Sunday, April 27, 2014

रच नहीं पाती मैं .......

रच नहीं पाती मैं 
बेबाक,बिंदास,तुकांत,
अतुकांत, 
'तहलका' मचानेवाले 
शब्दों के सौजन्य से,
कोई एक कविता......
विफल हो जाता है मेरा 
हर प्रयास,
इनकार कर देती है 
कलम,चलने से........ 
या फिर.…फैल जाती है 
स्याही कागज़ पर,
सारे लिखे को 
धुँधला कर देती है.…… 
ढूंढती हूँ जी-जान से
उन अक्षरों को,
शब्दों को,भावों को 
जुटाये थे जो.……
कितने जद्दो-जहद के बाद.…… 
लेकिन 
मालुम तो है आपको,
फिर से वही-वही बात 
नहीं बनती......
नामुमकिन होता है 
बार-बार 
कलम को मनाना,
चिरौरी-मिन्नतें करना,
जबरदस्ती लिखबाना.....तो 
क्षमा कीजियेगा....
रच नहीं पाती मैं 
एक ऐसी कविता जो 
खून को खौला दे..... 
शीशा को पिघला दे.….
बबाल मचा दे.…… 
मालुम तो है आपको 
हर एक की 
अपनी-अपनी सीमा होती है........  
   

Sunday, April 20, 2014

जिसकी हमें तलाश है........

नारी के उत्थान ,अधिकार और सुरक्षा  के लिए ज़रूरी है कि पुरुष को साथ लेकर चला जाये न कि उनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ आंदोलन करते हुये...... नारी विमर्श से उठी समस्याओं का समाधान विरोध में नहीं,बात-चीत में है,यहीं से सकारात्मक वातावरण निकलेगा......जिसकी हमें तलाश है........

Thursday, April 10, 2014

जूही-बेला की पंखुड़ियों में.......

जूही-बेला की 
पंखुड़ियों में 
लिपटी हुई शाम.…… 
रजनीगंधा के किनारे,
चंपा,चमेली,रात-रानी का 
सानिध्य......
बारों-छज्जों पर 
वसंत-मालती का 
अल्हड़पन......
इठलाता मुंडेर पर 
लाल-पीला 
वोगन-विलिया.....
तुम ही कहो,
मुझे कश्मीर की 
वादियों से
क्या लेना.......  
 

Tuesday, April 8, 2014

शाख-ए-गुल से.......

शाख-ए-गुल से 
ये मैंने 
कहा एक दिन.…… 
अपनी खुशबू तो दे दो 
मुझे भी जरा 
कि लुटाऊँगी मैं भी 
यहाँ-से-वहाँ......
कुछ झिझकते हुए 
उसने हामी भरी.…… 
फिर कहा,मित्र 
लेकिन.....
सिखा दो मुझे 
पहले 
अपनी तरह तुम 
ये  चलना  मुझे भी 
यहाँ-से-वहाँ......

Thursday, April 3, 2014

तुम्हारी खामोशियों की सतह पर.......

तुम्हारी खामोशियों की 
सतह पर....... 
छूट दे रखी है 
मैंने,
अपने प्रश्नों को 
बैठने की…… 
शब्दों को 
टहलने की…… 
कि एक तारतम्य तो 
बना रहे…… 
जैसे भी हो…… 

जाने कैसे पता चल जाता है......

जाने कैसे 
पता चल जाता है
मेरी कविताओं को 
मेरा उदास होना.....
आने लगती हैं 
झुंड-के-झुंड
किताबों के पन्नों से,
डायरी की 
काट-छाँट से,
मुड़े-तुड़े कागज़ की 
तहों से....... 
घुमाने,हँसाने,बहलाने.
ले आती हैं,
लुभावने शब्दों के
मनमोहक पिटारे
कि 
चुन-चुन कर सजाऊँ ……
थमा देती हैं 
हाथों में 
कागज़-कलम-दवात 
कि 
कल्पनाओं में 
पंख लगाऊँ......
और …… मैं 
भावों की रस-वीथि में 
विचरती हुई,
डूबती हुई,
उतराती हुई,
पुनः 
लिखने की कोशिश में 
लग जाती हूँ 
कि कर्ज़ है मुझपर 
कविता का…… 
तो फर्ज़ मेरा भी है, 
निभाती हूँ……