Thursday, October 28, 2010

नहीं चाहती ..........

नहीं चाहती ..........
तुम्हारी तस्वीर को 
माला पहना दूं ,
अगरबत्ती दिखा दूं ,
फूल चढ़ा दूं और
जो दूरी............
तुम्हारे-हमारे बीच
दुर्भाग्यवश,
बन गयी है,
उसे  और बढ़ा दूं.
नहीं चाहती.............
नियम-कानून से
बना-बनाकर
अनबूझ पहेलियाँ,
हल निकालूँ ,
सुनी-सुनायी
जहाँ-तहां की,
जिनकी-तिनकी,
मन में पालूँ
और
सोचने,चाहने,
याद करने की
अभ्यस्त
जिस छवि की,
उसे ही
बदल डालूँ.
प्रहार कर
अपनी छमता पर,
व्यथा को,
दिखाना नहीं चाहती........
यादों को सहेजने की,
कोई और पद्धति,
अपनाना नहीं चाहती........

Tuesday, October 19, 2010

माँ सरस्वती........

मणि माला धारण किये,
कर कमलों में
वीणा लिए,
हंस के सिंघासन पर
विराजती,
माँ सरस्वती.........
दे देना
वरदान,
एक ऐसी
विलक्षण शक्ति का
जो
भरती रहे स्फूर्ति,
सहज ही
मेरे तन मन में.
कर देना सराबोर,
एक ऐसी
भक्ति से,
जो
जागृत रखे,
मेरे चेतना को,
असीम
संतुष्टि से.
जगाये रखना
मेरे मन में,
निर्भय विश्वास का
मन-वांछित
उल्लास,
आप्लावित
करते रहना
मेरे विवेक को,
अपनी
सुदृढ़ क्षमताओं के
वरद
हस्त से,
तुम्हारे
आलौकिक प्रकाश के
माध्यम से,
सुगम होती  रहें
मेरी
जटिलतायें,
तुम्हारी
सौहाद्रता का अंकुश,
तेज धार बनकर           
तराशती रहें
मेरी
अनुभूतियों को,
अचिन्त्य रहे
मेरी भावनाओं में,
तुम्हारा
कोमल स्पर्श,
आभारित रहे
मेरे अंतर्मन का
पर्त-दर-पर्त, 
तुम्हारी
अनुकम्पाओं  से          
और
सुना सकूँ तुम्हें
जीवन भर,
कविताओं में भरकर,
तुम्हारे दिए हुए
शब्दों के पराग,
तुमसे मिली
आस्थाओं की
पंखुडियां
और
तुम्हारे स्वरों से
मुखरित,
अनगिनत
गुलाब.

Tuesday, October 12, 2010

तब मैं व्यस्त रहता था..........

तब मैं व्यस्त रहता था..........
यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ
और फिर वहाँ से वहाँ,
कुछ सुनता था,
कुछ नहीं सुनता था,
कुछ कहता था,
कुछ नहीं कहता था
पर तुम जो कहती थी,
कुछ प्यार-व्यार जैसा,
वो फिर से कहो न ।
मैं जगा-जगा सोता था,
मेरी पलकों पर
तुम, करवटें बदलती थी,
मैं जहाँ कहीं होता था,
तुम्हारी सांस,
मेरी
सांसों में, चलती थी ।
तुम आसमान में
सपनों के, बीज बोती थी,
अलकों पर
तारों की जमातें ढ़ूंढ़ती थी,
घूमता था मैं,
तुम्हारी कल्पनाओं के, कोलाहल में,
स्पर्श तुम्हारी हथेलियों का,
मेरे मन में कहीं,
रहता था ।
तुम शब्दों के जाल
बुन-बुनकर, बिछाती थी,
मैं जाने-अनजाने,
निकल जाता था,
तुम्हारे कोमल, मध्यम और
पंचम स्वरों का
उतार-चढ़ाव,
मैं कभी समझता था,
कभी नहीं समझता था,
तब मैं व्यस्त रहता था,
यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ
और फिर वहाँ से वहाँ,
कुछ सुनता था,
कुछ नहीं सुनता था,
कुछ कहता था,
कुछ नहीं कहता था,
पर तुम जो कहती थी,
कुछ प्यार-व्यार जैसा,
वो फिर से कहो न ।

Sunday, October 3, 2010

माज़ी के समानों में........

माज़ी के समानों में,

हमको भी
रखे रहना,
सीपी की डिब्बियों में,
हमको भी
रखे रहना.
बचपन
की किताबों पर
छापी हुई तितली में,
कागज़ के पुलिंदों को
बाँधी हुई डोरी में,
कंडे की कलम,
टिकिया, स्याही की
कोई सूखी,
कॉपी के फटे पन्ने,
तारीख़
तब की लिखी.
सिक्का कोई पुराना
छिट-पुट सी
पर्चियों में,
अबरख का एक टुकडा
अम्मा की चिट्ठियों में,
अंगूठियों से निकला,
कोई नगीना
तब का,
हुक्के की कोई
टोंटी
नाना की गुडगुडी का.
पॉकेट घडी से झूलती,
चेनों में रखे रहना,
आँखों के खारेपन में,
हम को भी
रखे रहना.
नुस्खा दवाईयों का
लिखा हुआ
पिता का,
दावात संगे-मर्मर
दादा के ज़माने का,
एक ज़ंग लगी
सुई,
एक रंग लगा
बटुआ,
झोले में रखा
डंडा, आजादी का
तिरंगा,
एक चाभियों का
गुच्छा,
एक सुर्ख लाल मोती,
धागों की
पोटली में,
छोटा का एक
चुम्बक...
चुम्बक के किनारों पर
हमको भी
रखे रहना
माज़ी के सामानों में,
हमको भी
रखे रहना...............