अपनी अदालत थी ,
तीर पर तीर
चलने लगे,
कुछ अच्छा तो
नहीं किया
बेवजह
बुराई करने लगे.
बाज़ी थी शतरंज की ,
अपने सब
मोहरे थे,
सही तो
क्या चलते ,
चाल ही
बदलने लगे.
समय प्रतिकूल था ,
भ्रम में
उसूल था,
लाज़मी था सोचना,
सोचे बिना
चलने लगे.
Tuesday, February 9, 2010
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बहुत खूब....उसूल को भ्रम में दाल दिया....और आज सच ही मोहरे अपनी चाल बदल देते हैं....
ReplyDeleteआप अपने ब्लॉग से टिप्पणी के लिए वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें तो टिप्पणी करने वालों को आसानी हो जायेगी..
good one..
ReplyDeleteबहुत गहरे अर्थ है इस कविता में ।
ReplyDeleteQuite profound.
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