Tuesday, February 9, 2010

अपनी अदालत थी .....,

अपनी अदालत थी ,
तीर पर तीर
चलने लगे,
कुछ अच्छा तो
नहीं किया
बेवजह
बुराई करने लगे.
बाज़ी थी  शतरंज की ,
अपने सब
मोहरे थे,
सही तो
क्या चलते ,
चाल ही
बदलने लगे.
समय प्रतिकूल था ,
भ्रम में
उसूल था,
लाज़मी था सोचना,
सोचे बिना
चलने लगे.

4 comments:

  1. बहुत खूब....उसूल को भ्रम में दाल दिया....और आज सच ही मोहरे अपनी चाल बदल देते हैं....

    आप अपने ब्लॉग से टिप्पणी के लिए वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें तो टिप्पणी करने वालों को आसानी हो जायेगी..

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  2. बहुत गहरे अर्थ है इस कविता में ।

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