तब…… यानि 1967-68,आसनसोल में कोयले के चूल्हे पर खाना बनाती थी . एक पीला-लाल रंगवाला मिट्टी के तेल का 'जनता-स्टोव' भी रहता था…… जल्दबाज़ी में कुछ काम हो,उस समय के लिये .एक दिन बगल में रहनेवाली मेरी फ्रेंड मिसेज गुहा आकर बोलीं ,मैंने एक नयी चीज खरीदी है…… चलिये,देखने.वहाँ गयी तो वो दिखाने लगीं.....टेबल पर रखा हुआ एकदम ठोस लोहे से बना गहरे हरे रंग की कोई चीज....... बोलीं,ये डबल बर्नर वाला चूल्हा है . न कोयला ,न मिट्टी तेल ,न बिजली.....बस गैस के सिलिंडर से चलेगा,माचिस कि तीली से जलेगा . जब चाहिये स्विच ऑन, जब चाहिये स्विच ऑफ. दंग रह गयी………क्या मज़ेदार चीज है , मन-ही-मन सोची ,ये तो कोयला और मिट्टी के तेल से रोज़ होनेवाले घमासान का अंत कर देगी सो अता-पता पूछकर घर आयी और आते ही आर्डर कर दिया गया……शायद कलकत्ता से आने में 15-20 दिन लगे थे. कितनी सहूलियत हो गयी थी खाना बनाने में……आज किचेन में इतनी सारी सुविधाओं के बाबजूद भी ,मुझे उस समय की वो सुविधा........अतुलनीय लगती है..........
सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत बढिया
ReplyDeleteकोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteकल और आज में यही अंतर है ...!
ReplyDeleteRECENT POST -: पिता
sunder likha hai
ReplyDeleterachana
बढ़िया यादें …
ReplyDeleteWell written write up
ReplyDeleteप्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कुराहट पर ...खुशकिस्मत हूँ मैं एक मुलाकात मृदुला प्रधान जी से
यही होता है आदरणीय दीदी जी
ReplyDeleteगए वक़्त लौटते नहीं………पर यादें ज़हन में हमेशा रहती हैं।