Saturday, September 29, 2012

देखी होगी तुमने.......

देखी  होगी 
तुमने........
मेरी सोती-जागती 
कल्पनाओं से,
जन्म लेती हुई
कविताओं को,प्रसव वेदना से 
मुक्त होते हुये,
सुनी होगी........ 
उनकी पहली किलकारी,
मेरी डायरी के 
पन्नों पर 
और 
महसूस किया होगा......
सृजन का सुख 
मेरे मन के 
कोने-कोने में.......

Monday, September 24, 2012

हर कोई एक तरीका ढूँढ लेता है जीने का .......

हर कोई
एक तरीका ढूँढ  लेता है
जीने का .......
उठने का ,बैठने का ,
जागने का ,
सोने का ,हँसने का ,
रोने का,
खाने का और पीने का।
कभी मन से,कभी
बेमन से ,
कभी जाने, कभी
अनजाने,
रोज़मर्रा की क्रिया
प्रक्रिया से
बंधा हुआ........
रूठते ,मनाते ,
बोलते ,न बोलते ,
लुढ़कते ,
फिसलते ,गिरते ,
संभलते ,
घूमता रहता है
पहिये की तरह ,
वृत्ताकार गोलाई पर ,
घड़ी की सूईयों को
ताकता हुआ ,
घटती -बढ़ती क्षमताओं को
नापता हुआ,
गति की सीमाओं को
आँकता हुआ.......... और
हर वख्त
कुछ चाहता हुआ
एक तरीका   ढूँढ लेता है
जीने का.........


Thursday, September 20, 2012

ई दिल्ली छैक......(मैथिली)

ई दिल्ली छैक......
एतय,
जगह-जगह 
इतिहासक पृष्ठ 
खुलल भेटत,
चाँदनी चौक,जामा मस्जिद,
लाल किला,
जंतर-मंतर,राजघाट,
मजनूं क टिला,
अमीर खुसरो,हज़रत निजामुद्दीन क 
दरगाह,
बिड़ला मंदिर, हुमायूँ टुम्ब,
कुतुब-मीनार,
वाह.....
एतय,
प्रचुर मात्रा में 
भेटत,
राजनीतिक चक्रव्यूह,
अभिजात्य वर्ग,
अफसरशाही,
दर्जे-दर्जे 'मिडिल क्लास'
सभ सँ ऊपर 
तानाशाही.
सभ......गुरूर सँ 
मातल.
एहिठाम,
गल्लल केरा आ 
पच्चल सेव क ठेलावाला
तक.....
एहन 
ऐंठल भेटत..... 
जे रस्सी, सेहो 
लजा क 
नुका जैतिह.
ई दिल्ली छैक......
तरहक-तरहक क्रीड़ा-कौतुक,
जिज्ञासा,
आंखि फाईट जायेत,
देखि क 
नाना प्रकारक 
तमाशा.

Sunday, September 16, 2012

गृहणी के एक विशिष्ट वर्ग के दिनचर्या की झलक.......

पिछले पोस्ट में एक आम गृहणी के आम दिन की बातें थीं.......जो लगी रहती है,
लोगों की आवा-जाही में,
कुकर में और कड़ाही में,
पंखों की साफ़-सफाई में,
कूड़ेवाले  से  लड़ाई    में........और आज प्रस्तुत है,गृहणी के एक विशिष्ट वर्ग के दिनचर्या की झलक.......

रेशमी 'गाउन' में 
मछली सी चमकती,
लहरों सी मचलती,हवा सी 
सरकती,
निकलती है,शयन-कच्छ से.....
मुस्कुराती,लहराती,
बलखाती,
बैठ जाती है,गद्दीदार 
कुर्सी पर,
कितनी शांत दिखती है,
न कोई जल्दी,न कोई 
भागम-भाग,
गुनगुनाती है......कोई 
नया राग.
सुनकर 'मैडम' के पैरों की 
झनकार,
आ जाते हैं 
खिदमतगार.....सोचते हुए,
आज क्या हुक्म करेंगी
सरकार.
'गुड-मौर्निंग' कहकर 
संकेत देते हैं
उपस्थिति की,
इंतज़ार में, फ़रमान 
जारी होने की.....और 
फ़रमान भी कुछ 
ऐसा-वैसा नहीं,आप 
सुनिए तो सही.....
'अ' 'ग्लास' 'ऑफ़' 'वाटर',
'विथ' 'स्क़ुईज' 'ऑफ़' 'लेमन'.
अरे,
एक साधारण से 
निम्बू-पानी के गिलास की 
हैसियत,
कहाँ-से-कहाँ 
पहुँच गई,
मैं  तो 
हैरान रह गई.....पर 
मेरी क्या औकाद,
थोड़ी देर बाद,
आठ-दस इंच लम्बी और 
तीन-चार  इंच 'डायमीटर' की 
गोलाई वाली,
नक्काशीदार काँच के 'ग्लास' में, 
'जूस' का 
आगमन हुआ,
छोटे-बड़े घूँटों में 'सिप' कर 
'जिम' की ओर 
गमन हुआ.
घंटा वहाँ बिताकर,
घर आकर,
फल-वल खाकर,
'ब्यूटी-केयर' की शुरुआत हुई......
कुछ फल,कुछ सलाद 
आँखों,गालों पर चिपकाये गए,
कुछ तेल-फुलेल 
नाखूनों पर,लगाये गए,
डुबोया  गया पैरों को 
पानी में,
भौहें तराशी गयीं,कुछ और 
बारीकियां 
'एक्शन' में लायी गयीं......और 
'सीन' बदल गया, 
नहाने का वख्त जो हो गया.
कल-कारखाने जैसे 
यंत्रों से
सुसज्जित,
स्नान -गृह में,
विभिन्न प्रकार के 
फव्वारों और झरनों का समन्वय,
समय की लाचारी नहीं 
तो ......'टाइम' 'नो' 'बार',
बस......लेती रहीं बौछार.....
और...... अपने समय के 
अनुसार,
तरोताज़ा,
खुशबू उड़ाती,
फूलों को शर्माती,
'हाई''हील' के 'सैंडल'
खटखटाती,
'किटी-पार्टी' में जाकर 
खाती,पीती,उड़ाती,
थककर 
घर आती,
बच्चों की सरसरी सी 
जानकारी,
'आया' से पाकर,
'ब्यूटी-स्लीप' में 
सुस्ताती ,
बेचारी.......
शाम तक ही जग पाती.
अब कहीं थोड़ी सी 
राहत.....
कोई 'शापिंग',कोई 
'मूवी',
कोई नाटक,कोई 'ड्रामा',
कोई 'थियेटर' कोई 
'पिक्चर',
कितना 'बिज़ी' रहती है.....
उस पर ये 'पार्टियाँ',
ये  शादियाँ,
ये 'काकटेल',
घर,बाहर,'क्लब'
'होटेल',
हर जगह के लिए 
अलग-अलग कपड़े,
अलग-अलग ज़ेवर,
अलग-अलग 'मेक-अप'.
नए से नए की होड़,
मेहनत करती है 
पुरजोड़,
तब कहीं जमती है 
'सोसाइटी' में धाक,
ये विशिष्ट वर्ग की 
गृहणी है,
हमेशा 
ऊँचा रखती है 
नाक.

Thursday, September 13, 2012

एक आम गृहणी का, एक आम दिन.......

एक आम गृहणी का, एक आम दिन.......

कभी प्लेट और कभी 
थाली में,
कभी चेन और कभी 
बाली में,
कभी 'स्वीपर' में,कभी 
माली में,
तो.....कभी चाय की 
प्याली में.
कभी परदों में ,कभी 
कभी नाली में,कभी 
फूलों में, कभी 
डाली में 
या फिर......
खिड़की की जाली में.
कभी मिर्च-मसाले,
नमक-तेल,
चावल,रोटी की 
टोली में,
कभी स्कूलों की 
भाग-दौड़,
'कालेज' की हँसी 
ठिठोली में.
कभी दही,दूध और 
छाली में,कभी  
भीड़ 
और कभी ख़ाली में,
कभी प्रत्युष की 
उजियाली में,
कभी गोधूली की 
लाली में........

Sunday, September 9, 2012

पता ही नहीं चला......(maithili se anuwad)

मिथिला कि मिट्टी में 
मधु-श्रावणी(त्योहार)की
हँसी-मजाक और मिठास,
घोलते-घोलते,
कब इस भाषा में 
लिखने लगी 
पता ही नहीं चला......
घर-गृहस्थी की सरदर्दी में 
दही,चिवड़ा और बैगन के भार से 
प्रभावित,
जमाते,कूटते,तौलते 
किस समय कागज़-कलम 
सर पर सवार हो गया 
पता ही नहीं चला.......
 समदाउनी(बेटी की विदाई के समय सीख देनेवाला गीत)के गीत 
सुनते-सुनते 
विद्यापति की कविता 
पढ़ते-पढ़ते,
नौकर के न आने पर 
चूल्हा खुद जलाकर,
अदौड़ी,तिलोड़ी,दनौड़ी 
पारकर(बनाकर)
कब कविता पारने(बनाने)लगी 
पता ही नहीं चला........
सावन-भादो की टिप-टिप से 
छुपकर,
बच्चों को गोद में 
बैठाकर,
'गोनू झा'(मिथिला के एक ऐसे चरित्र जिनकी हास्य और ज्ञान की कथाएं मशहूर हैं)की बातों से 
सबको हँसाकर,
पीतल के 'कजरौटा'(काजल सेकने की खास करछीनुमा चीज़)में 
काजल सेक कर 
कब कविता सेकने लगी 
पता ही नहीं चला.......
सुबह-सुबह खाना तैयार कर, 
चावल से मांड़
निकालकर,
लकड़ी की 'कठौती'(लकड़ी की टोकरीनुमा चीज़) में 
साग-सब्ज़ी सजाकर,
आँगन,बरामदा और चबूतरा में 
झाड़ू लगाकर,
खुशबूदार घी में 
पूरी छानकर
कब कविता छानने लगी 
पता ही नहीं चला........
लेकिन 
मुख्य बात यह है 
कि
यह सब घोलते-मिलाते
अचानक परिचय हो गया 
'इ-विदेह' से 
और 
देखते-देखते 
बड़े-बड़े लोगों के 
मैथिल समाज के 
एक कोने में,
जगह मिल गई 
मुझे भी.

Monday, September 3, 2012

बूझिये नईं पड़ल......

मिथिलाक माटी में,
मधु-श्रावनिक
हास-परिहास एवं मिठास 
घोरैत-घोरैत, 
कखन एही भाषा में 
लिखय लगलौं,
बूझिये नईं पड़ल......
घर-गृहस्थिक  मथ-भुक्की में 
दही-चुड़ा, बैगनक भIर सँ 
प्रभावित,
जमबैत,कुटैत,तौलैत 
कोन बेर 
कागज़-कलम 
माथ पर सवार भ गेल
बूझिये नईं पड़ल......
समदाऊनी के गीत 
सुनि क,
विद्यापतिक कविता 
पढि क,
खबासक अनुपस्थिति में 
चूल्हा पजाडि क,
अदौड़ी,तिलौड़ी,दनौड़ी
पारि क,
कखन कविता पारय लगलौं 
बूझिये नईं पड़ल.....
सावन-भादो क झींसी सँ 
नुका क,
नेना -भुटका क 
कोर में बैसा क,
गोनू झा क गप्प सँ 
सभके हँसा क,
पितरिया कजरौटा में 
काजर सेका क,
कखन कविता सेकय लगलौं 
बूझिये नईं पड़ल......
भिन्सरहे भानस,भात 
पसाई क,
तीमन-तरकारिक कठौती 
सजाई क,
अंगना,ओसारा,चबूतरा 
बहारि क,
गम-गम घिऊ में 
सोहारी छानि क,
कखन कविता छानय लगलौं 
बूझिये नई पड़ल......
आ मूल बात ई 
जे घोर-मठ्ठा
करैत-करैत,अनचोक्के
'ई-विदेह' सँ परिचय 
भ  गेल......आ 
देखिते-देखिते 
मिथिलाक पैघ समाजक 
कोन में,
हमरो प्रविष्टि भ गेल.