Saturday, August 27, 2011

अन्ना जी के मस्तक पर..........

अन्ना जी के मस्तक पर
अभिषेक
उषा की लाली से,
कुंदहार, नीलाभ वसन
 शोभित ललाट,
उजियाली से.
मलय-गिरी के
सुमल अनिल से ,
दसों दिशाओं के
जल-थल से,
दुग्ध-धवल पर्वत शिखरों 
से ,
मंदिर से, मस्ज़िद,
गिरिजों से.
दूर छितिज के
आकर्षण से,
गुरुद्वारे के ऊँचे
ध्वज से,
शंखनाद 
ध्वनि के  गुंजन से,
झरनों के अति
मीठे जल से.
नव अंकुर के
कोमल दल से,
नव प्रकाश की
मृदु आहट से ,
कोने-कोने के
कलरव से,
कलियों-कलियों के
सौरभ से.
अन्ना जी के मस्तक पर
अभिषेक
ओस की डाली से,
सागर के
अमृत कलशों से,
नए धन की
बाली से..........

Saturday, August 20, 2011

सुबह-सबेरे आज तुम्हारी आँख खुली है..........

ये  कविता 1969-70 की मनःस्थिति  में   लिखी थी . समय कितना आगे बढ़ गया......... और       कितना कुछ   पीछे छूट गया लेकिन ये पंक्तियाँ अभी भी जस की  तस मेरे आस- पास मंडराती रहतीं हैं ..............पता  नहीं आज की    दौड़ में,  जाने-अनजाने प्रबुद्ध  पाठकों    की कैसी    प्रतिक्रिया   होगी इस पर.......होगी भी या नहीं.........



सुबह-सबेरे आज तुम्हारी
 आँख  खुली है ,
बस मुझको एक 
चाय पिला दो......
बाकी दिन की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
ऑफिस जाने  से पहले 
तुम, बिस्तर पर
चादर 
बिछ्बा दो ,
और
एक सूखा कपड़ा ले,
मेज़,कुर्सियां,
सोफा, टीवी से थोड़ी
धुलें,
झड़बा दो ,
धूलों से होती 'एलर्जी'
इसीलिए 
'डस्टिंग' करबा दो ,
बाकी दिन की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
मेज़ लगी है
खा लो जल्दी,
ऑफिस को देरी 
होती  है,
मगर ज़रा तुम 'टोस्ट'
करा दो......
क्योंकि मैंने अभी-अभी
नाखूनों पर,
'पॉलिश' कर ली है.
सब कुछ  रखा है
टेबल पर,
तुम सिर्फ ज़रा
 अंडे छिलबा दो,
बाकी दिन की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
कल मैंने देखा
पेपर में,
कि नई एक दुकान
खुली है,
'कनॉट-प्लेस' के 
चक्कर में ,
शुरू-शुरू में शायद वो
कुछ सस्ता दे,
सो ऐसा करना ,
आते वख्त  वहीँ से,
'तंदूरी-चिकेन'
ले  आना दो,
बाकी खाने की
जिम्मेवारी
मैं  ले लूंगी.
छः-आठ समोसे
रख लेना,
मीठा जैसा तुमको भावे,
आते ही शोर मचाओगे
कि जल्दी से,
कुछ  खाना दो,
सब चीज़ें लेकर
छः बजते  ही, वापस 
घर को 
आ जाना,
सुबह-सबेरे तुमने मुझको
चाय पिलाई,
शाम चाय की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
 



   

Wednesday, August 10, 2011

अलसुबह हम 'मानसर' की , झील में.........

अलसुबह हम
'मानसर' की , झील में 
कल्लोल कर,
गिरी-खंड के ओटों में 
छुप ,
गातें सुखाकर ,
उत्तंग पर्वत  श्रृंखलों  पर 
बैठकर,
बातें  करेंगे..........
बोलो प्रिय,
कब हम चलेंगे ?
शाम को पर्वत की
पगडण्डी से होकर,
दूर तक
जाकर     मुड़ेंगे,
वापसी में.....और 
हम  हर मोड़ पर 
थककर ज़रा, 
रुक-रुक   चलेंगे,
उस रात को हम
चांदनी में
भीगकर,जगकर-जगाकर,
ओस की बूँदें
हथेली में भरेंगे,
अलसुबह फिर......
'मानसर'  की झील में 
कल्लोल कर,
गिरि-खंड के ओटों में
छुप ,
गातें सुखाकर,
उत्तंग पर्वत श्रृंखलों पर 
बैठकर,
बातें करेंगे............
बोलो प्रिय,
कब हम चलेंगे ?



Thursday, August 4, 2011

फुटकर......

दर्द को सीने से निकल जाने दो,
चश्मे -सैलाब का तूफान
गुज़र जाने दो,
मैं तेरे माज़ी का
बहाना ही सही,
किसी हाशिये पर,
मुझे भी
ठहर जाने दो.
......................................

मुट्ठी में आकाश लिए
तुम बोलो कहाँ  उड़ोगे?
खोलो मुट्ठी फिर देखो,
सारा आकाश तुम्हारा है.
.......................................  

सितारों ने समंदर से,
कभी बोलो,
ये बोला है......
कि
परछाईं मेरी तुम पर,
मुझे अच्छी बहुत लगती.