ये दिल्ली है........
यहाँ
दिसम्बर-जनवरी की
रात में,
खुले आसमान के नीचे,
शादियों का
निमंत्रण
आ जाता है......
सच कहूँ.......दहशत
फैला जाता है.
जाऊं-न-जाऊं की
उहापोह,
मच जाती है,
अन्तोगत्वा
हाँ-ही
हो जाती है.
मोजे,कार्डिगन,शाल से
सुसज्जित
मैं,
बिजली की चकाचौंध को
बेधती,
देशी-विदेशी
फूलों के सौन्दर्य पर
रीझती,
वैवाहिक समारोह में
शुभकामनाओं की पोटली
थमाकर,
परिचित चेहरों के पास
जाकर,
इधर-उधर
नज़र दौड़ाती हूँ,
देखिये.......
क्या-क्या पाती हूँ......
'बैरे' 'यूनिफ़ॉर्म' में,
लिए हुए
'ट्रे' में,
'फिश-फिंगर', 'टंगड़ी कबाब',
'मलाई-टिक्का',
'वेज' में.....
'समोसा','स्प्रिंग-रोल',
'पनीर -टिक्का',
जो अच्छी दिखे
खा लेती हूँ,
बुरी.....तो
नहीं उठाती हूँ......फिर
बीसियों रंग-रूप के
'पेय',
भ्रमित कर देते हैं,
सही-ग़लत के
चक्कर में,
अब कौन पड़े......
हम 'कोक' उठा लेते हैं.
शनैः शनैः
भीड़ बढ़ने लगती है,
चमकने लगते हैं
हीरे -मोती -पन्ना
पुखराज,
अलग-अलग 'कौमें'
अलग-अलग
साज़.
नपे -तुले ,
कटे - छंटे,
ज़रूरत से कम
कपड़ों में,
खिलखिलाती औरतें ,
उनसे भी कम में,
मुस्कुराती
लड़कियां.
'स्टेज' पर
'शीला की जवानी'.......का
शोर
और.....दूसरी ओर
चकित
हिरनी सी,
कूदती-फांदती
एक किशोरी,
'चुटकी जो......तूने काटी है.....
की लय पर,
हदों को
पार करने लगती है.....
मैं
खाने के लिए
उठ जाती हूँ......
भांति-भांति के
कस्बे,जाति,प्रदेश का
खाना,
स्वाद और गुणवत्ता से
भरपूर,
संतुष्ट कर देती है
और
वापसी में
एक तुकबंदी करने को,
मजबूर कर देती है........
"है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत पहन
अश्लील जरा से
वस्त्र,
आँखें शर्म से
औरों की
झुकती जा रही है'.....
है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत लगा
होठों से इतने
जाम,
आँखों से तुम्हारे
शर्म
उड़ती जा रही है'........
यहाँ
दिसम्बर-जनवरी की
रात में,
खुले आसमान के नीचे,
शादियों का
निमंत्रण
आ जाता है......
सच कहूँ.......दहशत
फैला जाता है.
जाऊं-न-जाऊं की
उहापोह,
मच जाती है,
अन्तोगत्वा
हाँ-ही
हो जाती है.
मोजे,कार्डिगन,शाल से
सुसज्जित
मैं,
बिजली की चकाचौंध को
बेधती,
देशी-विदेशी
फूलों के सौन्दर्य पर
रीझती,
वैवाहिक समारोह में
शुभकामनाओं की पोटली
थमाकर,
परिचित चेहरों के पास
जाकर,
इधर-उधर
नज़र दौड़ाती हूँ,
देखिये.......
क्या-क्या पाती हूँ......
'बैरे' 'यूनिफ़ॉर्म' में,
लिए हुए
'ट्रे' में,
'फिश-फिंगर', 'टंगड़ी कबाब',
'मलाई-टिक्का',
'वेज' में.....
'समोसा','स्प्रिंग-रोल',
'पनीर -टिक्का',
जो अच्छी दिखे
खा लेती हूँ,
बुरी.....तो
नहीं उठाती हूँ......फिर
बीसियों रंग-रूप के
'पेय',
भ्रमित कर देते हैं,
सही-ग़लत के
चक्कर में,
अब कौन पड़े......
हम 'कोक' उठा लेते हैं.
शनैः शनैः
भीड़ बढ़ने लगती है,
चमकने लगते हैं
हीरे -मोती -पन्ना
पुखराज,
अलग-अलग 'कौमें'
अलग-अलग
साज़.
नपे -तुले ,
कटे - छंटे,
ज़रूरत से कम
कपड़ों में,
खिलखिलाती औरतें ,
उनसे भी कम में,
मुस्कुराती
लड़कियां.
'स्टेज' पर
'शीला की जवानी'.......का
शोर
और.....दूसरी ओर
चकित
हिरनी सी,
कूदती-फांदती
एक किशोरी,
'चुटकी जो......तूने काटी है.....
की लय पर,
हदों को
पार करने लगती है.....
मैं
खाने के लिए
उठ जाती हूँ......
भांति-भांति के
कस्बे,जाति,प्रदेश का
खाना,
स्वाद और गुणवत्ता से
भरपूर,
संतुष्ट कर देती है
और
वापसी में
एक तुकबंदी करने को,
मजबूर कर देती है........
"है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत पहन
अश्लील जरा से
वस्त्र,
आँखें शर्म से
औरों की
झुकती जा रही है'.....
है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत लगा
होठों से इतने
जाम,
आँखों से तुम्हारे
शर्म
उड़ती जा रही है'........
excellent...
ReplyDeleteबहुत रोचक तरीके से कितनी गंभीर बात कह डाली आपने...
बधाई.
अच्छा कंट्रास्ट उपस्थित किया है आपने इस कविता में!! स्वतन्त्रता और आधुनिकता और अश्लीलता के मध्य बड़ी बारीक सी दीवार है.. समझाने वाले समझ गए, जो ना समझें वो अनाड़ी हैं!!
ReplyDeleteआज के भौतिक्वादी युग में मूल्यों की बात बेमानी है, आपकी बात में बहुत लम्बी कहानी है
ReplyDeleteआधुनिकता और अश्लीलता के संदर्भ को आपने बखूबी चित्रित किया है।
ReplyDelete"है नहीं कोई
ReplyDeleteतुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत पहन
अश्लील जरा से
वस्त्र,
आँखें शर्म से
औरों की
झुकती जा रही है'.....
है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत लगा
होठों से इतने
जाम,
आँखों से तुम्हारे
शर्म
उड़ती जा रही है'........
Sach.....bilkul aisehee alfaaz zahan me aate hain aisee sthiti me!
क्या जानदार वर्णन किया है ...
ReplyDeleteवाह,बहुत खूब.
ReplyDeleteकुछ प्रश्नों के उत्तर मांगती हैं यह पोस्ट ......
ReplyDeleteअहो ......क्या सच का तमाचा मारा है आपने ......जब तक हम अपने ही घर की बेटियों को नहीं रोकेंगे ...तब तक कुछ नहीं बदलेगा ........सार्थक लेखनी
ReplyDeleteबहुत ही सच्चा सच्चा लिखा है पुराने संस्कारों को मिटाने की तो
ReplyDeleteआज कल होड सी लगी है ...है नहीं तुम्हारे घर में ..पर घर वालों की सुनता कौन है ..जो सुनते है वो इस हाल तक नहीं पहुचते
इतना सुन्दर लिखने के लिए बधाई
अब तो यह सब सामान्य लगता है कई बार लगता है कि हमीं पुँराने हो गए हैं यहाँ.....
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें आपको !
जब चंडीगढ़ में पोस्टेड था तो इस तरह की कई रातें मजबूरी में गुज़ारनी पड़ी।
ReplyDeleteकोलकाता में राहत है।
aisee dilli bedilon ko mubarak
ReplyDeletesundar chitran
बहुत ही अच्छी रचना .....
ReplyDeleteबदलते वक्त और संस्कारों को बखूबी चित्रित किया है आपने...
ReplyDeleteबहुत सुन्दरता से आपने दिल्ली शहर का चित्रण किया है! मैं तीन साल दिल्ली में नौकरी के दौरान थी और मुझे वो दिन याद आ गए आपकी रचना पढ़कर!
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना। पता नहीं इन्हें सर्दी भी नहीं लगती है क्या?
ReplyDeleteasaliyat bayan kar dali aapne..
ReplyDeleteबहुत सरलता से गम्भीर बात कह दिया...बहुत सुन्दर...
ReplyDeletebahut sunder aur sahi kaha hai pr shayad ab ghr me bhi koi kahna nahi
ReplyDeleterachana
saral sahaj shabdo me samaj ki ek sajiv tasveer samne rakh di apne.
ReplyDeleteचित्र खींच दिया आँखों के सामने आपने शादी की तड़क भड़क का ...
ReplyDeleteबहुत सहजता से बहुत कुछ कह दिया...रोचक प्रस्तुति..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना......
ReplyDeleteमेरे नये पोस्ट लिए काव्यान्जलि..: महत्व .. में click करे
दिल्ली की शादियों का बहुत सटीक वर्णन किया है आपने.. वाकई क्या आजकल कोई रोकता नहीं, कोई टोकता नहीं.. बल्कि आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता अपनाने को प्रोत्साहन ही देते हैं?
ReplyDeleteहै नहीं कोई
ReplyDeleteतुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत लगा
होठों से इतने
जाम,
आँखों से तुम्हारे
शर्म
उड़ती जा रही है'........
....bole bhi aaj kisse ..sunte kahan hai aaj ke bachhe...dheere-dheere sabkuch badalta ja raha hai..
..aaj ke yathrth ko jiwant kar diya aapne is rachna ke madhyam se....aabhar!
..
interesting...
ReplyDeleteदिल्ली ही क्यों अब तो शायद हर शहर मे यही हाल है शादी-पार्टियों का । अच्छा चित्रण है ।
ReplyDeletewah bahut khoob .....dehli hi kya sab jagah yahi hai alam .bahut khoob ukera hai aapne har bat ko
ReplyDeletebadhai . navvarsh ki shubhkamnaye.
bahut sundar aur prabhavshali prastuti...
ReplyDeleteसार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.
ReplyDeleteनूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ मेरे ब्लॉग "meri kavitayen " पर आप सस्नेह/ सादर आमंत्रित हैं.
सुंदर अभिव्यक्ति बेहतरीन सार्थक रचना,.....
ReplyDeleteनया साल सुखद एवं मंगलमय हो,....
मेरी नई पोस्ट --"नये साल की खुशी मनाएं"--
आपको सपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें..
ReplyDeleteनव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
ReplyDelete