शीत का प्रथम स्वर.........
प्रत्युष का स्नेहिल स्पर्श
पाते ही,
हरसिंगार के निंदियाये फूल,
झरने लगते हैं
मुंह अँधेरे,
वन-उपवन की
अंजलियों में
ओस से नहाया हुआ
सुवास,
करने लगता है
अठखेलियाँ
आह्लाद की,
पत्तों की सरसराहट
रस-वद्ध रागिनी
बनकर,
समा जाती हैं
दूर तक .......
हवाओं में,
गुनगुनी सी धूप
आसमान से उतरकर
आसमान से उतरकर
कुहासे को बेधती हुई
बुनने लगती है
बुनने लगती है
किरणों के जाल,
तितलियाँ पंखों पर
अक्षत, चन्दन,रोली लिए
करती हैं द्वारचार
और
धरती,
मुखर मुस्कान की
थिरकन पर
झूमती हुई,
स्वागत करती है........
शीत के
प्रथम स्वर का.