धड़कनों की तर्ज़ुमानी,
अ़ब किताबों में
रखा है ,
मैंने भी वह
शीत चखा है .
नील-स्वप्न,स्वछंद,सुवासित
पंख जहाँ
खुलते थे,
तरुण मलय के
पत्तों पर,
किरणों के रस
घुलते थे ,
अनिल द्वार पर
दस्तक देकर,
सौरभ रख जाता था ,
कलियों का परिधान
इत्र के, मेले में
आता था.
स्वर्ण-सुरा की मदिरा
पी-पी कर
गुलाब खिलते थे,
अलि गुंजन की लय
सुन-सुन कर,
धूप-छांव बुनते थे,
प्रथम पहर के
अमृत से ,
शचैल- स्नान होता था,
रात सितारों की
महफ़िल में,
आमंत्रण रहता था,
कभी वसंती द्रुम-दल के
पीछे-पीछे,
हल्के-हल्के से पाँव,
रखा है,
मैंने भी वह
शीत चखा है.
अ़ब किताबों में
रखा है ,
मैंने भी वह
शीत चखा है .
नील-स्वप्न,स्वछंद,सुवासित
पंख जहाँ
खुलते थे,
तरुण मलय के
पत्तों पर,
किरणों के रस
घुलते थे ,
अनिल द्वार पर
दस्तक देकर,
सौरभ रख जाता था ,
कलियों का परिधान
इत्र के, मेले में
आता था.
स्वर्ण-सुरा की मदिरा
पी-पी कर
गुलाब खिलते थे,
अलि गुंजन की लय
सुन-सुन कर,
धूप-छांव बुनते थे,
प्रथम पहर के
अमृत से ,
शचैल- स्नान होता था,
रात सितारों की
महफ़िल में,
आमंत्रण रहता था,
कभी वसंती द्रुम-दल के
पीछे-पीछे,
हल्के-हल्के से पाँव,
रखा है,
मैंने भी वह
शीत चखा है.
मृदुला जी
ReplyDeleteइस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए बधाई
कविता में आपकी गहरी संवेदना, अनुभव और अंदाज़े बयां खुलकर प्रकट हुए हैं।
ReplyDeleteअ़ब किताबों में
ReplyDeleteरखा है ,
मैंने भी वह
शीत चखा है .
नील-स्वप्न,स्वछंद,सुवासित
कितना सटीक अभिव्यक्त किया है अपने भाव को .....बहुत बढ़िया
एक अच्छी रचना पढ़ने को मिली, बधाई.
ReplyDeleteकभी वसंती द्रुम-दल के
ReplyDeleteपीछे-पीछे,
हल्के-हल्के से पाँव,
रखा है,
मैंने भी वह
शीत चखा है.
बहुत सुन्दर ...
नील-स्वप्न,स्वछंद,सुवासित
ReplyDeleteपंख जहाँ
खुलते थे,
तरुण मलय के
पत्तों पर,
किरणों के रस
घुलते थे ,
मन को विभोर कर देने वाली रचना ....सुन्दर शब्दों से सजाई है ...
बहुत सुंदर रचना धन्यवाद
ReplyDeleteऔर मैंने भी.....(वह शीत चखा है)
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना........
आप हमारे ब्लॉग मै आई उसके लिए बहुत शुक्रिया दोस्त और इसी वजह से मुझे भी इतने अच्छे ब्लॉग मै आने का मोका मिला !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एहसासों से भरी रचना !
very very very beautiful...its like a song...zubaan pe chipak gaya ab..maine bhi vo sheet chakha hai...tooo good :)
ReplyDeleteमैंने भी वह
ReplyDeleteशीत चखा है.
kuch mujhe bhi mil jaye
ऐसे शब्द और भाव...बहुत कम देखने को मिलते हैं...इस अप्रतिम रचना के लिए बधाई स्वीकार करें...
ReplyDeleteनीरज
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्द ।
ReplyDeleteबेहद मनभावन रचना।
ReplyDelete'मैंने भी शीत चखा है '
ReplyDeleteगहरी संवेदना ,गहन अनुभूति और सुन्दर भावों से सजी रचना ....
अभिव्यक्ति मनमोहक ...
सुंदर शब्दावली!
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति है.विचार माला की तरह गुंथे हुए हैं.शुभ कामनाएं
ReplyDeleteadbhut !
ReplyDeleteउत्तम प्रस्तुति. शुभकामनाएँ...
ReplyDeleteनूपुर की तरह बजते हैं शब्द और संगीत का अनुभव कराती है यह कविता...
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना आज मंगलवार 18 -01 -2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/402.html
khubsurat bhav..........
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteनील-स्वप्न,स्वछंद,सुवासित
ReplyDeleteपंख जहाँ
खुलते थे,
तरुण मलय के
पत्तों पर,
किरणों के रस
घुलते थे ,
अनिल द्वार पर
दस्तक देकर,
सौरभ रख जाता था ,
कलियों का परिधान
इत्र के, मेले में
आता था.
मृदुला जी, बहुत ही सुंदर शब्दों व भावों से सजी बेहतरीन, अनूठी, अप्रतिम रचना .
शानदार ! अच्छा हो अगर आप कुछ अल्फ़ाज़ों के मायने लिखें !
ReplyDeleteपत्तों पर,
ReplyDeleteकिरणों के रस
घुलते थे ,
अनिल द्वार पर
दस्तक देकर,
सौरभ रख जाता था ,
कलियों का परिधान
इत्र के, मेले में
आता था।
कोमल भावों से युक्त एक सशक्त रचना।
कविता में आपकी उच्च स्तरीय काव्य प्रतिभा स्पष्ट झलक रही है।
सुन्दर , सरस एवं बेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteस्वर्ण-सुधा की मदिरा
ReplyDeleteपी-पी कर
गुलाब खिलते थे,
अलि गुंजन की लय
सुन-सुन कर,
धूप-छांव बुनते थे,
अति उत्तम भाव अभिव्यक्ति -
बहुत कोमल सुंदर रचना -
शुभकामनायें
पूरा मामला ही आपने वासंती बना दिया....मजेदार....
ReplyDeleteदेखिये ऋतुराज!आपके स्वागत में हम तैयार खड़े हैं......
Mridula ji ati uttam rachna kliye aapko badhai
ReplyDeletebehtreen varnan.....
कोमल भावों और शब्दों से सजी प्रस्तुति है आपकी पोस्ट पढ़कर मैं भी अब कह सकती हूँ "मैंने भी वो शीत चखा है "
ReplyDeleteप्रथम पहर के
ReplyDeleteअमृत से ,
शचैल- स्नान होता था,
रात सितारों की
महफ़िल में,
आमंत्रण रहता था ....
बहुत खूब ... शब्दों का बेहतरीन जाल बुना है .. बहुत कोमल भाव संजोय हैं ..
अति उत्तम भाव ,सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधड़कनों की तर्ज़ुमानी,
ReplyDeleteअ़ब किताबों में
रखा है ,
स्वर्ण-सुधा की मदिरा
पी-पी कर
गुलाब खिलते थे,
रात सितारों की
महफ़िल में,
आमंत्रण रहता था,
प्रेम रस की सुधा पी खिले गुलाब सी ...
सुकोमल कविता .....!!
कलियों का परिधान
ReplyDeleteइत्र के, मेले में
आता था.
स्वर्ण-सुरा की मदिरा
पी-पी कर
गुलाब खिलते थे,
वाह ,नए विम्बों का अभिनव प्रयोग !
शब्द पटल पर भावों का मनोहारी , दुर्लभ चित्र !
इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें !
सुंदर भाव,अच्छी रचना.
ReplyDeletelo kar lo baat.....aapke shabdon men chhakh liyaa hamne bhi sheet kaa swaad.......
ReplyDeleteअच्छी रचना
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