Tuesday, April 8, 2014

शाख-ए-गुल से.......

शाख-ए-गुल से 
ये मैंने 
कहा एक दिन.…… 
अपनी खुशबू तो दे दो 
मुझे भी जरा 
कि लुटाऊँगी मैं भी 
यहाँ-से-वहाँ......
कुछ झिझकते हुए 
उसने हामी भरी.…… 
फिर कहा,मित्र 
लेकिन.....
सिखा दो मुझे 
पहले 
अपनी तरह तुम 
ये  चलना  मुझे भी 
यहाँ-से-वहाँ......

4 comments:

  1. गुल की खुशबू तो बिन पैरों चली जाती है...चलकर मीलों भी आदम जात कहाँ पहुंच पाती है

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  2. वाह , मंगलकामनाएं आपको !

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  3. वाह, उसकी माँग भी जायज है :)पर उसके पास तो खुशबूओं के पंख होते हैं - कहा होता न

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