Monday, November 21, 2011

एक दिन.......

एक दिन
अकेली मैं उदास,
बुलाने बैठी
आसमान में उड़ते हुए
चिड़ियों को ,
चिड़ियों ने कहा....
'रात होनेवाली है
घर जाने की
जल्दी है'.
सूरज को गोद में लिए
पश्चिम की लाली से
बोली मैं,
कुछ देर के लिए
मेरे पास
आओ तो ,
'विदा करनी है
सूरज को,
कैसे आऊंगी इस वख्त
कहो तो?'
थोड़ी ही देर बाद
आहट हुई
रात के आने की,
दरवाज़े पर ही
खड़ी-खड़ी
रोकने लगी रात को
कि
ठहर कर जाना ,
'अभी-अभी आयी हूँ '
रात ने कहा......
'मुश्किल है इन दिनों
बरसता है शबनम
सारी-सारी रात
भींगने का मौसम है'.
चाँद से बोली,
आओ सितारों के साथ
कुछ बात करें ,
चाँद ने कहा......
'घूमना है तारों के साथ
आज की रात
कैसे बात करें?'.
फूलों,भौरों ,तितलियों ने
रचाया था
उत्सव,
स्वच्छंद  विचरते हुए
मेघ-मालाओं ने कहा........
'बरसना है अभी और',
हवाओं को जाना था
खुशबू लेकर
दूर-दराज़,
नदियों,झीलों को
करनी थी अठखेलियाँ ,
और
पहाड़ पर जमी हुई
बर्फ़ ने कहा.......
'बहुत दूर है
तुम्हारा घर'.
झरनों से गिरता हुआ
कल-कल,
दूबों पर फैली
हरियाली,
ताड़,खजूर ,युक्लिप्टस
और
चिनारों ने
सुना दी
अपनी-अपनी......
और हारकर  कहा मैंने 
अपने मन से,
तुम मेरे पास रहना........
'मुझे नहीं रहना'
  झुँझलाकर बोला
मेरा अपना ही मन,
'मैं जा रहा  हूँ
बच्चों के पास 
आ जाऊँगा
मिल-मिलाकर,
'तुम यहीं रहो'.......
लेकिन
कितने दिन हो गए
मन तो
लौटा ही नहीं......
मेरे बच्चों,
तुमलोग ऐसा करना,
वापस भेज देना
समझा-बुझाकर
मेरा मन
कि
मैं यहाँ
अकेली रह गयी हूँ........



Thursday, November 17, 2011

निश्छलता की 'आँच' पर......

जब नीम के पेड़ पर
चढ़कर
मधु-मक्खी  
छत्ता लगाती है,
शहद  की ताशीर
दुगनी
हो जाती है.
जब रिश्तों की
धूल-धुसड़ित
रेशमी डोर
निश्छलता की 'आँच' पर
चढ़  जाती है
यक़ीनन
निखर जाती है.......

Monday, November 14, 2011

नरम मखमली बिस्तर के........

नरम मखमली बिस्तर  के
कोनों पर
रखकर पाँव,
दूसरे कोने पर
दो तकिया रख......
पेटों के बल
अधलेटी सी,
दायें हाथों की ऊँगली में
है ,फंसी कलम
बांयी को कुहनी से
मोड़े
बाँधी मुठ्ठी,रख दी है अपने
गालों पर.
आँखों को करके बंद
ज़रा
कुछ सोच-समझ ,कुछ
शब्द नए, कुछ
भाव नए,
आ गए लगा.....
आगे की बात कहूं
अब क्या
आ गयी नींद ......
जब खुली आँख देखा
'कॉपी' पर
लिखी हुई .......आराम करो . 

Tuesday, November 8, 2011

जब टेढ़े-मेढ़े उल्टे-सीधे.......

जब टेढ़े-मेढ़े
उल्टे-सीधे
और
उलझे हुए.....
रिश्तों की कौमें 
निकलकर ,
एक -दूसरे की गवाही 
लेकर,
अपने-आपको स्थापित 
करने लगतीं हैं .......
जब नींव-रहित,
कच्चे-पक्के
संबंधों के अलाव,
भौतिक रस-विलास के 
सौजन्य से......
बढ़-चढ़ कर 
फैलने लगते हैं,
तब......
दूर से देखते हुए 
ठोस, 
भावनात्मक 
रिश्तों का वज़ूद,
क्रमश: 
खोने लगता है........
खोने लगता है,
स्नेह-सिंचित जड़ों से,
निश्छल कोमलता का
चिर-संचित
अभिमान.....
और
समय के धरातल पर,
उधड़ते  हुए
रिश्तों का,
धूल-धुसडित रेशमी डोर,
अपने होने  का
एहसास .......भर करा देता है,
या कहूं......... कि
'येन -   तेन-  प्रकारेण'
बहला देता है.......

Tuesday, November 1, 2011

एक दृश्य.......यह भी......

'सन्डे'की सुबह
'पॉश'- 'कालोनी' के
'फ्लैट' की 
'बाल्कनी' में ,
जो एक लम्बा सन्नाटा 
बिछ जाता है........
शनिवार की रात का 
'साइड -इफेक्ट'
साफ़ नज़र आता है.
मंथर-गति से 
सुगबुगाहट सी होती है,
पर्दे सरकते हैं ,
कुण्डियाँ खड़खड़ातीं  हैं,
दरवाज़े खुलते हैं 
और 
हाफ़-पैंट धारी
'डैडी',
'पेपर' लिए हुये
'केन' की कुर्सी पर
फैल जाते हैं.
'रेलिंग' के सहारे 
आकर,
खड़ी हो जाती है
एक बच्ची,प्यारी सी,
'बारबी' 'डॉल' का हाथ
मुठ्ठी में
पकड़े हुए.......
उसका भाई
ऐसा मेरा अनुमान है.....
'स्केटिंग' का जूता पहने,
इधर से उधर  
फिसलता है,झिड़कियाँ   
खाता है
फिर  फिसलता  है,
यही क्रम   
चलता रहता है.
'ट्रौली' पर चढ़कर  
चाय-दूध, बिस्किट,
फल-वल,
जाने क्या-क्या,
एक 'आया'
लगा  जाती है.....
और तब  
बड़े-बड़े  फूलोंवाली  
रेशमी  'नाईटी' पहने 
घर  की गृहणी  
बाहर आती  है.
बैठकर  इत्मिनान  से,
आस-पास  का मुआएना  कर  
संतुष्ट  भाव  से,
बिस्किट के डब्बे  को  
खोलते  हुए,
बच्चों  को  आवाज़  
लगाते हुए,
डालती  है 'कपों'  में
'स्टाईल' से
चाय-दूध
नफ़ासत की हद  तक,
शक्कड़  मिलाती  है 
और........इधर 
मेरी  जिज्ञासा  
बढ़ती चली  जाती है.......
वहाँ सब  पीने  लगते  हैं 
चाय - वाए,
खाने  लगते हैं 
बिस्कुट-विस्कुट  
फल-वल, 
जाने क्या-क्या,
सोचती  हूँ ........
ये  'लाम- काफ़' की चाय  
कैसी  होती होगी?
और........इसी  उधेड़-बुन  में 
उस  'साइड-इफेक्ट'  का 
'आफ्टर-इफेक्ट'  तो  देखिये  
मेरे  सामने  रखी 
गर्म  चाय,
बिना  पीये  
खामखा
ठंढी  हो जाती है..........