अम्मा जमींदार परिवार से थीं.एकलौती संतान होने के कारण नाना-नानी के नहीं रहने पर सारी जिम्मेवारी उन्हीं की हो गयी थी.अभी भी याद है......बचपन में ननिहाल जाने पर उनकी 'प्रजा' झुंड- के- झुंड मिलने आती थी.ज़मीन पर बैठती या फिर खड़ी ही रहती थी और 'मालिक' या 'सरकार' कहकर संबोधित करती थी. ज्यादा बूढ़े लोग 'बऊआ' या 'बच्ची' कहकर बुलाते थे. कोई आम का 'बयाना' लेकर आता था तो कोई लीची का 'बयाना' लेकर आता था. 'बयाना' मतलब आम-लीची के बगीचे में जाकर,पकने से पहले अंदाजा लगाया जाता था कि पूरे बगीचे का फल कितने का होगा.......उसी आधार पर,पूरे पैसे का कुछ भाग खरीदने वाली 'पार्टी' 'एडवांस'के तौर पर दे जाती थी. यही 'एडवांस ' 'बयाना' कहलाता था. इसके अलावा तम्बाखू ,मिर्चा ,गन्ना ,मकई ,पटुआ (जिससे रस्सी बनायी जाती थी और डंडियों से कंडे की कलम) इत्यादि की फसलों का लेखा-जोखा होता रहता था.बाहर में सिपाही जी का कमरा था,वे 24/7 वहीँ रहते थे. वहीँ बरामदे में दीवान जी सुबह से शाम तक,लोहे के छोटे से बक्से में बही-खाता ,कलम-दवात वगैरह लेकर बैठे रहते थे. ज़मींदारी प्रथा तो बहुत पहले ही सरकार ने समाप्त कर दी थी जिसका मोआब्ज़ा काफी दिनों तक अम्मा को मिलता रहा लेकिन वहां के पूरे माहौल में ,लोगों की मानसिकता और तौर-तरीकों में कोई बदलाव नज़र नहीं आता था. जमींदार और रैयत ,आसामी ,प्रजा जो कह लीजिये वाली परम्परा साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती थी........और अम्मा के स्वभाव में भी ज़मींदारों वाला कड़कपन सुरक्छित था.
बेहतरीन अभिवयक्ति.....
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