Friday, September 9, 2016

नींद की उगाही ..

आज..
नींद की उगाही पर
चलते हैं ..
रह गयी थी जो
जरा सी बेध्यानी में
कुर्सी के हथ्थों पर ..
जल्दबाज़ी में थोड़ी सी
पुराने सोफे के
गद्दों पर ..
आँगन में धूप से
पटी चारपाई पर
ठहर गयी थी ..
चौखट से लगी
चटाई पर
बिखर गयी थी ..
जिम्मे जो लगाई थी
खिड़की पर
हवा को एक रोज़..
रखी थी रास्ते लिये
सामान के साथ
जो चलते वख़्त ..
साँझ की जुगाली में
जुटे हुये
लम्हों से ..
और ..
पलकों को घेरकर बैठी हुई
तीसरे पहर के
उजालों से ..
नींद की उगाही
करते हैं ..
आज..
नींद की उगाही पर
चलते हैं ..

6 comments:

  1. एक नींद की उगाही के पीछे, इतने सारे दृश्य... मज़ा आ गया! आपकी कविताओं मे इस प्रकार का दृश्य खींच देना, सचमुच एक तस्वीर की तरह लगता है!
    बहुत ख़ूबसूरत!

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  2. वाह ! टुकड़ा-टुकड़ा नींद का यानि पूर्ण विश्राम का..इसे ही जोड़कर तो ध्यान का कालीन बुनना है

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  3. नींद की उगाही में बड़े सुन्दर बिम्ब देखने को मिले ...
    बहुत सुन्दर

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  4. नींद की उगाही पर कहाँ कहाँ भटके ....पर सच में आज कल नींद नहीं आती :) बहुत सुन्दर बिम्बों से सज्जित रचना

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  5. आँगन में धूप से
    पटी चारपाई पर
    ठहर गयी थी ..
    चौखट से लगी
    चटाई पर
    आपकी रचना ..हमेसा कि तरह सबसे अलग है
    ..आपके शब्दों को नमन

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  6. मेरी नींद को बटोरना कभी
    उस सिलवटों भरे बिस्तर से
    उस सोच से जिसमें तू रहता है
    तन्हाई वाले ख्यालों से
    उस तबियत से जो तेरे बगैर रफ्ता रफ्ता बिगड़ रही है
    तेरी यादों के सहारे मध्य काली रात में
    छत पर बिताये लम्हें और दो कस धुंए वाली उस लत से
    जीना जहाँ से दुर्भर हो गया है
    वहाँ से
    बटोरना कभी
    नींद मेरी।


    शब्द मेरे सही व्याख्या नही दे पाएंगे फिर भी
    शानदार कविता।

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