Monday, January 16, 2012

जाड़ों में प्रायः.......

जाड़ों में
प्रायः
दिख जाते हैं,
वृद्ध-दंपत्ति, झुकी हुई
माँ ,कांपते हुए
पिता.....धूप सेकते हुए.....
कभी 'पार्क'में,कभी
'बालकनी'में,
कभी 'लॉन' में
तो कभी'बरामदों' में.
मोड़-मोड़कर
चढ़ाये हुए 'आस्तीन'
और
खींच-खींचकर
लगाये हुए'पिन' में
दिख जाता है.......
वर्षों से
विदेशों में बसे,
उनके
धनाढ्य,
बाल-बच्चों का
भेजा हुआ,
बेहिसाब प्यार .
ऊल-जलूल ,पुराने,
शरीर से
कई गुना बड़े-बेढंगे
कपड़ों का,
दुःखद सामंजस्य,
सुदूर........किसी देश में,
सम्पन्नता की
परतों में
लिपटी हुई नस्ल को,
धिक्कारती.......
ठंढ से, निश्चय ही
बचा लेती है,
इस पीढ़ी की
सामर्थ्य को,
संभाल लेती है........लेकिन
कृतघ्नता  के आघात की
वेदना का
क्या......
आपसे अनुरोध है,
इतना ज़रूर कीजियेगा,
कभी किसी देश में
मिल जाये
वो नस्ल......तो
इंसानियत का,
कम-से कम
एक पर्चा,
ज़रूर
पढ़ा दीजियेगा.......... 



  

Friday, January 6, 2012

समय यहाँ कैसे बीते.......

कल्पनायें कहाँ से कहाँ ले जाती हैं.......एक नमूना है,चलिए आप भी इस उड़ान में मेरे साथ.......अगर एक भी पंक्ति आपको अपने आप से जुड़ी हुई लगे तो समझूँगी.......मेरा लिखना सफल हो गया.....

"समय यहाँ कैसे बीते
यह
सोच-सोचकर,
एक ख्याल
हमारे मन में
आया है,
टिकट मंगा लो
जल्दी से,
अगर तुम्हें भी
भाया है.
'कलकत्ते' से सब्ज़ी लायें
'दिल्ली' से नमकीन,
'कर्नाटक' का
इडली-डोसा,
चलो खाएं कुछ दिन,
मज़ा सुनो....
खाने-पीने का आएगा ,
खाली वख्त
यहाँ जो इतना,
अच्छे से,
कट जायेगा.
यहाँ बैठकर,नहीं
पता चलता
क्या-क्या फैशन
आता है,
बड़ी-बड़ी दूकानें हैं
'बम्बई' में,
क्या कुछ
तुम्हें पता है....
दोस्त हमारे बड़े
वहां हैं,
सबसे मिल आयेंगे,
वक़्त निकालेंगे थोड़ा
फिर 'शौपिंग' पर
जायेंगे.
दो-चार कमीजें
तुमको तो
लेनी होंगी ,
साड़ी-वाड़ी की
पीछे देखी जाएगी,
एक बना-बनाया 'कोट'
तुम्हारे लिए वहां
हम ले लेंगे,
कंगन-झुमके की पीछे
देखी जाएगी......
इतने में वो आये, बोले.....
'प्लीज़',कहानी आगे की
हमको कहने दो,
मेरा भी
मन करता है,
कुछ तो लिखने दो.....सो
उनको ही
कलम थमाकर,
मैं तो, चल दी,
पता नहीं
मेरे पीछे
क्या-क्या है
लिख दी.....
'सुनिए हमसे,मैं
अगला भाग
सुनाता हूँ,
नया-नया हूँ,
लिखने में,
घबड़ाता हूँ......
'कलकत्ते','दिल्ली','कर्नाटक'
तक की,'प्लानिंग'
ठीक गयी......लेकिन
जैसे 'बम्बई' पहुंचे,
बस,
उनकी नीयत,
बदल गयी.
बड़े सबेरे ,धीरे से
आकर
वो बोलीं....
'वैन-हुसन' और
'लुइ-फिलिप' की
बनी कमीजें,
'भुवनेश्वर' में मिलतीं हैं,
सुनो,आजकल
यही 'लेबलें'
चलतीं हैं.
यहाँ खरीदेंगे तो बस
सामान बढ़ेगा,
'भुवनेश्वर' में ले लेंगे
क्या फ़र्क पड़ेगा ?
फिर 'लेबल'वाली
चीज़ों में,
क्या 'बम्बई' क्या
'आसाम',
वही 'डिजायन'होता है
होता है,
एक दाम......लेकिन
'बम्बई'वाली साड़ी
'बम्बई'में ही
मिलती है,
और कहीं,कितना खोजें
ये कहीं नहीं
बनतीं हैं.
अब उठो,चलो
साड़ी लाते हैं,
जाने कब फिर
आ पाते हैं.
गए 'मार्केट'
साड़ी ले लीं,तुम्हें
'कोट'
लेनी है बोलीं,
तरह-तरह के 'कोट'
सजे थे
'शो -विंडो 'में,
एक मुझे भाया था,
तब तक उनका स्वर
उड़ता सा ,
कानों में आया था......
'अरे',यहाँ तो
बना-बनाया 'कोट'
बड़ा महंगा है,
ऐसा करते हैं,
कपड़ा लेते हैं
सिलवा लेंगे ,
अपना 'टेलर' बढ़िया है
उससे ही
बनबा लेंगे.
'रेमंड्स' का कपड़ा
अच्छा होता
ऐसा सब कहते हैं,
चलन इसी का
चला  हुआ है,
पहने सब रहते हैं.
अब,
जब 'रेमंड्स' ही भा गया
तो....
इसका 'शो-रूम' तो
'भुवनेश्वर' में भी
आ गया,
यहाँ के कपड़ों में,
कौन से
'सुर्खाव' के पर हैं,
वहां
दूकानदार जानते हैं,
छोड़ देते
'लोकल' कर हैं.
अब,चलो ठाठ से
घर चलकर ही
'कोट' सिलाना,
आज
'झवेरी' चलते हैं,
कंगन-झुमका भी तो
है लेना.......                                                                                                                                                             
  

  
 
 
 

Monday, January 2, 2012

यह महानगर की धूप है.......

यह महानगर की धूप है,
गांवों,कस्बों की तरह
भर-भर आँगन
नहीं आती,
तार पर फैले
बीसियों कपड़े,
नहीं सुखाती......
अट्टालिकाओं के पीछे से
नपी-तुली
छनी  हुई,कट-छंट कर
आती है,
आरी -तिरछी होती हुई,
कहीं से भी
निकल जाती है.....
कभी मुंडेड़ों
कभी छज्जों पर
अटक जाती है,
दरवाज़ों को छूकर
फिसल जाती है,
कभी
जल्दी आती है
कभी
जल्दी जाती है,
यह महानगर की धूप है,
बिजली और पानी की तरह
कभी आती है
कभी
नहीं आती है.