सकते में है
जामुन.......कि
ये कैसा बदलाव है,
ये कैसी आंधी है,
ये कौन सा युग है......
हम तो अपने-आप ही
रस से
भर-भरकर
चूते थे,
बारिश में इतराते,
पकते,
टपकते थे,
आते-जाते मुसाफिर
हमें
उठाते,खाते,
मुस्कुराते,
निकल जाते थे
और
बैगनी रंग का जीभ
एक-दूसरे को
दिखा,
खिलखिलाते थे.
कितना सुहाना लगता था......
सबका मन लुभाना,
सब पर छा जाना,
सबका दुलार पाना......फिर
ये क्या हुआ
जो हम,
बड़े एहतियात से
चुने जाते हैं,
गिने जाते हैं,
'लेवल'लगे डब्बों में
'पैक' किये जाते हैं.....और
जाने कहाँ-कहाँ
भेजे जाते हैं.
छप जाता है
डब्बों पर,
'प्राईस-टैग' के साथ
हमारी तस्वीर......और
वीरान
हो जाती है,
वर्षों से
सड़कों के किनारे
उगाई हुई,
भाईचारे कि खेती.
गुमशुदा........हम
कुलबुलाते हैं,
छटपटाते हैं,
'कहीं का नहीं छोड़ा',
बुदबुदाते हैं.
सुना है......... सड़कों पर
लोगों से,
देश तरक्की कर रहा है,
आगे बढ़ रहा है,
ये 'प्रगति' है......लेकिन
जनाब,
एक अदना सा
व्यक्तित्वधारी मैं
भयभीत हूँ......
मेरी तो सरासर
'दुर्गति' है.
गुज़ारिश है आपसे.....
हुकूमत के
ऊँचे तबकों में,
एक छोटी सी सिफारिश
कर दीजियेगा,
मैं प्रजा का सेवक हूँ,
दिल्ली की सड़कों पर
खुले-आम
रहने की, इज़ाजत
दिला दीजियेगा.
बहुत अच्छा लिखा
ReplyDeleteसार्थकता लिए सटीक प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर ...
ReplyDeleteजामुन के बहाने और भी न जाने किस किस की दुखती रग पर आपने हाथ रख दिया है..बहुत अच्छा लगा यह जामुनी लहजा !
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सटीक .......पढके बचपन का वो सादा रहन सहन बहुत याद आया ...
ReplyDeleteबहुत सार्थक रचना ...
ReplyDeleteआधुनिकता की होड़ में हमारा बहुत कुछ खो गया है, छिन गया है हमसे...
ReplyDeleteदिल्ली की सड़कों पर आम लोगों के लिए जगह नहीं है, वहां खास लोगों की भीड़ है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना...डब्बों में पैक ज़िन्दगी|
ReplyDeleteजामुन के द्वारा बहुत गहरे एहसास को व्यक्त किया है आपने. सामान्य जीवन चाहे मनुष्य का हो या प्रकृति का सब कुछ बदला जा रहा.
ReplyDeleteमृदुला जी प्रणाम स्वीकार करें ,आपने पंडित नेहरू जी के संस्मरण वे जामुन के पेड़ की याद दिला दी .
ReplyDeleteआपका लेख या कहूँ रचना प्रकृति की पीड़ा को दरसाता है .
Bahut badaltee hai zindagee...kahan se kahan le jaatee hai....
ReplyDeletejamun to ek mook vastu hai...jab bolne wale insaan par bhi tag lag jate hain aur vairayeti me pesh kiye jate hain to bechare jamun ki kya aukat.
ReplyDeletekalyug he janab.
sunder abhivyakti.
प्रकृति के अपने साथ बदसलूकी सहन नहीं करती , उसका दुष्परिणाम हमारे सामने कभी न कभी आ ही जाता है ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक रचना
बंधन किसे पसंद आया है ...
ReplyDeleteसुंदर प्रभावी कविता ..
एक सांकेतिक रचना ....
सादर !!
सब कुछ बाजार के हवाले हो रहा है । सुन्दर कविता ।
ReplyDeleteआज बाजारवाद ने सब कुछ कितना बदल दिया है..बहुत सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteदिल्ली की सड़कों पर
ReplyDeleteखुले-आम
रहने की, इज़ाजत
दिला दीजियेगा.
बाजारवाद से बचे तब तो ।
बहुत सुंदर अलग सी प्रस्तुति ।
सुंदर..!!!
ReplyDelete