शाख-ए-गुल से
ये मैंने
कहा एक दिन.……
अपनी खुशबू तो दे दो
मुझे भी जरा
कि लुटाऊँगी मैं भी
यहाँ-से-वहाँ......
कुछ झिझकते हुए
उसने हामी भरी.……
फिर कहा,मित्र
लेकिन.....
सिखा दो मुझे
पहले
अपनी तरह तुम
ये चलना मुझे भी
यहाँ-से-वहाँ......
गुल की खुशबू तो बिन पैरों चली जाती है...चलकर मीलों भी आदम जात कहाँ पहुंच पाती है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह , मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteवाह, उसकी माँग भी जायज है :)पर उसके पास तो खुशबूओं के पंख होते हैं - कहा होता न
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