आधुनिकता की दौड़ में जब कुछ ऐसी-वैसी कहानियों का 'प्लाट' दिख जाता है तो बरबस मुझे मिथिलांचल से आये हुये एक लेखक की कही हुई बात याद आ जाती है....... " मैं जिस क्षेत्र और परिवेश से आया हूँ ,भूखा मर सकता हूँ ....... पर अपनी माँ-बहन के जवानी के किस्सों को लेकर कभी कहानी-उपन्यास नहीं लिख सकता …… और उनकी इस बात पर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था सभागार.......सबकी नज़रों में उनके लिए सम्मान का भाव था ……लेखक ऐसे भी होते हैं,पाठक ऐसे भी होते हैं……
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (28.03.2014) को "
ReplyDeleteजय बोलें किसकी" (चर्चा अंक-1565)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ऐसे ही एक कवि से ही मिलने का सौभाग्य मिला था। अब वो तो नहीं हैं पर उनके कहे एक एक शब्द कानों में गुंजायमान हैं और रहेंगे।
ReplyDeleteजीवन भर दुःख और दरिद्रता के सिवाय उन्हें कुछ न मिला। पर जो भी मिला वो शायद बिरले किसी को मिला।
परम आदरणीय सवर्गीय ''नागाजुर्न'' बाबा को नित् नमन
एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''कोई न सुनता,'अभी' जो बे-सहारे हैं''
हिन्दी साहित्य ऐसे रचनाकारों ने ही समृद्ध किया है ।
ReplyDeleteआज हिन्दी साहित्य को ऐसे ही साहित्यकारो की आवश्कता है..
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा।