संस्कारों के धज्जियों की धूल,
जब उड़-उड़ कर
पड़ती है.....आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......तब,
मूंदकर चुप-चाप,
कपड़े का बनाकर
भाप,
भाप,
सेक लेते हैं, अपने आप
निरुपाय
माँ-बाप......
एक कृत्रिम हंसी से
सुसज्जित,
उनके चेहरे के पीछे का
दर्द,
दर्द,
परदे में रह जाता है.....
और
आधुनिकता के प्रकोप से
लहलहाते हुए
शोर में......
उनका हर दुःख
अदृश्य हो जाता है........
बताइए ,
आपको कभी दीखता है?
और
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
आधुनिकता के शिकार केवल माँ बाप ही नहीं होते आज की युवा पीढ़ी भी इसका खामियाजा भुगत रही है,आधार हीन हो गयी है जिंदगी, लेकिन हमें केवल मूक दर्शक बन कर नहीं रहना है, दुःख की कीमत पर भी सत्य की मशाल जलाये रखनी है.
ReplyDeleteआपको कभी दीखता है?
ReplyDeleteऔर
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
बहुत अच्छा लिखा है मृदुला जी ..
दीखता तो मुझे भी है और परेशान भी करता है ....
रास्ते खोजते भी है कैसे इस परेशानी से निकला जाये ...!!
सार्थक लेखन के लिए बधाई ..!!
आधुनिकता के प्रकोप से
ReplyDeleteलहलहाते हुए
शोर में,
उनका हर दुःख ,
अदृश्य
हो जाता है........
सार्थक प्रश्न करती रचना ... अनिता जी कि बात विचारणीय है
आधुनिकता का प्रकोप हमारी पीढ़ी को अधिक दीखता है और उससे होने वाले प्रभावों से आँख में पानी और फिर उसको सुखाने के लिए कपड़े को मुँह से लगा कर भाप बना कर सेंकने के अतिरिक्त कोई और रास्ता भी नहीं है. हम पिछड़ों की श्रेणी में आ चुके है ये पीढ़ी अंतराल है या कुछ और.
ReplyDeleteअच्छी लगी रचना !
ReplyDeletesahi hai aajkal sanskaaron ki dhajjiyan hi to ud rahi hai aadhunikta ke naam par.aur hum asamarth nai peedhi ki soch ke aage jhukte jaa rahe hain.
ReplyDeletebahut achche vishay par likhne ke liye badhaai.
संस्कारों के
ReplyDeleteधज्जियों की
धूल,
जब उड़-उड़ कर,
पड़ती है
आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......
kitna kuch is pani me hai
आपको कभी दीखता है?
ReplyDeleteऔर
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
अनीता जी ने भी ठीक कहा ,रेखा जी ने उसे आगे बढाया , हमें भी दीखता है या यूं कहू सबको दीखता है पर न देखने का ठीकरा परिष्ठितियो पर फोड़ने के हम माहिर जो है . सार्थक प्रश्न उठIती सुन्दर कविता,साधना जी बधाई
आदरणीय मृदुला जी
ReplyDeleteनमस्कार !
चेहरे के
पीछे का दर्द,
परदे में
रह जाता है
और
आधुनिकता के प्रकोप से
लहलहाते हुए
शोर में,
उनका हर दुःख ,
अदृश्य
हो जाता है....
सार्थक प्रश्न करती रचना बहुत अच्छा लिखा है
संस्कारों की धज्जियां उड़ाता आज का समाज ...बहुत सार्थक और विचारणीय रचना
ReplyDeleteएक कृत्रिम हंसी से
ReplyDeleteसुसज्जित,
उनके
चेहरे के
पीछे का दर्द,
परदे में
रह जाता है
sahi kaha aapne .sochne par majbur karti kavita
badhai
rachana
कटु सत्य....
ReplyDeleteबखूबी वर्णित....
beautiful presentation of current scenario of blind westernisation prevailing in our society.
ReplyDeleteIts a debatable issue and must be brought out.
I think ppl should modernise their thoughts along with their apparels and living style.
आधुनिकता के प्रकोप से
ReplyDeleteलहलहाते हुए
शोर में,
उनका हर दुःख ,
अदृश्य
हो जाता है........
बेहतरीन ।
बताइए ,
ReplyDeleteआपको कभी दीखता है?
और
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
क्योंकि संस्कार रूपी चश्मा हर किसी के पास कहाँ होता है……………बेहद उम्दा ।
बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन और लाजवाब रचना
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सार्थक प्रश्न .. सुन्दर रचना
ReplyDeletebeautifully written Mridula ji .
ReplyDeleteआपको कभी दीखता है?
ReplyDeleteऔर
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
ati uttam , swaal to laazwaab hai
bahut badhiya mridula ji
ReplyDeleteसंस्कारों के
ReplyDeleteधज्जियों की
धूल,
जब उड़-उड़ कर,
पड़ती है
आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
Bahut sunder rachna!
संस्कारों के
ReplyDeleteधज्जियों की
धूल,
जब उड़-उड़ कर,
पड़ती है
आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......
आज के समाज का कटु सत्य, सार्थक प्रश्न, बेहतरीन प्रस्तुति
हर रोज दिखती है
ReplyDeleteइसी प्रकार चिंदी चिंदी होती परम्पराएं,
कलुषित होता गौरव
माँ बाप के चेहरे पे सजी कागज़ी फूलों की हंसी
चुप हो जाता हूँ
सहम जाता हूँ
सोचता हूँ
मन ही मन प्रार्थना करता हूँ
एक बेटी का बाप हूँ ना!!
मृदुला जी, बहुत ही भाव पूर्ण रचना!!
लाजवाब रचना!
ReplyDeleteहम तथाकथित आधुनिक हो गए हैं तो संस्कार और परंपराएं तो चुभेंगी ही, हां आंखे बंद कर मनमानी करेण तो शायद न चुभे।
ReplyDeleteकटु सत्य, सार्थक प्रश्न, बेहतरीन प्रस्तुति ....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर मृदुला जी । माँ बाप अपना दर्द आँसुओं में बहाने की कोशिश करते हैं पर बहता कहां है वह, टीस बन कर चेहरे पे छा जाता है तभी आप जैसे हम जैसे कुछ लोगों को नजर आ जाता है ।
ReplyDeleteसुसंस्कारों के क्रमिक ह्रास की भावपूर्ण अभिव्यक्ति..........विचारणीय रचना
ReplyDeleteसटीक प्रश्न.बहुत अच्छा लेखन
ReplyDeleteआपको कभी दीखता है?
ReplyDeleteऔर
मैं परेशान हूँ
कि
मुझे क्यों दीखता है?
सार्थक प्रश्न, बेहतरीन प्रस्तुति ....
बहुत अच्छा लिखा है मृदुला जी ..
संस्कारों की धज्जियां उड़ाता आज का समाज
ReplyDeleteye sahi hai koi bhi apne ghar mai khush nhi hai bas bagal mai ladki kya gul khila rahi hai iske bare mai jyada nazar rakhi jati hai..
mai kabhi apne parents k khilaf nhi gayi..iske baad bhi samaj ne mujh par dabaav banaya..ladki mai chahaye jitne gun ho samaz tang karta hai.
Aisa dekhane ke liye bhi najar chahiye....varna sab andhe hokar hi je lete hain....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति,सार्थक प्रश्न....
ReplyDeleteसार्थक सुगढ़ दिल को छूती रचना....
ReplyDeleteसादर.
सार्थक प्रश्न करती रचना ..बहुत सुन्दर...
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