टूटी हुई,जंग लगी
लोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के , पिछले कोने में .
कितनी होली-दिवाली
देख चुकी है ,
बनाए हैं कितने पकवान
वर्षों तक ,
धुल-धुल कर,सुबह-शाम
चमका करती थी,
कभी पूरी ,कभी हलवा
चूल्हे पर ही
रहती थी .
नित्य,
नए स्वाद का
निर्माण करती थी ,
तृप्ति के आनंद का
आह्वान,
करती थी.
टूटी हुई,जंग लगी
लोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के, पिछले कोने में........
आते-जाते
कभी-कभी
पड़ जाती है नज़र
उस कोने में,
थम जाता है समय,
सहम जाता है
मन ,
तैरने लगती है
हवाओं में, व्यथाओं की
टीस
और अचानक ,
घूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
Thursday, November 25, 2010
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बेहद मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी चित्रण।
ReplyDeleteबहुत ही भावमय करते शब्द ...।
ReplyDeleteबहुत जबरदस्त बिंब ... लिखते रहिये ...
ReplyDeleteMridula G
ReplyDeletedil ko chune wali rachna
माँ की याद दिला दी इस कविता ने,
ReplyDeleteसच इतना अच्छा बिंब, इतना अच्छा मार्मिक चित्रण
The Best रचना
एक कड़ाही,
ReplyDeleteलुढ़की पड़ी है
मेरे घर के, पिछले कोने में........
आते-जाते
कभी-कभी
पड़ जाती है नज़र
उस कोने में,
थम जाता है समय,
सहम जाता है
मन ,
तैरने लगती है
हवाओं में, व्यथाओं की
टीस
और अचानक ,
घूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
kuch kahne ko shabd nahin
Bahot khub....:)
ReplyDeleteगहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
इसे कहते हैं सृजनात्मकता मृदला जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !
मन को छू गई कविता
बहुत ही मार्मिक मोड़ दिया है आपने इस रचना को ... ये zamane की रीत है ... ये यादें एक पीड़ी से आगे नहीं बढ़ पातीं ...
ReplyDeleteऔर अचानक ,
ReplyDeleteघूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
ma ma hoti hai kadhai nahi hoti .
ma kabhi ek kone main nahi rahti.
ma hamesa bacchho ke dil main, man main hamesa rahati hai.aapne ma ki yaad dila dee.
ab jaldi milane jana hai.
Hi..
ReplyDeleteMaa ki yaad basi hai jisme..
Us se man ka hai sambandh..
Bhale aaj wo padi nirarthak..
Pakwanon ki liye sugandh..
Sundar abhivyakti..
Deepak..
Hi..
ReplyDeleteMaa ki yaad basi hai jisme..
Us se man ka hai sambandh..
Bhale aaj wo padi nirarthak..
Pakwanon ki liye sugandh..
Sundar abhivyakti..
Deepak..
ओह ..सच है उपयोगिता न रह जाने पर यूँ ज़िंदगी में भी जंग लगना जैसा ही महसूस होता है ..बहुत मार्मिक चित्रण
ReplyDeleteसंवेदनाओं से ओतप्रोत सुन्दर कविता.climax बहुत ही अच्छा..
ReplyDeleteऔर अचानक ,
ReplyDeleteघूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
बहुत भावमय रचना..
घूम जाता है मेरी आँखों में
ReplyDeleteअपनी
माँ का चेहरा
सच है,
घर की पुरानी चीजों से कुछ ज्यादा ही लगाव हो जाता है, बिल्कुल परिवार के सदस्य की तरह।
बेहतरीन कविता।
मृदुला जी! दोनों अन्नपूर्णा! एक दूसरे की पर्याय और प्रतीक! कोई भी पाठक इस कविता को पढकर यादों में खोए बिना न रह पाएगा!!
ReplyDeleteमनपटल पर गहरी छाप छोडती हुई -
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना -
बधाई एवं शुभकामनाएं.
बहुत ही मर्मस्पर्शी,भावमय कविता है। बधाई और शुभकामनायें।
ReplyDeleteअतिउत्तम
ReplyDeleteपहली बार आया हूं इधर
अच्छा लगा
नेटकास्टिंग:प्रयोग
लाईव-नेटकास्टिंग
Editorials
bahut khub.............tuti hui kadhai me maa ki yaad ka dikhna..........achchha laga...:)
ReplyDeleteसच तो यह है कि अति वृद्धावस्था में लगभग सभीके तन उस टूटी हुई कड़ाहीकी तरह हो जाते हैं, कुछ करने कि क्षमता से रहित पुरानी यादें भीतर ही समेटे हुए ...
ReplyDeleteBahut hisundar prastuti.PLz visit my blog.
ReplyDeleteटूटी हुई,जंग लगी
ReplyDeleteलोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के , पिछले कोने में .
कितनी होली-दिवाली
देख चुकी है ,
बनाए हैं कितने पकवान
वर्षों तक ,
धुल-धुल कर,सुबह-शाम
चमका करती थी,
....gahre bhav samete bhavpurn marmsparshi rachna ke liye aabhar..
टूटी हुई,जंग लगी
ReplyDeleteलोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के, पिछले कोने में........
और अचानक ,
घूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
औरत के जीवन की त्रासदी है बयां करती है आपकी नज़्म .....
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति ......!!
हृदयस्पर्शी!!!
ReplyDeleteमृदुला जी
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति .गहरे जज्बात के साथ लिखी गई सुंदर कविता .
बहुत ही मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी प्रस्तुति...आभार
ReplyDeletesach mein , bahut marmik kavita hai
ReplyDeleteमाँ को याद करती हुई कविता मर्मस्पर्शी हो गई है ! बधाई !
ReplyDeleteसंसार में स्मृतियाँ ही तो हैं जो बीते दिनों का आभास कराती हैं!
ReplyDeleteइस प्रकार की रचनाओं के पीछे की गहन आत्मीयता देखी जा सकती है, साफ साफ.
ReplyDelete... bahut sundar ... prasanshaneey rachanaa !!!
ReplyDeleteटूटी हुई...,प्रवासी..व विदेश में बसे भारतीयों के नाम कविताएं आपकी दूसरी कविताओं की तरह ही अपने साथ एक पूरा संसार लिये हैं । भावमय संसार..।
ReplyDeleteसीधे दिल को छूती एक सुन्दर रचना .....आप मेरे ब्लॉग तक आई मेरा हौसला बढाने के लिए बहुत शुक्रिया ..
ReplyDeleteआदर सहित
मंजुला
Oh....My....God....!!! Truly speechless.....amazing
ReplyDeletepoori hi nazm khoobsurat bhaavon se sarabor thi....uspar aakhiri line to bas...!! qatl !!! toooooooooo good
सचमुच निःशब्द कर दिया आपकी इस रचना ने । एक कढाई के माध्यम से कितनी बडी बात कह दी ।
ReplyDeleteलगा कि कुछ नया सा पढ़ रहा हूँ ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteमृदुला जी,
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग जज़बात ...दिल से दिल तक पर आपकी टिपण्णी का तहे दिल से शुक्रिया......आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ......
कितनी सुन्दर रचना है आपकी वाह.....एक टूटी कढ़ाही और अंत में माँ का चेहरा...उफ़ कितना बेहतरीन...
देर से आने की माफ़ी के साथ आज ही आपको फॉलो कर रहा हूँ ताकि आगे भी साथ बना रहे......शुभकामनायें|
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी इस रचना का लिंक मंगलवार 30 -11-2010
ReplyDeleteको दिया गया है .
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
mridulaji bahut sundar kavita ke liye aapko badhai
ReplyDeleteऔर अचानक ,
ReplyDeleteघूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
माँ हर जगह याद आती हैं... सबसे प्यारी चीज भूले ही कब है...:)
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना
और अचानक ,
ReplyDeleteघूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना
वाह-वाह ! कल्पना, यथार्थ और भावनाओं की सुंदर जुगलबंदी है।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना... आभार. (शुक्रिया चर्चामंच)
ReplyDeleteकविता बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है। बधाई।
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ...बहुत सुन्दर रचना पढने को मिली ............
ReplyDeleteऔर घूम जाता है माँ का चेहरा...
ReplyDeleteगहरी संवेदनात्मक कविता ..!
मृदुला जी,
ReplyDeleteनिशब्द!
आशीष
---
नौकरी इज़ नौकरी!
आदरणीया मृदुला जी,
ReplyDeleteनमस्कार !
सीधे सरल लहजे में आपने भावनाओं का सैलाब ला दिया है । मेरे घर में भी ऐसी बहुत सारी चीजें हैं , जो पुरानी स्मृतियों को ताज़ा करके अक्सर भावुक बना देती हैं ।
बीते हुए कल में झांकना बहुत मुश्किल काम है … लेकिन उपाय भी नहीं … … …
पड़ जाती है नज़र
उस कोने में,
थम जाता है समय,
सहम जाता है
मन ,
तैरने लगती है
हवाओं में, व्यथाओं की
टीस
अत्यंत संवेदनशील , आत्मा को स्पर्श करने वाली पंक्तियां हैं ।
ईश्वर-कृपा से मेरे सिर पर अभी मां का साया है , आप मेरे इस सौभाग्य के बने रहने की दुआ करें …
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुन्दर रचना......
ReplyDeletemridula ji
ReplyDeletekya likhun ,likhne ke liye shabd bache hi nahi.
man ko jhakjhorati hue aapki itni sundar prastuti ke liye hardik badhai.
मन ,
तैरने लगती है
हवाओं में, व्यथाओं की
टीस
और अचानक ,
घूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी
माँ का चेहरा.
kuch kahne ko shabd nahin
poonam
हृदयस्पर्शी रचना.
ReplyDelete