Sunday, January 30, 2011

नीँद थी एक रोज़ जल्दी खुल गयी......

नीँद थी
एक रोज़  जल्दी
खुल गयी
औ' दृश्य बाहर था
दिखा जो,
कुसुम कलियों से
अलग था,
पुलिन-पंकज से
परे था.
दो मज़ूरे
जोड़-कर लकड़ी का चुल्हा,
सामने ही बन रहे
एक पार्क में,
जठराग्नि को,
शांत करने के लिये
कटिबद्ध थे.
पक रही थी रोटियां,
सिंक रही थी रोटियां,
फुल रही थी रोटियां
और
रह-रह कर
वहाँ से,
उठ रहा था
कुछ धुआँ.
कट रहे थे फाँक, आलू
टोकरी भर,
कुछ मसालों की वहीं
पुड़िया पड़ी थी,
एक शीशी
तेल की,
अकड़ी खड़ी थी.
दो मज़ूरे और आये,
लकड़ियों की गठ्ठरें
सर पर उठाये,
फेंक बोझा
थक, जरा लेटे
उठे, बैठे
कि शायद...
बस ज़रा खाकर ही
कोई
काम होगा .
रोटियों के थाक को
कपड़े से ढककर,
तेज़  चूल्हे पर
कड़ाही को चढ़ाकर,
छौंकने की
छन्न से है
आवाज़  आई,
एक-दो लकड़ी हटाकर,
आँच को
धीमी बनाई.
दो मज़ूरे और निकले
टेंट से
जो नीम के नीचे लगा है,
पार्क में .......
वे अभी तक
सो रहे थे.....
हो कि शायद
रात कल,
रोटी
उन्होंने ही बनाई.
पेड़ की डाली
झुकाकर
एक, डंठल तोड़कर
मुँह से लगाया,
दूसरे ने
टीन का
लंबा कनस्तर,
रख के
चांपा-कल चलाया
और
इतने में
ज़रा जल्दी से हमने,
चाय
अपनी थी बनाई.
थाक रोटी की
बड़ी सोंधी नरम,
लिपटे मसालों में बना
आलू गरम,
बैठकर एक झुंड में,
सब खा रहे थे
और
चांपा-कल का पानी,
हाथ का दोना
बनाकर,
पी रहे थे….
और इस आधार पर ही
आज हमने,
गर्म रोटी,
काट आलू, फाँक वाले
थी बनाई....
पर न कोई स्वाद आया,
फिर मुझे
यह याद आया,
क्योंकि चूल्हा गैस का था
और
पानी की कहूँ क्या,
'फ्रिज' में
परसों का रखा था.

42 comments:

  1. आपने तो मुंह में पानी ला दिया..

    मुझे माँ और दादी के हाथ के बने खाने की याद आ गई

    जो लकड़ी के चूल्हे पर बनता था और कुएं का ठंडा पानी...

    अब वो दिन नहीं रहे...पर स्वाद अभी तक ताज़ा है..

    मेरी ही तरह हम में से कितने लोग उस स्वाद को अभी भी

    भूल नहीं पाए होंगे...

    लेकिन आप की रचना ने उस रोटी और फांक वाले मसालेदार आलू के साथ पुराने स्वाद को परोस दिया है...

    बहुत ही स्वादिष्ट रचना है आपकी ...

    धन्यवाद..!!

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छी कविता है। आपकी तुलना भी वाजिब है। मजदूर की मेहनत और पसीने का स्वाद भी ईर्ष्या योग्य है।
    बधाई।

    ReplyDelete
  3. आदरणीय मृदुला जी
    नमस्कार !
    बहुत खूब .......बहुत ही लजवाब रचना है

    ReplyDelete
  4. .....प्रशंसनीय रचना
    अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें।

    ReplyDelete
  5. बहुत अच्छी रचना..
    जो खाना हमारे लिए पुराना लाजवाब स्वाद है, वही किसी की मजबूरी है...

    ReplyDelete
  6. Maja aa gaya,kya khub likha hai aapne..atisundar.

    ReplyDelete
  7. बहुत खुब जी, पानी मे बर्फ़ भी डाल लेती तो ज्यादा अच्छा था :)
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  8. उस खाने का स्वाद अब नही मिलता ... उसमें प्यार की खुश्बू भी तो होती थी ...
    वैसे मुँह में पानी आ गया ......

    ReplyDelete
  9. मृदुला जी!
    बस आज तो खड़े होकर ताली बजाने को जी चाह रहा है! जो स्वाद उन मजूरों के खाने में आया, वही आपकी इस नज़्म में भी है!!

    ReplyDelete
  10. बहुत सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत करती है आपकी यह सुन्दर रचना!वाह!

    ReplyDelete
  11. Aaj khud mujhe aaloo tamatar ka saag bananeka man hone laga hai!

    ReplyDelete
  12. कविता का कोई जबाब नहीं ...बस पढ़ते जाओ बार बार ....

    ReplyDelete
  13. "एक शीशी
    तेल की,
    अकड़ी खड़ी थी."
    बहुत ही आम दृश्य है ये मजदूरों की रसोई की.....ये तेल की प्लास्टिक की बोतलें ताप से पिघल के जम जाती हैं.....
    काफी कहानी कहती आपकी कविता....

    ReplyDelete
  14. वैसा स्वाद कैसे आता ?
    बहुत बढिया प्रस्तुति...

    ReplyDelete
  15. बहुत सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत करती है आपकी यह सुन्दर रचना| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  16. आपने जो दृश्य खींचा है,बहुत यथार्थ है उसमे.
    मेह्नत की सुगंध से खाना सुस्वादु बन जाता है.
    आप की यथार्थवादी अभिव्यक्ति के लिए बधाई.

    ReplyDelete
  17. पर न कोई स्वाद आया,
    फिर मुझे
    यह याद आया,
    क्योंकि चूल्हा गैस का था
    और
    पानी की कहूँ क्या,
    'फ्रिज' में
    परसों का रखा था.

    आधुनिकता की सच्चाई को आपने बड़ी खूबसूरती से शब्दों में ढाला है !

    मृदुला जी, सुन्दर ,भावमई अभिव्यक्ति के लिए आभार !

    ReplyDelete
  18. मृदुला जी आपकी यह कविता श्रमरत लोगों के जीवन के अनेक संदर्भों को उजागर करने का सयास रूपक है। कविता में जीवन की सुगंध, रसोई, रोटी, चूल्हा, चापाकल आदि के रूप में प्रकट हुए हैं, और ऐसा लग रहा है कि विचार इस रूप में हैं, जिनमें गुथी जीवन की कडि़यां कानों में स्‍वर लहरियों की तरह घुलने लगती है। कविता में आपकी गहरी संवेदना, अनुभव और अंदाज़े बयां खुलकर प्रकट हुए हैं। इसमें शांत बुनावट है, कहीं कोई हड़बड़ी या अतिरिक्त आवेश नहीं है।

    ReplyDelete
  19. आपकी पैनी नजर से कुछ भी नहीं बच पाया, गैस पर बने भोजन का स्वाद न आया हो पर आपने मजदूरों के साथ एक होकर उनके भोजन का स्वाद तो हमें भी महसूस करा दिया!

    ReplyDelete
  20. बहुत सुन्दर रचना..पसीने से कमाई रोटी का स्वाद ही अलग होता है..

    ReplyDelete
  21. सुन्दर रचना,..आभार.

    ReplyDelete
  22. मृदुला जी,

    आपकी इस पोस्ट के लिए आपको मेरा सलाम.......बहुत ही खूबसूरती से आपने इस मंज़र को बयां किया है......सुन्दरतम.....ये लाइन बहुत अच्छी लगी....

    कुछ मसालों की वहीं
    पुड़िया पड़ी थी,
    एक शीशी
    तेल की,
    अकड़ी खड़ी थी.

    ReplyDelete
  23. मृदुला जी इस विलक्षण रचना के लिए साधुवाद स्वीकारें...

    नीरज

    ReplyDelete
  24. बहुत अच्छी रचना.

    ReplyDelete
  25. स्वाद के मायने बदल जाते है।

    ReplyDelete
  26. बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति!

    ReplyDelete
  27. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई!
    मंगल कामना के साथ.......साधुवाद!
    सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

    ReplyDelete
  28. अत्यंत प्रभावी रचना

    ReplyDelete
  29. आपकी यह कविता, हमारे देश के तमाम मज़दूरो का हाल बयाँ करते है, जो रूखा सूखा खाकर भी चैन की नींद सोते है । बहुत ही सादगी से लिखी आपकी यह कविता दिल को छू गई । सुन्दर प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  30. कविता सादी सच्ची पर दिल को छूती है ।कहावत है कि भूख मीठी कि रोटी । कोई चीज कितनी स्वादिष्ट या मूल्यवान है इसका आकलन इससे होता है कि वह कितने प्रयास व परिश्रम से मिली है ।

    ReplyDelete
  31. वाह क्या बात है...
    फ्रिज में पानी परसों का था
    बहुत सुंदर ....
    सीधी, सरल और प्यारी रचना

    ReplyDelete
  32. Seedhi saral sabdo me dil ko chu gayi

    ReplyDelete
  33. मृदुला जी आपकी यह कविता जीवन के उस दृश्य को दिखाती है जो आम तौर पर हमारे आस पास तो होती है लेकिन हम उसे या तो देखते नहीं या फिर देख कर अनदेखी कर देते हैं... शहरी जीवन की व्यथा अंतिम पंक्तियों में उजागर हो गई है.. सुन्दर...

    ReplyDelete
  34. .

    नींद थी एक रोज़ जल्दी खुल गयी / अपनी ही जीवन शैली की / पोल खुल गयी.

    बेडरूम यूज़र की 'सुबह' / पेड़ तले बसे लेबर की / 'सुबह' के बनिस्पत / देर से / मतलब / आठ बजे / लॉग ऑन होती है.
    तब तक / वातायन से अवलोकित / 'लेबर-मोर्निंग' / शहरी सड़कों के किनारे / मुँह अँधेरे ही / 'फ्रैश' हो चुकी होती है.

    फिर 'वही' / संवेदनशील / कवि-मस्तिष्क / नाक-मुँह सिकोड़कर / निकलता है उन्हीं यूज्ड सड़कों से / कोसता हुआ —
    'नोनसेन्स, न जाने कहाँ से आ बसे हैं सब के सब.

    "एक चित्र सुन्दर / तो एक भदेस."
    लगता है / भदेस समझे जाने वाले कृत्यों के बाद ही / जन्म पाते हैं भद्र और प्राकृतिक प्रेरक भाव. ..
    ______________
    ... अन्य पाठकों की टिप्पणियाँ भी मुझे अपनी-सी लगीं.

    .

    ReplyDelete
  35. भावपूर्ण प्रभाव शाली jeevant shabd चित्र ...

    marmsparshee कविता....आनंदित कर गयी...

    बहुत बहुत aabhaar ...

    ReplyDelete
  36. bahut sundar sarthak rachna .......

    ReplyDelete