Monday, December 27, 2010

आत्मीयता से भरी बातों को........

आत्मीयता से भरी बातों को
"कुरियर" के सहारे,
मुझ तक पहुँचा दिया,
चलो अच्छा किया,
एक शिष्टाचार था
बाकायदा निभा दिया .
विश्वास और अविश्वास के
पलड़े में
झूलता हुआ
अंतर्द्वंद,
मौसम के ढलान पर
अप्रत्याशित परिस्थितियों का
सामना करते हुए,
अपेक्षाओं  के मापदंड से
फिसलता गया,
विधिवत  प्रक्रियाओं को
कार्यान्वित करना,
भूलता गया
और काट-छाँटकर
निकाले हुए समय ने ,
इस लाचार मनःस्थिति को
अपराध मानकर,
अपनी बहुमूल्यता का एलान
इस अंदाज़ में
किया
कि मुजरिम बनाकर,
हमें
कठघरे में
खड़ा कर दिया,
चलो अच्छा किया,
एक शिष्टाचार था
अपने ढंग से निभा दिया.

Tuesday, December 21, 2010

मरुभूमि कितना.........

'मरुभूमि
कितना सूना लगता है.......'
अनायास ही
निकल गया था
मुंह से ,
जब 'आबू-धाबी' के 
ऊपर से
'सूडान' जाने के लिए,
जहाज़ उड़ा था
और
नीचे 'सहारा डेज़र्ट'
उदास खड़ा था.
न कहीं पानी,
न कहीं हरियाली,
एकदम सन्नाटा
एकदम ख़ाली.
बात हो गयी थी
आई-गई,
बीस-बाईस साल में
मैं भी
भूल गई
पर
आज सुबह,
बाल झाड़ते हुए,
अवाक्
रह गई थी.........
'कितनी समानता है
मेरी आँखों में',
ख़ामोशी
रूककर
कह गई थी .

Tuesday, December 14, 2010

मधुमय तुम्हारा हास.......

मधुमय तुम्हारा हास
मेरे मन का बसंत है,
सुमधुर तुम्हारे श्वासों का
आरोह – अवरोह,
मेरी कल्पना में,
मेरी प्रेरणा में,
कुसुम कली से सुरभित
तरूलता सी,
लिपटी हुई है
और इन आँखों की नमी,
सिर्फ तुम्हारी है ।

Saturday, December 4, 2010

फैशन शो में.........

औंधे मुंह गिर गयी शर्म,
पल्लू बाहर
रोता था,
ध्वस्त हया की
सिसकी पर 
जब ,
'कैट-वॉक' होता था.
कुछ ऐसे,कुछ वैसे
कपड़ों की
ताकत से , शायद........
मंच हिला था,
लज्जा की दीवारों पर,
कितना कीचड़
फैला था.
गीत की लय पर
वहां,
आँखों की पुतली
बोलती थी ,
धज्जियां
बेवाक फैशन की
चमक-कर,
डोलती थी,
कतरनें
फैशन-परस्ती से
बदन पर,
सज रहीं थीं,
थान-दर-थानों के
कपड़े
सरसराकर,
चल रहे थे .
पीढ़ियों की सीढ़ियों पर
रूढ़ियाँ थीं
सर झुकाए,
रेशमी पैबंद पर
ख़ामोश थीं,
धमनी-शिराएँ.
बत्तियों का था धुआं
और
शोख़ियों का
शोर था,
रोशनी के दायरों में,
चल रहा 
एक होड़ था .
पारदर्शी था कोई,
बेखौफ़ था
उनका जुनून,
झिलमिलाती सलवटों पर,
रात ने
खोया सुकून.
थी कोई आंधी चली
या कि कोई,
तूफाँ रूका था,
देखता कोई ,कोई
आँखें
झुकाने में लगा था .
नए फैशन की
नुमायश पर
नया ,
नग़मा बजा था,
आँचल का
अभिमान कुचलकर,
'हॉल'
तालियों से गूँजा था.

Thursday, November 25, 2010

टूटी हुई,जंग लगी......

टूटी हुई,जंग लगी
लोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के , पिछले कोने में .
कितनी होली-दिवाली
देख चुकी है ,
बनाए हैं कितने पकवान
वर्षों तक ,
धुल-धुल कर,सुबह-शाम
चमका करती थी,
कभी पूरी ,कभी हलवा
चूल्हे पर ही
 रहती थी .
 नित्य,
नए स्वाद का
निर्माण करती थी ,
तृप्ति के आनंद का
आह्वान,
करती थी.
टूटी हुई,जंग लगी   
लोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के, पिछले कोने में........
आते-जाते
कभी-कभी
पड़ जाती है नज़र
उस कोने में,
थम जाता है समय,
सहम जाता है 
मन ,
तैरने लगती है 
हवाओं में, व्यथाओं की 
टीस
और अचानक ,
घूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी 
माँ का चेहरा.

Monday, November 22, 2010

मेरे प्रवासी मित्र......

मेरे प्रवासी मित्र ,
तुम लौट क्यों नहीं आते  ?
तुमने जो बीज बोए थे .....
आम -कटहल के ,
फल दे रहे हैं सालों से .
चढ़ाई थी जो बेलें
मुंडेरों पर ,
कबकी फैल चुकी हैं ,
पूरी छत पर.
शेष होने को है ....
तुम्हारे भरे हुए ,
चिरागों का तेल , रंग
दीवारों पर ,
तस्वीरों की,
धुंधलाने सी लगी है.
तुम्हारे आने के
बदलते हुए,
दिन ,महीने और साल ,
मेरी उंगलिओं की पोरों पर
फिसलते हुए ,
तंग आ चुके हैं.
कोने -कोने में सहेजा हुआ
विश्वास ,
दम तोड़ने लगा है
कमज़ोर पड़ने लगी है,
पतंग की डोर पर
तुम्हारा चढाया माँझा.
तुम्हारी  चिठ्ठियों के
तारीखों की
बढती हुई चुप्पी ,
कैलेंडर के हर पन्ने पर,
हो रही है
छिन्न-भिन्न .
तुम्हारे आस्तित्व पर चढ़ा
स्वांत: सुखाय,
गूंजने लगा है
हज़ारों मील दूर से ........
फिर इस साल .
तुम्हारे समृध्दी की
तहों में ,
खोने लगा है ,
पिता का चेहरा
और
तुम्हारा यथार्थ
डूबने लगा है ,
तुम्हारी माँ के
गीले स्वप्नों में .......
मेरे प्रवासी मित्र ,
तुम लौट क्यों नहीं आते ?                                                       /

Thursday, November 11, 2010

विदेशी भारतीयों के नाम.......

तुम्हें बुलाने को हमने,
सावन से यूँ
बोला था...कि कह देना,
बारिश की बूँदें
गिरतीं हैं,
अपनी छत से होकर
हर दिन ,
तुम जिसे देखते रहते थे,
खिड़की पर बैठे,
हर पल -छिन.
सावन आँखों में
भरा हुआ,
लेकर जबाब यह
आया था, तुम
फव्वारों से उड़ती,
बूंदों  में खोकर,
अपना वह सावन
भूल गए.
मैं जाड़ों की शीत-लहरी को
समझाई थी,
जाकर कहना....कि
बैठ धूप में,
मूंगफली के दानों के संग,
गर्म चाय के
ग्लासों से,
तलहथियों को गरमा जाएँ.
तुमसे मिलकर,
कितने दिन तक,
मुझसे मिलने में
कतराई, फिर बोली थी ...
जब जाड़ों में,
बर्फ़ पड़ती है दिन-रात,
तुम अंदर बैठकर,
उन सफ़ेद खामोशियों को,
कर लेते हो,
आत्मसात और 
कि तुम अब,
शीत -लहरी को ,
नहीं पहचानते .
फिर फागुन को बुलवाई थी
कि जाओ,
याद दिला आओ,
होली के गीत,
सुना आओ, उन मालपूओं की
खुशबू पर,
इत्रों के नाम ,
गिना आओ...
लेकिन तुमसे मिल सका नहीं, 
तुम व्यस्त  थे वहां ,
आसमानी ख़्यालों में ,
ख्वाबों की उड़ानों में ,
परदेश की चालों में.
तुम्हारे सर पर था सवार,
'इस्टर' का सोमवार और 
फिर....आखिरी बार,
हमने,
भेजी थी वसंत .
तितलियों के पंखों पर,
फूलों की खुशबू लेकर कि
बता देना....फूलों के रंग ,
सुना आना कोयल की कूक 
लेकिन....... 
वहां 'स्प्रिंग' के,
बिना खुशबू वाले 
फूलों की पकड़ ,
तुम पर,
सख्त होती गयी ,
'कोलोन' का छिडकाव,
दिन-प्रतिदिन तुम्हें
जकड़ता गया, 
पतझड़ को 'ऑटम' से
बदलकर, तुमने मन को,
बहला लिया,
यहाँ के तीज-त्यौहार,
'क्रिसमस-ट्री' के
सितारों और लट्टूओं  पर
चढ़ा  दिया ......और
फिर  एक दिन.....
कंकरीट   के जंगल ने,
सोंधी मिट्टी की 
कोमलता पर,
ऐसा प्रहार किया कि
अलग हो गए 
तुम्हारे जड़ -मूल 
और बिना कुछ सोचे ,
झट से,
कसकर बांध ली, 
तुमने अपनी मुट्ठी 
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा  'ग्रीन -कार्ड 'था . 
 

Thursday, October 28, 2010

नहीं चाहती ..........

नहीं चाहती ..........
तुम्हारी तस्वीर को 
माला पहना दूं ,
अगरबत्ती दिखा दूं ,
फूल चढ़ा दूं और
जो दूरी............
तुम्हारे-हमारे बीच
दुर्भाग्यवश,
बन गयी है,
उसे  और बढ़ा दूं.
नहीं चाहती.............
नियम-कानून से
बना-बनाकर
अनबूझ पहेलियाँ,
हल निकालूँ ,
सुनी-सुनायी
जहाँ-तहां की,
जिनकी-तिनकी,
मन में पालूँ
और
सोचने,चाहने,
याद करने की
अभ्यस्त
जिस छवि की,
उसे ही
बदल डालूँ.
प्रहार कर
अपनी छमता पर,
व्यथा को,
दिखाना नहीं चाहती........
यादों को सहेजने की,
कोई और पद्धति,
अपनाना नहीं चाहती........

Tuesday, October 19, 2010

माँ सरस्वती........

मणि माला धारण किये,
कर कमलों में
वीणा लिए,
हंस के सिंघासन पर
विराजती,
माँ सरस्वती.........
दे देना
वरदान,
एक ऐसी
विलक्षण शक्ति का
जो
भरती रहे स्फूर्ति,
सहज ही
मेरे तन मन में.
कर देना सराबोर,
एक ऐसी
भक्ति से,
जो
जागृत रखे,
मेरे चेतना को,
असीम
संतुष्टि से.
जगाये रखना
मेरे मन में,
निर्भय विश्वास का
मन-वांछित
उल्लास,
आप्लावित
करते रहना
मेरे विवेक को,
अपनी
सुदृढ़ क्षमताओं के
वरद
हस्त से,
तुम्हारे
आलौकिक प्रकाश के
माध्यम से,
सुगम होती  रहें
मेरी
जटिलतायें,
तुम्हारी
सौहाद्रता का अंकुश,
तेज धार बनकर           
तराशती रहें
मेरी
अनुभूतियों को,
अचिन्त्य रहे
मेरी भावनाओं में,
तुम्हारा
कोमल स्पर्श,
आभारित रहे
मेरे अंतर्मन का
पर्त-दर-पर्त, 
तुम्हारी
अनुकम्पाओं  से          
और
सुना सकूँ तुम्हें
जीवन भर,
कविताओं में भरकर,
तुम्हारे दिए हुए
शब्दों के पराग,
तुमसे मिली
आस्थाओं की
पंखुडियां
और
तुम्हारे स्वरों से
मुखरित,
अनगिनत
गुलाब.

Tuesday, October 12, 2010

तब मैं व्यस्त रहता था..........

तब मैं व्यस्त रहता था..........
यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ
और फिर वहाँ से वहाँ,
कुछ सुनता था,
कुछ नहीं सुनता था,
कुछ कहता था,
कुछ नहीं कहता था
पर तुम जो कहती थी,
कुछ प्यार-व्यार जैसा,
वो फिर से कहो न ।
मैं जगा-जगा सोता था,
मेरी पलकों पर
तुम, करवटें बदलती थी,
मैं जहाँ कहीं होता था,
तुम्हारी सांस,
मेरी
सांसों में, चलती थी ।
तुम आसमान में
सपनों के, बीज बोती थी,
अलकों पर
तारों की जमातें ढ़ूंढ़ती थी,
घूमता था मैं,
तुम्हारी कल्पनाओं के, कोलाहल में,
स्पर्श तुम्हारी हथेलियों का,
मेरे मन में कहीं,
रहता था ।
तुम शब्दों के जाल
बुन-बुनकर, बिछाती थी,
मैं जाने-अनजाने,
निकल जाता था,
तुम्हारे कोमल, मध्यम और
पंचम स्वरों का
उतार-चढ़ाव,
मैं कभी समझता था,
कभी नहीं समझता था,
तब मैं व्यस्त रहता था,
यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ
और फिर वहाँ से वहाँ,
कुछ सुनता था,
कुछ नहीं सुनता था,
कुछ कहता था,
कुछ नहीं कहता था,
पर तुम जो कहती थी,
कुछ प्यार-व्यार जैसा,
वो फिर से कहो न ।

Sunday, October 3, 2010

माज़ी के समानों में........

माज़ी के समानों में,

हमको भी
रखे रहना,
सीपी की डिब्बियों में,
हमको भी
रखे रहना.
बचपन
की किताबों पर
छापी हुई तितली में,
कागज़ के पुलिंदों को
बाँधी हुई डोरी में,
कंडे की कलम,
टिकिया, स्याही की
कोई सूखी,
कॉपी के फटे पन्ने,
तारीख़
तब की लिखी.
सिक्का कोई पुराना
छिट-पुट सी
पर्चियों में,
अबरख का एक टुकडा
अम्मा की चिट्ठियों में,
अंगूठियों से निकला,
कोई नगीना
तब का,
हुक्के की कोई
टोंटी
नाना की गुडगुडी का.
पॉकेट घडी से झूलती,
चेनों में रखे रहना,
आँखों के खारेपन में,
हम को भी
रखे रहना.
नुस्खा दवाईयों का
लिखा हुआ
पिता का,
दावात संगे-मर्मर
दादा के ज़माने का,
एक ज़ंग लगी
सुई,
एक रंग लगा
बटुआ,
झोले में रखा
डंडा, आजादी का
तिरंगा,
एक चाभियों का
गुच्छा,
एक सुर्ख लाल मोती,
धागों की
पोटली में,
छोटा का एक
चुम्बक...
चुम्बक के किनारों पर
हमको भी
रखे रहना
माज़ी के सामानों में,
हमको भी
रखे रहना...............

Tuesday, September 21, 2010

तारे फ़लक से.........

तारे फ़लक से
हमसे,
कहते हैं सर उठाओ
बेले की खुशब
आकर,
कहती है गुनगुनाओ
फूलों की टोलियाँ मिल ,
आ पास बैठतीं हैं ,
शाखें ,लताएँ अक्सर
कुछ देर
ठहरतीं हैं .
बIदल गगन से
हमसे,
कहता भरो उड़ानें ,
तितली मुझे बताती
कि
कैसे पंख तानें ,
कुंजों से रोज़ होकर,
आती हवाएं मिलने ,
पत्तों पे अटकी बूँदें भी
साथ -साथ
चलने .
फिर ................
धूप-छांव आते -जाते
पूछा करतें हैं ,
हिमगिरि के संदेसे आ
हिम्मत
भरते हैं,
फूलों कि क्यारी से
हर पौधे ,
बातें करतें हैं ,
हरी दूब, शबनम,पराग
सब,
दोस्त बने रहतें हैं .
चिड़ियों का कलरव
समझाता,
झरनों का ख़त
आता है,
नदियों से कल-कल
सागर से
उठ तरंग ,
बहलाता है .
कलियाँ हंसती ,
मुस्काती ,
कुछ-कुछ कहती
रहती है ,
सूरज कि किरणें
मुझपर ,
अपनी नज़रें रखतीं हैं.
गोधूलि का आसमान
आ,
हाल-चाल लेता है
और रात में
चाँद वहाँ से,
निगरानी रखता है.

Sunday, August 29, 2010

विश्वास जहाँ भरता था.......

विश्वास जहाँ भरता था
कुलाँचे,
ख़्वाबों के खज़ाने
खुलते थे,
हर मौसम में
आती थी बहार,
हर सीपी में
मोती,
मिलते थे.
हंगामा-ए-आलम(1) में
शौके -बेपरवा(2)
रहते थे,
बरवख्त असूदा,(3)
क़मर(4) और
खुर्शीद(5) की बातें,
करते थे.
शबनम के मोती
चुन-चुन कर ,
हम माला रोज़
बनाते थे,
ऐसे की किसी रियासत में,
राजा और रानी
रहते थे.
ये बातें तब की हैं
जबकि
आसमान
नीला होता था,
पानी का रंग पन्ने जैसा ,
रूबी जैसा मन,
रहता था.
रेशम के धागे,
उलझ-उलझ कर,
टूट गए और
लम्हे सारे बिखर गए,
सपनों से हम
ऐसे जागे कि
चलते-चलते फ़िसल गए.
रफ़ीके-राहे-मंज़िल(6) का
सुख गया,
यहाँ से,
हर औलांगार(7) फ़ीका,
अफ़सुर्दा,(8)
ताबे-रुख़(9) से,
दर्दे-निहाँ(10) उठाकर,
दिन-रात-दोपहर से,
ये साल चल रहा है,
छुपकर
मेरी नज़र से.

1 दुनिया का हंगामा , 2 निश्चिन्त रहने का शौक ,3 संतुष्ट , 4 चाँद , 5 सूरज , 6 सहयात्री , 7 घुमने -फिरने की जगह ,8 उदास ,9 चेहरे की चमक ,10 आतंरिक पीड़ा

Saturday, July 31, 2010

वो दरम्यां के दिन नहीं........

वो दरम्यां के दिन नहीं ,
वो तुम नहीं ,
वो हम नहीं .
न वो फ़ुर्सते-वक्ते-सहर,
नूरे-शबा का 
असास है,
न वो ज़र्फ़ वो
फर्ज़ानगी, जादे-सफ़र
मेरे पास है .
न वो माईले-परवाज़
मन ,
न वो ख्वाबीदा
कलियाँ कहीं ,
न वो बादवां,सहने-
चमन,
बेमानियाँ बातें
रही.
न वो इन्तहा-ए-सादगी,
न वो नग्मा-ए-कोकब
कहीं,
न वो हर्फ़े-शीरीं,
हुक्मे-मानी,
रौनके-हस्ती
रही .
न वो फल्सफयाना
हमनवा,
न वो हमख्याल न
हमइना,
न वो ज़ाफरानी
रंगे-बू,
शाख़े-सजर
हसरत
रही.
बस मुसलसल
बारे-ग़म का, है
तलातुम,
और समय की
बेखबर,
रफ़्तार है,
साथ वो बीता सफ़र,
बीते सफ़र का
प्यार है.
असास- पूंजी,ज़र्फ़-सामर्थ्य ,फ़रज़ानगी-बुद्धिमत्ता ,जादे-सफ़र-यात्रा का साथी,माईले-परवाज़-आसमान में उड़ान भरनेवाला, ख्वाबीदा-ख्वाबों में खोई,कोकब-सितारे,हर्फ़े-शीरीं- मीठे -बोल ,हुस्ने-मानी-विश्व का सोंदर्य ,
हमनवा -परस्पर बात करनेवाले ,हमइना-सहगामी,मुसलसल-निरंतर ,बारे-ग़म-ग़म का बोझ ,तलातुम-उथल -पुथल

Sunday, June 27, 2010

एक नीरस.....मुलाकात के लिए.....

एक नीरस
मुलाकात के लिए ,
कुछ उदास चेहरों के
साथ के लिए,
'शॉपिंग- मॉल' का आनंद ,
नई 'पिक्चर' का मज़ा और
लज्ज़तदार खाने का
ज़ायका
कोई क्यों बिगाड़े?
क्यों बिगाड़े
आधी,पौनी ,चौथाई
नपी-तुली,
एक ख़ूबसूरत शाम
या कह लीजिये,
एक टुकड़ा दिन .
कितना 'प्रेशियस' होता है
समय ,
हर जगह नहीं
लुटाया जाता,
यूँ ही नहीं
गंवाया जाता
कि चलो, फ़ोन घुमाकर
कुशल-छेम
ले लें,
सुनिश्चित कार्य-क्रम में
बाधा डालकर,
बातें कर लें और
बेमज़ा शब्दों के,
आदान-प्रदान में
खामखा,
दो-चार कीमती मिनट
कुछ सेकंड,
जाया कर लें .
वो भी तब,जब
स्नेह के बंधन,
गंभीरता के आवरण में,
अपना आस्तित्व
खोते जा रहें हों,
आत्मीयता कि जड़ें,
खाद-पानी के
अभाव में,
सूखने लगी हों और
विवेक.................
भौतिक चकाचौंध से
अभिभूत,
किंककर्तव्यविमूढ़,
वहीँ कहीं सो रहा हो .........

Saturday, June 19, 2010

कभी ये रहा,कभी वो रहा.........

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख -ए-फ़ितरत का नशा,
कभी शाम- ए-ज़श्न ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं भर रहा परवाज़ था.
कभी था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा
और जिंदगी चलती रही .

Monday, April 19, 2010

पिता के बाद.........

बची हुई माँ
अचानक
कितनी निस्तेज
लगने लगती है.
एक नए प्रतिबिम्ब मे
तब्दील हुई
खुद को ही नहीं
पहचानती है,
बेरंग आँखों की
उदासी से
उद्वेलित मन को
बांधती है,
सुबह-शाम की
उँगलियाँ थामें
अपने-आप ही
संभलती है,
तूफान के प्रकोप को
समेटती हुई
रुक- रुक कर
चलती है.
सूनेपन को
जाने किस ताकत से
हटाती है,
यादों के प्रसून-वन में
हँसती-मुस्कुराती है,
भावनाओं के साथ
युद्ध करते हुए,
आँसुओं को
पी जाती है और
कभी कमज़ोर दिखनेवाली
माँ
अचानक
कितनी मजबूत
लगने लगती है.

Wednesday, April 7, 2010

तुम मेरी चिंता ........

तुम मेरी चिंता
मत करना ........
तुम्हारे साथ बिताये हुए
समय का
मैनें
'फिक्स -डिपोजिट'
करबा दिया है ,
इतने दिनों का
समेटा हुआ
प्यार,
इकठ्ठा करके
बैंक में
रखबा दिया है
और
इनसे आनेवाला
'इंटरेस्ट'
मेरे
जीवन-यापन के लिए
काफी है ,
तुम मेरी चिंता
मत करना ........
तुम्हारे बनाए हुए
सुख के
हिंडोले में ,
झूलती रहती हूँ ,
कभी हक़ीकत,
कभी
ख्वाबों के जाल
बूनती रहती हूँ ,
मीठी यादों का
मरहम,
दर्द के एहसास पर
लगा लेती हूँ,
तुम मेरी चिंता
मत करना,
मैं तो तुम्हारे
पास ही
रहती हूँ .

एक- दूसरे को ..........

एक- दूसरे को खुश देखने की
कोशिश में ,
हम
खुश रहते हैं .
समय के साथ -साथ,
एक-दूसरे को
चलाने के लिए,
हम
सप्रयास
चलते रहते हैं और
एक- दूसरे का
दर्द बाँटने के लिए ,
हम
अपना -अपना दर्द
पी लेते हैं.

Sunday, March 28, 2010

द्रवित ह्रदय .........

द्रवित ह्रदय के
भाव-भीने
स्वरों से ,
आभार मानती हूँ
उन अपनों का ,
जो
बुरे समय में
किनारा
कर लेते हैं .
टूटे हुए मन के
टूटे-फूटे
शब्दों से,
उपकार मानती हूँ
उन परायों का,
जो
बुरे समय में
साथ
हो लेते हैं,
फिर नमन करती हूँ
दोनों को
कि
बाल्यावस्था से ,
अपने -पराये की
जिस परिभाषा को
लेकर
चलती रही........
अभी -अभी तक
जिस विश्वास पर
विश्वास
करती रही......
एक भ्रम था
बता दिया ,
नए समय का
नया पाठ
पढ़ा दिया और
मेरी मान्यताओं को,
संशोधन की
ज़रुरत है ,
सप्रसंग समझा दिया .

Tuesday, February 9, 2010

अपनी अदालत थी .....,

अपनी अदालत थी ,
तीर पर तीर
चलने लगे,
कुछ अच्छा तो
नहीं किया
बेवजह
बुराई करने लगे.
बाज़ी थी  शतरंज की ,
अपने सब
मोहरे थे,
सही तो
क्या चलते ,
चाल ही
बदलने लगे.
समय प्रतिकूल था ,
भ्रम में
उसूल था,
लाज़मी था सोचना,
सोचे बिना
चलने लगे.

Monday, January 25, 2010

एक शिष्टाचार था..........

आत्मीयता से भरी बातों को
"कुरियर" के सहारे,
मुझ तक पहुँचा दिया,
चलो अच्छा किया
एक शिष्टाचार था
वाकायदा निभा दिया .
विश्वास और अविश्वास के
पलड़े में
झूलता हुआ
अंतर्द्वंद,
मौसम के ढलान पर
अप्रत्याशित परिस्थितियों का
सामना करते हुए,
अपेक्छाओं के मापदंड से
फिसलता गया,
विधिवत प्रक्रियायों को
कार्यान्वित करना,
भूलता गया
और काट-छाँटकर
निकाले हुए समय ने ,
इस लाचार मनःस्थिति को
अपराध मानकर,
अपनी बहुमूल्यता का एलान
इस अंदाज़ में
किया
कि मुज़रिम बनाकर, हमें
कठघरे में
खड़ा कर दिया,
चलो अच्छा किया
एक शिष्टाचार था
अपने ढंग से निभा दिया.