Tuesday, September 24, 2013

नमन उन्हें शत बार......

दिनकर जी के बारे में
जितना लिख दूं
वह कम है,
'रश्मिरथी','कुरुछेत्र'
पढ़ी थी,
अब तक आँखें
नम हैं.
जन-जीवन,ग्रामीण ,
सहज,
कितना गहरा 
स्वाध्याय,
दिए अमूल्य ,अतुल
वैभव
'संस्कृति के चार अध्याय '.
'हारे को हरिनाम ',
'उर्वशी '
पढ़कर नहीं अघाते,
श्रोता हों या वक्ता हों,
हर पंक्ति को
दोहराते.
संसद में रहकर भी
सत्ता,
जिनको नहीं लुभाया,
दिनकर जी को मिला,
पढ़ा जो,
अब तक नहीं
भुलाया.
कृतियों का प्रज्ज्वल प्रकाश,
उत्कर्ष,
कलम का थामे ,
भारत की
गौरव-गाथा में,
राष्ट्र-कवि हैं आगे.
ऋणी रहेगा 'ज्ञानपीठ',
हिंदी का नभ
सम्मानित,
नमन उन्हें शत बार
ह्रदय यह,
बार-बार गौरवान्वित .
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Tuesday, September 17, 2013

1981से 1986 तक .......

1981से 1986 तक सूडान में रहे. वहाँ के लोग अधिकतर अरबी भाषा बोलते थे.इंगलिश भी बहुत कम समझते थे.....तो 'इंगलिश-अरेबिक' किताब पढ़कर बड़ी मेहनत से अरबी शब्द ढूँढती थी,याद करती थी और छोटे-छोटे ,टूटे-फूटे वाक्य बनाती थी.....लेकिन फल ये मिलता था कि कंठस्त वाक्य किसीसे कह तो देती थी पर जो जबाब आता था......कुछ भी नहीं समझते थे.फिर भी एक-दो साल बाद इतना तो आ गया था कि नौकर को डांट सकूँ. नौकर से याद आया.जो मेरे यहाँ काम करता था,उसका नाम 'मूसा' था.एक दिन मुझसे बोला कि मुझे कल छुट्टी चाहिये. मेरे पूछने पर कि क्या काम है,बताया कि कल मेरे पिता की सातवीं शादी है और मुझे गवाह बनना है.( ये सारा सवाल-जबाब अरबी भाष में हो रहा था.....सोचिये मैं कितना ज्यादा सीख गयी थी)  अभी मैं उसकी बात से पूरी तरह संभल भी नहीं पायी थी कि एकाएक पूछ बैठा, मदाम....आपकी कितनी मम्मी है? इस परिस्थिति से सप्रयास खुद को निकालकर इतना ही बोल पायी.....वाहिद.चौंक गया 'मूसा'.....एक मम्मी वाली बात उसे बेहद अस्वाभाविक लग रही थी लेकिन मैं इस विषय पर और कोई बात करना नहीं चाहती थी सो वहीँ पर रोक दी इस बात को.इंडिया आने पर अम्मा को बताये.....हँसते-हँसते सबका बुरा हाल था.

Monday, September 16, 2013

1965 के ज़माने में ......

1965 के ज़माने में शादी के बाद बहु का घर-गृहस्थी जमाने के लिये ,घर की बड़ी-बूढ़ी साथ जाया करती थीं.....सो मेरी सास भी 'सिलिगुड़ी' आ गयीं.नौकर की सहायता से घर सँभालने लगीं.खाली समय में आँख बंद कर 'साधन' करती थीं या माला फेरती थीं.वो छुआ-छूत मानने के कारण चावल-दाल-रोटी खुद बनाती थीं.इसके अलावा भी विभिन्न प्रकार का भोजन बनाने का उन्हें बेहद शौख था.तब पत्थर के कोयले का चूल्हा होता था,जैसे ही आँच धीमी होती थी ऊपर से और कोयला डालना पड़ता था और लोहे की चिमटी से नीचे की बुझी राख को झाड़ना पड़ता था.खैर! तो होता ये था कि बारह बजे तक सारा खाना बनाकर,चूल्हे पर दाल चढ़ा देती थीं हालाँकि तब तक 
'प्रेशर-कुकर' का अविष्कार हो चूका था लेकिन 'प्रेशर-कुकर' के अंदर रबड़ लगा है यह कहकर वो 'कुकर' का इस्तेमाल नहीं करती थीं.बहरहाल चूल्हे पर पतीले में दाल चढ़ जाता था.अब देखिये,मुझसे कहती थीं......तुम दाल देख लेना. अब बताइये सत्रह साल की बच्ची यानि मैं जिसने कभी हाथ से डालकर पानी भी नहीं पीया हो वो दाल क्या देखेगी......क्या समझेगी....तो होता ये था कि मुझे भी नींद आ जाती थी और आँख खुलने पर जब तक रसोई में पहुँचती थी,सारी दाल उफनकर,कुछ चूल्हे पर और कुछ ज़मीन पर फैल चुकी होती थी.दाल का पानी गिर जाने के कारण चूल्हा बुझ जाता था,दाल कच्ची रह जाती थी.....अगर चूल्हा नहीं बुझता था तो दाल जल जाती थी यानि किसी भी हालत में खाने में दाल नहीं रहता था.....लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे तब होता था जब दाल की इस दुर्घटना पर मेरी सास कभी कोई शिकायत नहीं करती थीं और नये सिरे से हर रोज़ मुझसे कहती थीं कि दाल को जरा देख लेना.उधर मेरे पति,एक-डेढ़ बजे के करीब ऑफिस से लंच खाने के लिये घर आते थे.यहाँ हर रोज दाल का नया किस्सा लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर,उनकी बातों में दाल को लेकर कोई समस्या नहीं दिखती थी.एकदम खुशी-खुशी जो खाना बना रहता था,खाकर 'ऑफिस' चले जाते थे.पता नहीं बार-बार यह प्रक्रिया दोहराये जाने के बाबजूद उन लोगों को मुझपर गुस्सा क्यों नहीं आता था.......कितना धैर्य था उनमें,सोचकर आज भी आश्चर्य होता है.......

अम्मा बाज़ार नहीं जाती थीं......

अम्मा बाज़ार नहीं जाती थीं.....त्योहारों पर बाबुजी थाक-पर थाक साड़ी लेकर घर आते थे और घर ही में पसंद की साड़ी चुनती थीं......क्या ज़माना था.  

अम्मा जमींदार परिवार से थीं.......

अम्मा जमींदार परिवार से थीं.एकलौती संतान होने के कारण नाना-नानी के नहीं रहने पर सारी जिम्मेवारी उन्हीं की हो गयी थी.अभी भी याद है......बचपन में ननिहाल जाने पर उनकी 'प्रजा' झुंड- के- झुंड मिलने आती थी.ज़मीन पर बैठती या फिर खड़ी ही  रहती थी और 'मालिक' या 'सरकार' कहकर संबोधित करती थी. ज्यादा बूढ़े लोग 'बऊआ' या 'बच्ची' कहकर बुलाते थे. कोई आम का 'बयाना' लेकर आता था तो कोई लीची का 'बयाना' लेकर आता था. 'बयाना' मतलब आम-लीची के बगीचे में जाकर,पकने से पहले अंदाजा लगाया जाता था कि पूरे बगीचे का फल कितने का होगा.......उसी आधार पर,पूरे पैसे का कुछ भाग खरीदने वाली 'पार्टी' 'एडवांस'के तौर पर दे जाती थी. यही 'एडवांस ' 'बयाना' कहलाता था. इसके अलावा तम्बाखू ,मिर्चा ,गन्ना ,मकई ,पटुआ (जिससे रस्सी बनायी जाती थी और  डंडियों से कंडे की कलम) इत्यादि की फसलों का लेखा-जोखा होता रहता था.बाहर में सिपाही जी का कमरा था,वे 24/7 वहीँ रहते थे. वहीँ बरामदे में दीवान जी सुबह से शाम तक,लोहे के छोटे से बक्से में बही-खाता ,कलम-दवात वगैरह लेकर बैठे रहते थे. ज़मींदारी प्रथा तो बहुत पहले ही सरकार ने समाप्त कर दी थी जिसका मोआब्ज़ा काफी दिनों तक अम्मा को मिलता रहा लेकिन वहां के पूरे माहौल  में ,लोगों की मानसिकता और तौर-तरीकों में कोई बदलाव नज़र नहीं आता था. जमींदार और रैयत ,आसामी ,प्रजा जो कह लीजिये वाली परम्परा साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती थी........और अम्मा के स्वभाव में भी ज़मींदारों वाला कड़कपन सुरक्छित था.