Monday, September 7, 2015

मन ने कहा ........

आज सुबह-सुबह
मन ने कहा
मेरा मन नहीं लग रहा..
अरे! तुम्हारे पीछे ही तो
सारा दिन बिताती हूँ
तरह-तरह से तुम्हें ही तो
बहलाती हूँ
अच्छा चलो, साहित्य अकादमी या
फिर ज्ञानपीठ
किताबें खरीदेंगे..
अभी-अभी तो गये थे
किताबें भी ली थी
मन ने मना कर दिया..
तो चलो चांदनी चौक,करोल बाग
या कनॉट प्लेस..लेकिन
धूप बड़ी कड़ी है..अच्छा छोड़ो
मॉल चलते हैं
ठंढ़े-ठंढ़े..
नहीं-नहीं ,मॉल नहीं
मन झल्लाकर बोला..
वहाँ यंत्र की तरह घूमते रहना
इस कोना से उस कोना
बड़ी कोफ़्त होती है
दम घुटता है..
तो सुनो ,ऐसा करते हैं
आज सोमवार है
हाट लगता है
मन चहक उठा
हाँ-हाँ वहीँ चलते हैं
वहाँ धरती से जुड़े लोग
मिलते हैं
कहीं कृत्रिम हँसी नहीं
कहीं कोई दिखाबा नहीं
बस..छोटी-छोटी बातें
गाँव-घर की बातें
सील-बट्टा ,चिमटा, अंगीठियां
हरी-हरी,ताज़ी-ताज़ी
मिट्टी लगी सब्जियां..
सीधे-सादे साधारण से लोग
कमर-कन्धों पर
बच्चों को उठाये
कितने स्वाभाविक लगते हैं..
कितने निश्छल लगते हैं..
यही सही है
यही ठीक रहेगा..
चलो वहीँ चलते हैं
मेरा मन लगेगा..

Monday, August 17, 2015

सुबहों का समय .......



सुबहों का समय 
अखबार के पन्नों का
खुल जाना....... 
वो खुशबू भाप की 
उठती हुई 
चाय के प्यालों से……
पराठों की वो प्लेटें 
सब्जियाँ सूखी - करीवाली ,
करारे से पकौड़े 
और भागम- भाग 
वो भगदड़ ……
घड़ी की दौड़ती सूइयों से 
उठते शोर की 
हलचल 
वो जल्दी से भरा जाना 
' टिफिन '
' मिल्टन ' के डब्बों में .......
तुम्हारी याद का आना 
वो मेरा दिल 
बहल जाना .......   

Friday, April 10, 2015

नारी मुक्ति मोर्चा माने या न माने ........

नपे-तुले ,कटे-छंटे
वस्त्र
धारण किये ,
हाथों में
नशीला द्रव्य लिये ,
'चुटकी जो तूने काटी है '
की धुन पर
थिरकते हुये ,
सभ्यता की हदों को
पार करते हुये....... और
दूसरी ओर
लड़कों का शोर
'अच्छी बातें कर ली बहुत
अब करूँगा
गंदी बात '……
अब नारी मुक्ति मोर्चा माने या न माने …… लेकिन अपनी गरिमा को गिराने में इन लड़कियों का हाथ भी कुछ काम नहीं.......

Sunday, February 8, 2015

पिता के बाद ……

पिता के बाद ……

बची हुई माँ 
अचानक 
कितनी निस्तेज 
लगने लगती है……
एक नये प्रतिबिम्ब में 
तब्दील हुई, 
खुद को ही नहीं 
पहचानती है ……
बेरंग आँखों की उदासी से 
उद्धेलित मन को 
बाँधती है,
सुबह-शाम की उँगलियाँ थामे 
अपने-आप ही 
संभलती है,
तूफान के प्रकोप को समेटती हुई 
रुक-रुक कर 
चलती है ………
मन के  
सूनेपन को 
जाने किस ताकत से 
हटाती है ,
यादों के प्रसून-वन में 
हँसती- मुस्कुराती है ,
भावनाओं के साथ 
युद्ध करते हुये 
आँसुओं को 
पी जाती है……और 
कभी कमज़ोर दिखनेवाली 
माँ……
अचानक 
कितनी मजबूत 
लगने लगती है ………