Wednesday, May 21, 2014

सन छियासठ में .......

इसे छोड़ दूं तो वो आती हैं .……उसे छोड़ दूं तो ये आती हैं  ,ये यादें भी अजीब हैं.……. पीछा ही नहीं छोड़तीं....... 

सन छियासठ में 
'सिलीगुड़ी' में,कितने कम में 
घर चलाते थे,
एक रूपये का पाव 
मछली खाते थे.……. 
तब दिल्ली कितना 
खुशगवार था,
कलकत्ते में कितना 
प्यार था,
इंगलैंड की सुबह में 
कितना लावण्य था,
कन्याकुमारी की शाम में 
कितना सौन्दर्य था.……. 
कितना रोमैंटिक था 
नील नदी का किनारा 
रातों में,
मज़ा कितना रहता था 
इंडो-सूडान क्लब की 
बातों में.……. 
हाँ-हाँ.…
वो आसनसोल में.…
ऑफिस-कम-रेसीडेंस था,
ऑफिस और घर का 
अगल-बगल 
इन्ट्रेंस था.……. 

8 comments:

  1. समय के साथ परिवर्तन तो होता ही है , हम चाहें न चाहें ।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-05-2014 को चर्चा मंच पर अच्छे दिन { चर्चा - 1620 } में दिया गया है
    आभार

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  3. बहुत सुन्दर

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  4. सच! यादें भी अजीब हैं..

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  5. खूबसूरत यादों का एल्बम..

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  6. सच बहुत खूबसूरत था सन सडसट में सब कुछ । हम भी कितने अलग थे।

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  7. हम तो तब पैदा भी नहीं हुए थे, मगर सन छियासठ इसलिए याद है कि उसी साल मेरे माता-पिता शादी के बंधन में बंधे थे। और वे रहते हैं 'सिलीगुड़ी' में, सो अपना-अपना सी लगी यह कविता :)

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  8. यादें साथ रहती है , सन किसी की भी हो !
    भावपूर्ण !

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