैं इस विषय पर और कोई बात करना नहीं चाहती थी सो वहीँ पर रोक दी इस बात को.इंडिया आने पर अम्मा को बताये.....हँसते-हँसते सबका बुरा हाल था.
ओह ! हँसी तो हमें भी बहुत आ रही है पर दुःख भी हो रहा है बेचारे मूसा के लिए..
ReplyDeleteसबका अपना अपना देश का रिवाज़ फिर भी भारत पर मुझे गर्व
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