Sunday, December 30, 2012

रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों में......

रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों में
जब ढूँढने लगी
खुशियाँ
तो लगा......
खुशियों की कोई
कीमत नहीं होती,
रद्दी से मिले
एक सौ अस्सी रूपये में
खुशी  होती है,
मटर पच्चीस से बीस का
किलो
हो जाये
खुशी होती है,
'स्वीपर','माली''मेड '
'ड्राइवर'
समय से आयें
खुशी होती है,
आलू के पराठे पर
'बटर'
पिघल जाये
खुशी  होती है,
चक्कर लगा घर के
कोने-कोने में
खुशी होती है,
'बुक-सेल्फ' से निकालकर
किताब
पढ़ने में
खुशी होती है,
पर्दे सही लग जाएँ
खुशी होती है,
'टेबल-क्लौथ'  धुल जाएँ
खुशी होती है........तो
रोज़
बड़ी-बड़ी खुशियाँ
कहाँ मिलने वाली.....
चलो,इसी में
जी लिया जाये,
जाड़े का मौसम है
क्यों न
एक 'कप' गर्म चाय का
आनंद लिया जाये.








Thursday, December 27, 2012

कहते हैं माँ-बाप आजकल......

कहते हैं माँ-बाप आजकल......
बड़े होशियार हैं
मेरे बच्चे,
सारे 'पोयम्स' याद हैं इन्हें 
'बाई -हार्ट',
'चैम्पियन'हैं 'स्विमिंग' के,
हर बार 'फर्स्ट' आते हैं
'क्लास' में.
'गिटार' बजाते हैं,
'पियानो' बजाते हैं ,
करते हैं
'घुड़सवारी',
छोटी सी उम्र में
शौक रखते हैं 'ब्रिज' का
'शतरंज' का
खेल लेते हैं, खेल
सारी.
नहीं करते वे
इन बातों का ज़िक्र........
घूमते रहते हैं
नंगे पाँव, इधर-उधर
अंदर-बाहर,
जबाब देते हैं
हर बात का,
बदतमीजी से,
उधम मचाकर ,ऊपर की
मंजिल पर,
जीना मुश्किल
कर देते हैं
नीचे वालों का.
दूसरों के घर जाकर,
तोड़-फोड़ मचाकर,
कभी हर चीज छूकर
कभी पानी
गिराकर,
कर देते हैं- नाक में दम,
जहाँ कहीं जाते हैं,
घर में जो
छूने  की मनाही हो,
बाहर
उन्हें ही आज़माते हैं.
यह सब देखकर
माँ -बाप को आता है
लाड़,
रहने दो बच्चों,
प्यार से
थपथपाते हैं.
नहीं समझते औरों की
कसमसाहट
जब नई बिछी
कालीन पर,
बच्चे चाय छलकाते हैं,
वे समझते हैं
ये सारी खुराफ़ातें
बच्चों की होशियारी में,
चार चाँद लगाते  हैं.



 



Saturday, December 15, 2012

जाड़ों की सुबह-सुबह........

जाड़ों की सुबह-सुबह
सरकाकर सारे पर्दों को,
खोलती हूँ
दरवाज़ा जो.......
मखमली धूप
खिड़की की छड़ों से
छनकर,
हमारी दहलीज को
पारकर,
कमरे की हर चीज़ को
छूने का प्रयास
करती हुई,
छू लेती है........
बिखेड़ती हुई,
अपनी गरिमामय
मुस्कुराहट
कोने-कोने में.......
इस सुनहले स्पर्श के
सम्मोहन से
खिल उठता  है
मन-प्राण
और
आत्मसात कर लेती हूँ
इस छुअन को,
अगली सुबह तक के लिये.



Saturday, October 27, 2012


शीत का प्रथम स्वर.........

प्रत्युष  का  स्नेहिल स्पर्श  
पाते ही,
हरसिंगार  के  निंदियाये फूल,  
झरने  लगते  हैं  
मुंह  अँधेरे,
वन-उपवन  की
अंजलियों  में
ओस से नहाया हुआ
सुवास,
करने  लगता  है  
अठखेलियाँ  
आह्लाद की,
पत्तों  की सरसराहट  
रस-वद्ध  रागिनी  
बनकर,
समा जाती  हैं  
दूर  तक .......
हवाओं  में,
गुनगुनी  सी  धूप
आसमान  से उतरकर 
कुहासे  को  बेधती  हुई
बुनने  लगती  है  
किरणों  के  जाल,
तितलियाँ पंखों पर 
अक्षत, चन्दन,रोली  लिए  
करती  हैं  द्वारचार  
और  
धरती,
मुखर  मुस्कान  की 
थिरकन  पर 
झूमती  हुई,  
स्वागत  करती  है........
शीत  के  
प्रथम  स्वर  का.
  

Friday, October 19, 2012

पूजो एलो, चोलो मेला......

अपने 'ग्रैंड-सन' के लिए पहली बार बँगला में लिखने की कोशिश की है.......लिपि देवनागरी ही रखी हूँ जिससे ज़्यादा लोग पढ़ सकें......आपकी प्रतिक्रिया पता नहीं क्या होगी.....जो भी हो,सर आँखों पर.......


पूजो एलो, चोलो मेला,
हेटे-हेटे जाई,
नतून जामा,नतून कापोड़,
नतून जूतो चाई.
बाबा एनो रोशोगोला,
मिष्टी दोईर हांड़ी,
माँ गो तुमि
शेजे-गूजे,
पोड़ो ढ़ाकाई शाड़ी.
आजके कोरो देशेर खाबा,
शुक्तो,बेगुन भाजा,
गोरोम-गोरोम भातेर ओपोर,
गावार घी दाव
ताजा.
चोलो 'शेनेमा'
'पॉपकॉर्न' खाबो, खाबो
आइस-क्रीम,
आजके किशेर ताड़ा एतो
कालके छूटीर दिन.
रात्रे खाबो 'चिली' 'चिकेन',
भेटकी माछेर
'फ्राई',
ऐई पांडाले,ओई पांडाले,
होई-चोई
कोरे आई.



Sunday, October 14, 2012

कभी बाल सूर्य देखा है क्या ?

बड़े-बड़े शहरों में 'सूर्योदय' का मनोरम  दृश्य दुर्लभ हो गया है.ऊँची-ऊँची इमारतों के पीछे  सूर्य के बाल  रूप की छठा छिप जाती है.इसी भाव पर ये कविता है ........

कभी बाल सूर्य
देखा है क्या ?
हर रोज़ क्षितिज  के
कोने में,
पौ फटते ही,
एक लाल-लाल
गोला-गोला,
चपटा-चपटा
थाली जैसा,
देखा है क्या?
कभी बाल लाल की
स्निग्ध प्रभा
क्रीड़ा-कौतुक,
कभी बाल लाल की
रत्न-जटित
जो स्वर्ण मुकुट,
कभी बाल लाल
शीतल प्रकाश का
रंग-जाल,
कभी बाल लाल के
मस्तक का
हँसता गुलाल,
कभी बाल लाल का
सम्मोहन
जादू विशाल,
कभी बाल लाल की
रूप छठा से
मुदित भाल,
कभी बाल लाल का
मेघ-माल,
कभी बाल लाल की
तेज़ चाल,
हर रोज़ क्षितिज के    
कोने में,
पौ फटते ही,
एक लाल-लाल
गोला-गोला,
चपटा-चपटा
थाली जैसा,
देखा है क्या?
कभी बाल सूर्य
देखा है क्या ?







Saturday, September 29, 2012

देखी होगी तुमने.......

देखी  होगी 
तुमने........
मेरी सोती-जागती 
कल्पनाओं से,
जन्म लेती हुई
कविताओं को,प्रसव वेदना से 
मुक्त होते हुये,
सुनी होगी........ 
उनकी पहली किलकारी,
मेरी डायरी के 
पन्नों पर 
और 
महसूस किया होगा......
सृजन का सुख 
मेरे मन के 
कोने-कोने में.......

Monday, September 24, 2012

हर कोई एक तरीका ढूँढ लेता है जीने का .......

हर कोई
एक तरीका ढूँढ  लेता है
जीने का .......
उठने का ,बैठने का ,
जागने का ,
सोने का ,हँसने का ,
रोने का,
खाने का और पीने का।
कभी मन से,कभी
बेमन से ,
कभी जाने, कभी
अनजाने,
रोज़मर्रा की क्रिया
प्रक्रिया से
बंधा हुआ........
रूठते ,मनाते ,
बोलते ,न बोलते ,
लुढ़कते ,
फिसलते ,गिरते ,
संभलते ,
घूमता रहता है
पहिये की तरह ,
वृत्ताकार गोलाई पर ,
घड़ी की सूईयों को
ताकता हुआ ,
घटती -बढ़ती क्षमताओं को
नापता हुआ,
गति की सीमाओं को
आँकता हुआ.......... और
हर वख्त
कुछ चाहता हुआ
एक तरीका   ढूँढ लेता है
जीने का.........


Thursday, September 20, 2012

ई दिल्ली छैक......(मैथिली)

ई दिल्ली छैक......
एतय,
जगह-जगह 
इतिहासक पृष्ठ 
खुलल भेटत,
चाँदनी चौक,जामा मस्जिद,
लाल किला,
जंतर-मंतर,राजघाट,
मजनूं क टिला,
अमीर खुसरो,हज़रत निजामुद्दीन क 
दरगाह,
बिड़ला मंदिर, हुमायूँ टुम्ब,
कुतुब-मीनार,
वाह.....
एतय,
प्रचुर मात्रा में 
भेटत,
राजनीतिक चक्रव्यूह,
अभिजात्य वर्ग,
अफसरशाही,
दर्जे-दर्जे 'मिडिल क्लास'
सभ सँ ऊपर 
तानाशाही.
सभ......गुरूर सँ 
मातल.
एहिठाम,
गल्लल केरा आ 
पच्चल सेव क ठेलावाला
तक.....
एहन 
ऐंठल भेटत..... 
जे रस्सी, सेहो 
लजा क 
नुका जैतिह.
ई दिल्ली छैक......
तरहक-तरहक क्रीड़ा-कौतुक,
जिज्ञासा,
आंखि फाईट जायेत,
देखि क 
नाना प्रकारक 
तमाशा.

Sunday, September 16, 2012

गृहणी के एक विशिष्ट वर्ग के दिनचर्या की झलक.......

पिछले पोस्ट में एक आम गृहणी के आम दिन की बातें थीं.......जो लगी रहती है,
लोगों की आवा-जाही में,
कुकर में और कड़ाही में,
पंखों की साफ़-सफाई में,
कूड़ेवाले  से  लड़ाई    में........और आज प्रस्तुत है,गृहणी के एक विशिष्ट वर्ग के दिनचर्या की झलक.......

रेशमी 'गाउन' में 
मछली सी चमकती,
लहरों सी मचलती,हवा सी 
सरकती,
निकलती है,शयन-कच्छ से.....
मुस्कुराती,लहराती,
बलखाती,
बैठ जाती है,गद्दीदार 
कुर्सी पर,
कितनी शांत दिखती है,
न कोई जल्दी,न कोई 
भागम-भाग,
गुनगुनाती है......कोई 
नया राग.
सुनकर 'मैडम' के पैरों की 
झनकार,
आ जाते हैं 
खिदमतगार.....सोचते हुए,
आज क्या हुक्म करेंगी
सरकार.
'गुड-मौर्निंग' कहकर 
संकेत देते हैं
उपस्थिति की,
इंतज़ार में, फ़रमान 
जारी होने की.....और 
फ़रमान भी कुछ 
ऐसा-वैसा नहीं,आप 
सुनिए तो सही.....
'अ' 'ग्लास' 'ऑफ़' 'वाटर',
'विथ' 'स्क़ुईज' 'ऑफ़' 'लेमन'.
अरे,
एक साधारण से 
निम्बू-पानी के गिलास की 
हैसियत,
कहाँ-से-कहाँ 
पहुँच गई,
मैं  तो 
हैरान रह गई.....पर 
मेरी क्या औकाद,
थोड़ी देर बाद,
आठ-दस इंच लम्बी और 
तीन-चार  इंच 'डायमीटर' की 
गोलाई वाली,
नक्काशीदार काँच के 'ग्लास' में, 
'जूस' का 
आगमन हुआ,
छोटे-बड़े घूँटों में 'सिप' कर 
'जिम' की ओर 
गमन हुआ.
घंटा वहाँ बिताकर,
घर आकर,
फल-वल खाकर,
'ब्यूटी-केयर' की शुरुआत हुई......
कुछ फल,कुछ सलाद 
आँखों,गालों पर चिपकाये गए,
कुछ तेल-फुलेल 
नाखूनों पर,लगाये गए,
डुबोया  गया पैरों को 
पानी में,
भौहें तराशी गयीं,कुछ और 
बारीकियां 
'एक्शन' में लायी गयीं......और 
'सीन' बदल गया, 
नहाने का वख्त जो हो गया.
कल-कारखाने जैसे 
यंत्रों से
सुसज्जित,
स्नान -गृह में,
विभिन्न प्रकार के 
फव्वारों और झरनों का समन्वय,
समय की लाचारी नहीं 
तो ......'टाइम' 'नो' 'बार',
बस......लेती रहीं बौछार.....
और...... अपने समय के 
अनुसार,
तरोताज़ा,
खुशबू उड़ाती,
फूलों को शर्माती,
'हाई''हील' के 'सैंडल'
खटखटाती,
'किटी-पार्टी' में जाकर 
खाती,पीती,उड़ाती,
थककर 
घर आती,
बच्चों की सरसरी सी 
जानकारी,
'आया' से पाकर,
'ब्यूटी-स्लीप' में 
सुस्ताती ,
बेचारी.......
शाम तक ही जग पाती.
अब कहीं थोड़ी सी 
राहत.....
कोई 'शापिंग',कोई 
'मूवी',
कोई नाटक,कोई 'ड्रामा',
कोई 'थियेटर' कोई 
'पिक्चर',
कितना 'बिज़ी' रहती है.....
उस पर ये 'पार्टियाँ',
ये  शादियाँ,
ये 'काकटेल',
घर,बाहर,'क्लब'
'होटेल',
हर जगह के लिए 
अलग-अलग कपड़े,
अलग-अलग ज़ेवर,
अलग-अलग 'मेक-अप'.
नए से नए की होड़,
मेहनत करती है 
पुरजोड़,
तब कहीं जमती है 
'सोसाइटी' में धाक,
ये विशिष्ट वर्ग की 
गृहणी है,
हमेशा 
ऊँचा रखती है 
नाक.

Thursday, September 13, 2012

एक आम गृहणी का, एक आम दिन.......

एक आम गृहणी का, एक आम दिन.......

कभी प्लेट और कभी 
थाली में,
कभी चेन और कभी 
बाली में,
कभी 'स्वीपर' में,कभी 
माली में,
तो.....कभी चाय की 
प्याली में.
कभी परदों में ,कभी 
कभी नाली में,कभी 
फूलों में, कभी 
डाली में 
या फिर......
खिड़की की जाली में.
कभी मिर्च-मसाले,
नमक-तेल,
चावल,रोटी की 
टोली में,
कभी स्कूलों की 
भाग-दौड़,
'कालेज' की हँसी 
ठिठोली में.
कभी दही,दूध और 
छाली में,कभी  
भीड़ 
और कभी ख़ाली में,
कभी प्रत्युष की 
उजियाली में,
कभी गोधूली की 
लाली में........

Sunday, September 9, 2012

पता ही नहीं चला......(maithili se anuwad)

मिथिला कि मिट्टी में 
मधु-श्रावणी(त्योहार)की
हँसी-मजाक और मिठास,
घोलते-घोलते,
कब इस भाषा में 
लिखने लगी 
पता ही नहीं चला......
घर-गृहस्थी की सरदर्दी में 
दही,चिवड़ा और बैगन के भार से 
प्रभावित,
जमाते,कूटते,तौलते 
किस समय कागज़-कलम 
सर पर सवार हो गया 
पता ही नहीं चला.......
 समदाउनी(बेटी की विदाई के समय सीख देनेवाला गीत)के गीत 
सुनते-सुनते 
विद्यापति की कविता 
पढ़ते-पढ़ते,
नौकर के न आने पर 
चूल्हा खुद जलाकर,
अदौड़ी,तिलोड़ी,दनौड़ी 
पारकर(बनाकर)
कब कविता पारने(बनाने)लगी 
पता ही नहीं चला........
सावन-भादो की टिप-टिप से 
छुपकर,
बच्चों को गोद में 
बैठाकर,
'गोनू झा'(मिथिला के एक ऐसे चरित्र जिनकी हास्य और ज्ञान की कथाएं मशहूर हैं)की बातों से 
सबको हँसाकर,
पीतल के 'कजरौटा'(काजल सेकने की खास करछीनुमा चीज़)में 
काजल सेक कर 
कब कविता सेकने लगी 
पता ही नहीं चला.......
सुबह-सुबह खाना तैयार कर, 
चावल से मांड़
निकालकर,
लकड़ी की 'कठौती'(लकड़ी की टोकरीनुमा चीज़) में 
साग-सब्ज़ी सजाकर,
आँगन,बरामदा और चबूतरा में 
झाड़ू लगाकर,
खुशबूदार घी में 
पूरी छानकर
कब कविता छानने लगी 
पता ही नहीं चला........
लेकिन 
मुख्य बात यह है 
कि
यह सब घोलते-मिलाते
अचानक परिचय हो गया 
'इ-विदेह' से 
और 
देखते-देखते 
बड़े-बड़े लोगों के 
मैथिल समाज के 
एक कोने में,
जगह मिल गई 
मुझे भी.

Monday, September 3, 2012

बूझिये नईं पड़ल......

मिथिलाक माटी में,
मधु-श्रावनिक
हास-परिहास एवं मिठास 
घोरैत-घोरैत, 
कखन एही भाषा में 
लिखय लगलौं,
बूझिये नईं पड़ल......
घर-गृहस्थिक  मथ-भुक्की में 
दही-चुड़ा, बैगनक भIर सँ 
प्रभावित,
जमबैत,कुटैत,तौलैत 
कोन बेर 
कागज़-कलम 
माथ पर सवार भ गेल
बूझिये नईं पड़ल......
समदाऊनी के गीत 
सुनि क,
विद्यापतिक कविता 
पढि क,
खबासक अनुपस्थिति में 
चूल्हा पजाडि क,
अदौड़ी,तिलौड़ी,दनौड़ी
पारि क,
कखन कविता पारय लगलौं 
बूझिये नईं पड़ल.....
सावन-भादो क झींसी सँ 
नुका क,
नेना -भुटका क 
कोर में बैसा क,
गोनू झा क गप्प सँ 
सभके हँसा क,
पितरिया कजरौटा में 
काजर सेका क,
कखन कविता सेकय लगलौं 
बूझिये नईं पड़ल......
भिन्सरहे भानस,भात 
पसाई क,
तीमन-तरकारिक कठौती 
सजाई क,
अंगना,ओसारा,चबूतरा 
बहारि क,
गम-गम घिऊ में 
सोहारी छानि क,
कखन कविता छानय लगलौं 
बूझिये नई पड़ल......
आ मूल बात ई 
जे घोर-मठ्ठा
करैत-करैत,अनचोक्के
'ई-विदेह' सँ परिचय 
भ  गेल......आ 
देखिते-देखिते 
मिथिलाक पैघ समाजक 
कोन में,
हमरो प्रविष्टि भ गेल.


Tuesday, August 28, 2012

फूलों से कहती हूँ.....


तुम्हारी ऊँची-ऊँची 
आसमानी 
उड़ानों के नीचे,
छोटी-छोटी 
मेरी 
रोज़मर्रा कि खुशियाँ 
कुचल जातीं हैं......
उन कुचली हुई 
खुशियों को 
जोड़-जोड़कर,
मिला-मिलIकर,
तुम्हारे 
लम्बे-लम्बे 
प्रवास में,
जब,दिन का कोई 
अंत 
नहीं दीखता है,
मैं 
फूलों से कहती हूँ.....
तू क्यों खिलता है?

Monday, August 13, 2012

क्यूं न निकालूँ....

क्यूं न निकालूँ....
कोई मसला,कोई हल,
कोई सवाल,कोई जबाब,
पुरानी कहानियों के इतिहास से,
बचपन के हास से,
किशोरावस्था की हलचल से,
युवावस्था की कल-कल से .
यादों की सलवटों को,
खींच-तान कर सीधी करूं,
पढूं ,सुनूं ,सुनाऊँ,
नया उत्साह जगाऊँ,
नयी स्फूर्ति लाऊं.
घुमा लाऊँ अपने-आप को, 
किसी पुरानी कविता की
पंक्तियों  में ,
किसी पुराने उपन्यास की 
सूक्तियों में ,
प्रेमचंद के 'गबन'की 
'जालपा' से मिलूँ ,
बच्चन की 'मधुशाला' में 
शब्दों को पियूं .
ननिहाल में.....
आम-लीची से लदे,
पेड़ों पर 
चढ़ जाऊं,
तार,खजूर,नारियल की
ऊँचाई को  
छू आऊँ,
बिना दांत के सिपाहीजी की, 
कुटी हुई सुपारी
खा लूं ,
बड़े-बड़े छापों वाली, 
देहाती साड़ी की 
चुन्नट डालूँ .
धूप में पिघलाकर, 
नारियल का तेल 
लगाऊं,
लकड़ी की डब्बानुमा 
गाड़ी में,
उबड़-खाबड़ रास्तों से 
हो आऊँ.
सुनहले-रूपहले 
पर्चों को, 
लालटेन की रोशनी में 
खोलूँ ,
कंडे की कलम से,
डायरी के पन्नों को 
रंग लूं .
लकड़ी के चूल्हे पर बनी 
रसोई,
फूल-कांसे के बर्तन में 
सजाऊँ,
आज के लिए 
बस इतना ही.....
कल,
कहीं और से 
कुछ और लेकर 
आऊँ. 

Monday, August 6, 2012

तब........

तब........ 
मुठ्ठी में था आकाश,
कभी निकलकर 
आँखों में रहता था,
कभी आस-पास.
फिर......
मुठ्ठी बड़ी हो गई,
आकाश फैलता गया,
मुठ्ठी छोटी पड़ गई,
आँखें,ख्वाबों से भर गई.
इसी बीच 
हमारे शहर के 
ऊँचाईयों की ओट में, 
रहने लगा 
आकाश......
बस ज़रा सा 
रह गया 
आस-पास.

Wednesday, July 25, 2012

कतय स्वतंत्रता-दिवस गेल........


कतय स्वतंत्रता-दिवस गेल,
झंडा क गीत 
कतय सकुचायेल,
दृश्य सोहनगर,देखबैया
छथि 
कतय नुकाएल.
लालकिला आर कुतुबमिनारक
के नापो ऊँचाई,
चिड़ियाघर जंतर-मंतर क 
छूटल 
आबा-जाही.
पिकनिक क पूरी-भुजिया 
निमकी,दालमोट,
अचार,
कलाकंद,लड्डुक डिब्बा लय 
मित्र,सकल परिवार.
कागज़ के छिपी-गिलास,
थर्मस  में 
भरि-भरि चाय,
दुई-चारि टा शतरंजी वा
चादर लिय 
बिछाए.
ई सबहक दिन 
बीति गेल 
आब  
 'मॉल' आर 'मल्टीप्लेक्स',
दही-चुड़ा छथि मुंह 
बिधुऔने,
घर -घर बैसल 
'कॉर्न-फ्लेक्स'.
'कमपिऊटर' पीठी पर 
लदने
मुठ्ठी में 'मोबाइल',
अपने में छथि 
सब केओ बाझल 
यैह नबका 
'स्टाइल'
 

Wednesday, July 11, 2012

सकते में है जामुन.......कि

सकते में है 
जामुन.......कि 
ये कैसा बदलाव है,
ये कैसी आंधी है,
ये कौन सा युग है......
हम तो अपने-आप ही 
रस से 
भर-भरकर 
चूते थे,
बारिश में इतराते,
पकते,
टपकते थे,
आते-जाते मुसाफिर 
हमें 
उठाते,खाते,
मुस्कुराते,
निकल जाते थे
और 
बैगनी रंग का जीभ 
एक-दूसरे को 
दिखा,
खिलखिलाते थे.
कितना सुहाना लगता था......
सबका मन लुभाना,
सब पर छा जाना,
सबका दुलार पाना......फिर 
ये क्या हुआ 
जो हम,
बड़े एहतियात से
चुने जाते हैं,
गिने जाते हैं,
'लेवल'लगे डब्बों में 
'पैक' किये जाते हैं.....और 
जाने कहाँ-कहाँ 
भेजे जाते हैं.
छप जाता है 
डब्बों पर,
'प्राईस-टैग' के साथ 
हमारी तस्वीर......और 
वीरान 
हो जाती है,
वर्षों से
सड़कों के किनारे 
उगाई हुई,
भाईचारे कि खेती.
गुमशुदा........हम
कुलबुलाते हैं,
छटपटाते  हैं,
'कहीं का नहीं छोड़ा',
बुदबुदाते  हैं.
सुना है......... सड़कों पर 
लोगों से,
देश तरक्की कर रहा है,
आगे बढ़ रहा है,
ये 'प्रगति' है......लेकिन 
जनाब,
एक अदना सा 
व्यक्तित्वधारी मैं 
भयभीत हूँ......
मेरी तो सरासर 
'दुर्गति' है.
गुज़ारिश है आपसे.....
हुकूमत के 
ऊँचे तबकों में,
एक छोटी सी सिफारिश 
कर दीजियेगा,
मैं प्रजा का सेवक हूँ,
दिल्ली की सड़कों पर 
खुले-आम 
रहने की, इज़ाजत
दिला दीजियेगा.

 

Tuesday, June 26, 2012

बगल के मैदान में........

कुछ  साल  पहले  की बात  है........


बगल के मैदान में
सुबह से ही
गहमा-गहमी थी,
टेंट लग रहा था
दरियां बिछ रही थीं
कु्र्सियां
सज रही थीं ।
रह-रहकर
हेलो, हेलो, टेस्टिंग ....
माईक जांचा जा रहा था ।
पता चला
आनेवाले हैं
दूरसंचार के
विशिष्ट अधिकारी,
सोची, घर में
खाली ही बैठी हूँ,
चलूँ, कुछ
मैं भी देख लूँ,
कुछ मैं भी सुन लूँ ,
ठीक समय पर
अतिथि आये,
गणमान्य लोगों ने,
माले पहनाये,
कार्य-क्रम शुरू हुआ
कुछ धन्यवाद,
कुछ, अभिवादन हुआ,
अधिकारी ने
अपने भाषण में
कई मुद्दे उठाये,
तरक्की के
अनेकों नुस्खे बताये,
कहा, फाल्ट रेट
घटाइये,
विनम्रता से पेश आइये,
वन विंडो कानसेप्ट
अपनाइये और,
कस्टमर की सारी उलझने
एक ही खिड़की पर
सुलझाइये ।
तालियां बजी
प्रशंसा हुई
और दूसरे ही दिन,
अक्षरशः
पालन किया गया,
एक खिड़की छोड़कर
ताला भर दिया गया ।
हर मर्ज्ञ के लिये लोग
एक ही जगह
आने लगे,
सुबह से शाम तक
क्यू में बिताने लगे,
कुछ
उत्साही किस्म के लोग
खाने का डब्बा भी
साथ लाते थे,
आस-पास बैठकर
पिकनिक मनाते थे ।
मुझे भी
एक शिकायत
लिखवानी थी,
पहुँच गई 10 से पहले
लेकिन
तीन लोग
पहुँच चुके थे
मुझसे भी पहले ।
खिड़की खुली, दिखा
एक विनम्र चेहरा
याद आ गई,
विनम्रता से पेश आइये ।
मैं परसों भी आया था
लाईन में खड़े
पहले व्यक्ति ने कहा,
फोन खराब है मेरा
चार दिनों से…….
जवाब आया तत्काल,
चिन्ता न करे,
काम हो रहा है,
आप क्यू में हैं .
अब, दूसरे की बारी थी,
भाई साहब, मेरे फोन पर
काल आता हैं,
जाता नहीं
क्या हुआ कुछ
पता ही नहीं ,
आप जरा दिखवा दीजिये,
प्लीज्ञ, ठीक करा दीजिये,
ठीक है,
आप घर चलिये
मैं दिखवाता हूँ,
आप तसल्ली रखिये
कुछ करवाता हूँ ,
वैसे भी आपके फोन तो
आ ही रहे हैं
रही बात, करने की
सो
आपके सुविधा के लिये ही तो
हमने
जगह-जगह
टेलीफोन बूथ
खुलवाये हैं,
आप उपभोक्ता हैं
आपके साथ
हमारी
शुभकामनायें हैं.
तीसरा आदमी
आगे बढ़ा,
देखिये, हमारे फोन का
बिल बहुत ज्यादा है
हमने जब
किया ही नहीं
फिर
ये कौन सा कायदा है,
देखिये जनाब,
आपके मीटर पर
यही रीडींग आई है,
अब मीटर आदमी तो है नहीं
कि
कोई सुनवाई है ,
बिल भर दीजिये
बाद में देख लेंगे,
कुछ नहीं, हुआ तो
डिसकनेक्ट कर देंगे ,
हाँ बहन जी- अब आप बोलिये,
आपको क्या तकलीफ है
मैंने कहा,
मेरी समस्या
कुछ अलग किस्म की है,
टेलीफोन की घंटी
समय-असमय, घनघनाती है
रिसीवर उठाने पर,
प्लीज्ञ चेक द नंबर,
“यू हैव डायल्ड”
बार-बार, दोहराती है,
अब आप ही बताइये,
यह कौन सी सेवा
हमें उपलब्ध कराई है,
कि डायल किये बगैर
ऐसी सूचना, आई है ,
भई,
आपकी समस्या तो
मेरी समझ से
बाहर है ,
इसकी तो, मैं कहता हूँ
जड़ से पता लगाइये,
ऐसा कीजिये,
आप
संचार भवन जाइये,
वहाँ हर कमरा
वातानुकूलित है,
सारी खिड़कियाँ मिलेंगी बंद
लेकिन
वहीं करनी होगी
आपको जंग,
किसी एक खिड़की को
खुलवाइयेगा
और
अपना कम्प्लेन
वहीं दर्ज कराइयेगा ।

Monday, June 18, 2012

तुम हँसो......

तुम हँसो.....
कि चाँद मुस्कुराये,
तुम हँसो.....
कि आसमान गाये.
खुशबुयें फूल से उड़के
कलियों पे आये,
पत्तों पे 
शबनम की बूँदें 
नहाये,
कलियों के दामन में
जुगनू 
चमक लें,
नज़्मों की चौखट पे 
लम्हे ठहर लें,
खिड़की से आ चाँदनी 
जगमगाए.....
तुम हँसो......
कि चाँद मुस्कुराये.
हवाओं की कश्ती में 
तारे समाये,
दीवारों पे 
लतरें 
चढ़ी गुनगुनाये,
रातों की पलकों में 
सपने 
दमक लें,
लहरें किनारों को 
छूकर 
चहक लें,
लताओं की पायल 
मधुर 
झंझनाये......
तुम हँसो.......
कि चाँद मुस्कुराये......
तुम हँसो......
कि आसमान गाये......


 
 

Wednesday, June 13, 2012

सूर्यास्त कहते हैं हुआ.....

रंग की दहलीज पर 
उड़ती 
गुलालों की फुहारें,
लाल,पीली,जामनी
पनघट,
कनक के हैं किनारे.
दूर नभ के 
छोर पर,घट स्वर्ण का 
पानी,सिन्दूरी,
सात घोड़ों के सजे  
रथ से,किरण 
उतरी सुनहरी.
स्वर्ण घट में भरी लाली,
धूप थाली में 
सजा ली,
छितिज का आँचल 
पकड़कर 
एक चक्का लाल सा,
हौले से 
नीचे को गया,
'सूर्यास्त'
कहते हैं हुआ.

Sunday, June 10, 2012

'सूर्योदय' हुआ......

सात घोड़ों ने कसी 'जीनें'
कि 
किरणें कसमसायीं,
झील में जैसे किसी ने 
घोल दी,
जी भर ललाई.
पिघलती 
सोने कि नदियों 
पर,पड़ी आभा गुलाबी, 
फालसई चश्में में ज्यों 
केशर मिला दी.
इन्द्रधनुषी रंग में 
चमकी 
चपल-चंचल किरण, 
एक चक्का लाल सा 
हौले से 
ऊपर को उठा,
कहते हैं......
'सूर्योदय' हुआ.

Thursday, June 7, 2012

सोलवां साल.......

मुझसे किसीने कहा, 'मेरी 'ग्रैंड=डॉटर' का सोलवां साल शुरू होनेवाला है.....आप मेरी ओर से  कुछ लिख दीजिये' तो अपनी समझ के अनुसार यही लिख पाई . अब आज के सन्दर्भ में पता नहीं ये कितना सही है ?

सोलवां साल 
यानि 
एक जादू ,
एक आकर्षण,
एक निमंत्रण,
कुछ  अलग सा 
मिजाज़........
तो  मेरी बच्ची,
अब करनी होगी तुम्हें 
अपने ही 
कदमों की पहरेदारी 
समझदारी से,
कि
दुनियादारी में 
प्रलोभन,
कम नहीं.
सशक्त मन से 
उज्जवल भविष्य का 
आह्वान करना,
शालीनता से,विनम्रता से,
प्रभु का 
ध्यान करना,
कहना.......
तुम्हें विद्या,बुद्धि,विवेक से 
आभूषित के दें,
कहना........
तुम्हें धैर्य से,प्रेम से,विश्वास से 
आलोकित कर दें.........

Sunday, June 3, 2012

मौसम की रखवाली करेंगे.......

नीम का एक पेड़ 
बाहर के, ओसारे से लगे 
तो
गर्मियों के दिन में 
उसकी छांव में 
बैठा करेंगे.....
कड़ी होगी धूप 
जो 
जाड़ों में सर पर,
नीम की डाली से 
हम 
पर्दा करेंगे.......
पतझड़ों में सूखकर
पीले हुए पत्ते,
'ओसारे- लॉन' पर 
जब 
आ बिछेंगे,
सरसराहट सी उठेगी 
हवा सरकाएगी जब-तब, 
मर्मरी आवाज़ 
आएगी, जो 
पत्तों पर चलेंगे.....
हर वक्त कलरव 
कोटरों में, पक्छियों का 
किसलयों के रंग पर 
कविता करेंगे......
नीम का एक पेड़ 
बाहर के ओसारे से लगे 
तो 
हम सुबह से शाम तक 
मौसम की 
रखवाली करेंगे.......

  

Saturday, May 12, 2012

वह ममता.......

वह ममता कितनी प्यारी   थी ,
वह आँचल कितना सुन्दर था,
जिसके   कोने  की    गिरहों में
थी  मेरी   ऊँगली बंधी     हुई .
तब ........
बित्ते       भर   की खुशियाँ थी,
ऊँगली   भर की    आकांछा थी,
उस आँचल की   उन गिरहों में
बस,अपनी सारी दुनिया    थी.....

Tuesday, May 8, 2012

ओहि दिन सभा सँ अबैत काल.......[मैथिली में]

ओहि दिन 
सभा सँ अबैत काल
ओझा भेटैलाह..
कहय लगलाह-
'मैथिल बजैत छी त 
मैथिली में किये नईं 
लिखैत छी ?
एतवा सुनितहि
कलम जे सुगबुगायेल से  
रुकबाक
नामें नईं लईत अछि 
किन्तु 
बचपन में सुनल 
दु-चारि टा 
शब्द क प्रयोग सँ 
कि कविता लिखल 
संभव थिक?
सैह भावि,जुटावय लगलौं
डायरी में,
छोट-बड़ नाना प्रकारक बात.
कुसियारक खेत,
इजुरिया रात,
भानस घर त 
भगजोगनि'क  बात.
नेना-भुटका  के  
धमगज्जड़ में 
कोइली क बोली 
सुनै लगलौं ,
भिन्सहरे उठि क 
एम्हर-ओम्हर टहलै लगलौं.
बटुआ में राखी क 
सरौता-सोपारी,
हाता में बैस क 
तकैत छी फुलवारी.
सेनुरिया आमक रंग,
सतपुतिया बैगन क बारी, 
चिनिया केरा क घौड़ 
गोबर क पथारि.
पाकल अछि कटहर,
सोहिजन जुआएल अछि 
ओड्हुल-कनैल बीच 
नेबो गमगमायेल अछि.
किन्तु 
कविता क बीच में 
ई सभक कि प्रयोजन?
अनर्गल बात सँ 
ओझा बिगडियो जैताह,
थोर-बहुत जे इज्जत अछि 
सेहो उतारि देताह.
गाय-गोरु,
कुक्कुर-बिलाड़
सभक बोलियो क बारे में 
लिखल जा सकैत छई
किन्तु 
से सब पढय बाला चाही,
सौराठक मेला क प्रसंग लिखू त 
बुझै बाला चाही.
कखनों हरिमोहन झा क 
'बुच्ची दाई 'आ 'खट्टर कका' क 
बारे में सोचैत छि त 
कखनों 
'प्रणम्य देवता' क चारोँ
'विकट-पाहुन के 
ठाढ़ पबैछी,
कखनों लहेरियासराय क 
दोकान में 
ससुर-जमाय-सार क बीच 
कोट ल क तकरार त 
कखनों होली क तरंग में 
'अंगरेजिया बाबु 'क  श्रृंगार. 
सभ टा दृश्य 
आंखि क आगे,
एखन पर्यन्त 
नाचि रहल अछि .
'कन्यादान' सँ ल क 
'द्विरागमन' तक 
खोजैत  चलैछी 
कविता क सामग्री,
अंगना,ओसारा,इंडा.पोखरी 
चुनैत चलैत छी 
कविता क सामग्री.
शनैः शनैः 
शब्दक पेटारी
नापि-तौलि क 
भर रहल छी,
जोड़ैत-घटबैत,
एहिठाम -ओहिठाम 
हेर-फेर 
करि रहल छी.
जाहि दिन 
अहाँ लोकनिक  समक्छ 
परसये जकां किछ 
फुईज  जायेत,
इंजुरी में ल क 
उपस्थित भ जाएब.....
यदि कोनों भांगठ रहि जाये त 
हे मैथिल कविगण,
पहिलहीं
छमा द दै जायेब.