Wednesday, February 5, 2014

संस्कारों के धज्जियों की धूल.....

संस्कारों के धज्जियों की धूल,
जब उड़-उड़ कर
पड़ती है.....आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......तब,
मूंदकर चुप-चाप,
कपड़े का बनाकर
भाप,
सेक लेते हैं, अपने आप
निरुपाय
माँ-बाप......
एक कृत्रिम हंसी से
सुसज्जित,
उनके चेहरे के पीछे का
दर्द,
परदे में रह जाता है..... 
और 
आधुनिकता के प्रकोप से 
लहलहाते हुए 
शोर में......
उनका हर दुःख 
अदृश्य हो जाता है........
बताइए ,
आपको कभी दीखता है?
और 
मैं परेशान हूँ 
कि
मुझे क्यों दीखता है? 

5 comments:

  1. बहुत गहराई से महसूस की हुई सम्वेदना हैं दीदी! ख़ासकर संस्कारों की धज्जियों की धूल और कपड़े से आँखों को भाप देने का बिम्ब, उस दर्द का एहसास दिलाता है!!

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन किस रूप मे याद रखा जाएगा जंतर मंतर को मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. समय के साथ सब कुछ बदल जाता है...संस्कार भी...

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  4. समवेदनाओं से परिपूर्ण .... बेहतरीन रचना

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