जयपुर के 'गेस्ट-हाउस' से लिखी हुई........एक पुरानी चिठ्ठी मिली तो मन हुआ पोस्ट करने का ............
वहां चलती होगी तुम्हारे
आस-पास.........
आश्विनी बताश
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
यहाँ,
लेने को सांस.
खिड़कियों की जाली से
छनकर आती है,
ताजगी
बाहर ही,
रह जाती है,
रह जाती है,
शीशा खुलते ही
मच्छरों का त्रास
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
यहाँ,
लेने को सांस.
तुम्हें दिखता होगा
सारा आकाश .......
और
यहाँ,
खिड़कियों में
खिड़कियों में
बंधा हुआ
आस-पास,
आस-पास,
दीवारों पर लटकते हुए
'फोटो -फ्रेम' जैसा,
होता है
प्रकृति का एहसास,
तुम घिरी होगी
ठीक जाड़ों के पहलेवाली,
हल्की,सुनहरी
हल्की,सुनहरी
धूप से,
नपी-तुली
सूरज की किरणें यहाँ,
समय के
अनुरूप से,
देखती होगी तुम
गोधूली की बेला,
छितिज का हर पार,
यहाँ,
सबके बीच में
आ जाता है दीवार,
कट जाता है
नीम का पेड़,
नीम का पेड़,
कटती है
चिड़ियों की कतार,
यहाँ,
सबके बीच में
आ जाती है दीवार,
वहां चांदनी रातों को
तुम,
हाथों से
छू लेती हो .....
यहाँ,
कभी आ जाता है,
पल - भर
खिड़की पर चाँद
और सोचती हूँ.......
और सोचती हूँ.......
वहां चलती होगी
तुम्हारे
आस -पास ........
अश्विनी बताश
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
लेने को सांस.
!!!*** शुभकामनाएं***!!!
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ||
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना!
ReplyDeleteबेहद उम्दा रचना।
ReplyDeleteवाह ...बहुत बढि़या ।
ReplyDeleteमृदुला जी!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर... हम तो हर रोज ऐसा ही महसूस करते हैं और सोचते हैं देस में निकला होगा चाँद!! प्र्सताव्ना में यह भी स्पष्ट किया होता आपने कि यह पत्र किसको लिखा गया था.. संबोधन एक नारी का एक नारी से है.. कविता के भावों पर असर नहीं पड़ता इस बात से किन्तु प्रस्तावना देखकर यह जानने की उत्सुकता बढ़ गयी!!
aapki utsukta jankar achcha laga.....yah patr main apni ladki ko jo banglor me padh rahi thi us samay....likhi thi.
ReplyDeletebahut hi bejod bhaw
ReplyDeleteसुन्दर भाव.....
ReplyDeleteहवा भले न मिले मगर आपकी इस ताजगी भरी रचना में भरपूर हवा मिली मंद मंद .. सुखद हवा बधाई
ReplyDeleteऔर सोचती हूँ.......
ReplyDeleteवहां चलती होगी
तुम्हारे
आस -पास ........
अश्विनी बताश
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
लेने को सांस.
बहुत सुंदर और एक चित्र कथा सी बुनती कविता !
आग कहते हैं, औरत को,
ReplyDeleteभट्टी में बच्चा पका लो,
चाहे तो रोटियाँ पकवा लो,
चाहे तो अपने को जला लो,
sundar sugadh rachna...
ReplyDeleteकितनी सुंदर कविता है । वहां चलती होगी अश्विनी वाताश और यहां........ लेने को सांस । प्रकृति से दूर वंचित ह्रदय की आर्त पुकार है ये सहेली को सहेली द्वारा ।
ReplyDeleteकितनी सुंदर कविता है । वहां चलती होगी अश्विनी वाताश और यहां........ लेने को सांस । प्रकृति से दूर वंचित ह्रदय की आर्त पुकार है ये सहेली को सहेली द्वारा ।
ReplyDeleteपराई थाली का भात मीठा...भाई सब जगह एक सी हवा बह रही है...क्या जयपुर क्या कानपुर...कहीं बिल्डिंगों में कैद भी है हवा...
ReplyDeletebahut sunder mridula ji
ReplyDeleteअच्छे से महसूस करके लिखा गया , पुकारा गया । सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअच्छा लगा यहां भी मिलना- दिल्ली के अलावा.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeletebahut sundar kavita ...dhanywaad
ReplyDeletebahut pyari prem bhari paati, komal ehsaas, badhai.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया… भावप्रवण रचना...
ReplyDeleteसादर...
और सोचती हूँ.......
ReplyDeleteवहां चलती होगी
तुम्हारे
आस -पास ........
अश्विनी बताश
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
बहुत बढ़िया रचना… सुंदर प्रस्तुति । ...
सादर...
बड़ी सुन्दर रचना. शहर में फ्लैट में कैद जिंदगी के उदास लम्हों और संताप का अच्छा चित्रण किया है आपने..
ReplyDeleteदीवारों पर लटकते हुए
ReplyDelete'फोटो -फ्रेम' जैसा,
होता है
प्रकृति का एहसास,
सुन्दर विम्ब!
आपके ब्लोग की चर्चा गर्भनाल पत्रिका मे भी है और यहाँ भी है देखिये लिंक ………http://redrose-vandana.blogspot.com
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