हिन्दी साहित्य के जाने -माने रचनाकार श्री गंगा प्रसाद विमल ने , अपने अमूल्य शब्दों से मेरी छठवीं कविता-संग्रह 'धड़कनों की तर्ज़ुमानी ' की समीक्षा की है . ये मेरा सौभाग्य है और मैं ह्रदय से उनकी आभारी हूँ …….
'धड़कनों की तर्ज़ुमानी ' मृदुला प्रधान की इधर कुछ वर्षों की लिखी कविताओं का संकलन है . उनके पहले संग्रह की कविताओं ने यह उम्मीद बनाई थी कि जिस सहजता से वे अपने पहले संग्रह में छविमान हुई हैं उसी सहजता के नये प्रयोग आगे आनेवाली कविताओं का आधार बनेंगे और वे अपनी अलग जगह बनाने के लिये सक्रीय नज़र आयेंगी . इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने ,अपनी सहजता कायम रखी है और भारतीय स्त्री के स्वभाव की तर्ज़ुमानी कुछ इस ढंग से की है कि आस्था विश्वास और भावानुभावों की तीव्रता तो बरकरार है ,साथ-ही -साथ सांकेतिक रूप से परिवार ,समाज ,संगी -साथी ,मिले-बिछुड़े परिजन और परिचित जनों का भरा-पूरा संसार भी अपने ही ढंग से उपस्थित है और यह हम सबका अति परिचित संसार या परिवार है जो समय के अनाम पड़ावों से अपने विकसन की दिशा की ओर अग्रसर है . इसी भौतिक उपस्थिति में हम इसे अपना समाज कहते हैं भले ही उसका वर्गीकरण कहते हुए हम उसके विभाजन के लिए गाँव ,कस्बों ,शहरों के नाम से उसे चीन्हते हैं ,हम उसे वर्गों में देखते हैं पर पहचानते उसके समूचेपन में हैं . आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कविता की खासतौर से हिन्दी कविता की लम्बी परंपरा में हम उसे अपने विश्वास के घेरे में पाते हैं और हमारा विश्वास भी न जाने कैसे उन्हीं मान्यताओं की चौहद्दी में से चलता हुआ हमें फिर से आद्दय सवालों के सामने ला खड़ा करता है .
मृदुला जी की कवितायेँ एक प्रौढ़ कलम के अनुभव हैं किन्तु उनमें बराबर एक अबोध शिशु जैसे उस सत्य को टोहने के लिए बेचैन है जिसके सामने सारा इतिहास बड़े गुम्बद की तरह दर्शनीय ,रहस्यमय और आकर्षक है . 'स्त्री 'होने के नाते उन्होंने अपनी उस मृदुलता को छिपाया नहीं है बल्कि एक बड़े प्रश्न को हल करने के लिए जिस स्पष्टता ,सत्यनिष्ठा और साहस की ज़रुरत थी उसे बराबर अभिव्यक्ति की दहलीज पर हर परीक्षा के सामने गुजरने दिया और उसके 'देवत्व 'को मानवीय जरुरत में नैसर्गिक ढंग से तब्दील होने दिया और इसका प्रमाण उनकी भाषा है जो हिन्दी -उर्दू की पुख्ता जमीन से हिंदुस्तानी या हिन्दवी की तर्ज पर आम बोल-चाल से जन्मती है और इसी बोल -चाल में परम्परा से अपने को जोड़े रखने की चाह का प्रतिफल उनकी सरस्वती वंदना है जिसका आशय खुद को उस समाज से बाँधे रखना है जहाँ प्रकृति की आबद्धता वह अनिवार्य शर्त सी है ,जिससे हम लोक का अविविछिन्न अंग बने रहते हैं और अन्तर्धाराओं में अपने खेत -खलिहानों ,नीम ,पीपल ,बरगदों की छाँव से मिलने वाले 'रसायन' से परिचालित होते रहते हैं . यह 'रसायन' एकदम उस 'केमेस्ट्री 'का हिस्सा है जिसमें हम एक साथ 'देह ' कहते हैं और उसी तर्ज में 'देवत्व ' का संरक्षण भी करते हैं . मृदुला जी की कविताओं का यही केन्द्रीय विषय है जिसे हम अपने अतीत में अनेक सृजेताओं की वाणी में रूपायित देखते हैं और देखते हैं कि उसी में हमारा आलौकिक अहसास भी संरक्षित है . उसे वाणी बुल्लेशाह ने भी दी थी -
"मंदिर ढाईं ,मसजिद ढाईं
ढाईं जे कुछ ढ़हदां
दिलबर दा दिल कदी न ढाईं
ओये विच रब रैन्दां "
मृदुला जी ने उसके आधानुभव को वाणी दी है -
"कलियों ने
शोर मचाया है
नये फूल की
आहट सुन
हर तरफ़
उमंग समाया है "
पर इतना ही नहीं मृदुला जी ने बहुत सहज ढंग से ,करीने से उस रसायन की परत -परत खोल एक साथ यह भी उद्घाटित किया है कि देह के भीतर ही दिव्यता की अदेहता का निवास है .
आज हम जिस सवाल से लड़ रहे हैं -हमारा समाज ,हमारी परम्पराएँ जिस आग से झुलस रही हैं वह असंस्कारित पशुत्व असल में राग ,अनुराग के कणों से विराग में विकसित होते नये मनुष्य की विलुप्ति के कारण हैं और उससे फिर जुड़ने -मनुष्यता के सद्रूप संसार से एकमेक होने का द्वार अगर कहीं है तो वह आद्य भाव है जो हर चीज को अनुराग के विगसन के आलोक में ले जाता है . करुणा से अनुराग के रास्ते उपजी कवितायें शास्त्र नहीं होतीं न मानविकी न मनोविज्ञान पर वे संकेतिकाएँ होती हैं जो लौह दरवाज़ों में भी ज्यादा कट्टरताओं ,थोड़े में सही ,बहुत महीन आवाज़ में अन्तरिक्ष के विशाल सूनेपन के सामने अनुगुंजित कर देती है उसी की अनुगूँज मृदुला जी की कविताओं में झंकृत है . आईये उसके मूल आशयों में अपने संसार के आहत ,विक्षिप्त चेहरे को सकून के संसार से मिलने दें .
- गंगा प्रसाद विमल
11 2 ,साऊथ पार्क
कालका जी
नई दिल्ली -1 1 0 0 1 9
आपके छठवें कविता-संग्रह 'धड़कनों की तर्ज़ुमानी ' के लिए बहुत बहुत बधाई...सुंदर समीक्षा...
ReplyDeletebahut badhiya likha hai vimal ji ne ... aapko shubhkamnaye !
ReplyDeleteमृृदुला जी बहुत बहुत बधाई ।
ReplyDeleteछठवें कविता-संग्रह 'धड़कनों की तर्ज़ुमानी ' के लिए बहुत बहुत बधाई...सुंदर समीक्षा...
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