Monday, December 19, 2011

ये दिल्ली है........

ये दिल्ली है........
यहाँ
दिसम्बर-जनवरी की
रात में,
खुले आसमान  के नीचे,
शादियों का
निमंत्रण
आ जाता है......
सच कहूँ.......दहशत
फैला जाता है.
जाऊं-न-जाऊं की
उहापोह,
मच जाती है,
अन्तोगत्वा
हाँ-ही 
हो जाती है.
मोजे,कार्डिगन,शाल से
सुसज्जित
मैं,
बिजली की चकाचौंध को
बेधती,
देशी-विदेशी
फूलों के सौन्दर्य  पर
रीझती,
वैवाहिक समारोह में
शुभकामनाओं की पोटली
थमाकर,
परिचित चेहरों के पास
जाकर,
इधर-उधर
नज़र दौड़ाती हूँ,
देखिये.......
क्या-क्या पाती हूँ......
'बैरे' 'यूनिफ़ॉर्म' में,
लिए हुए
'ट्रे' में,
'फिश-फिंगर', 'टंगड़ी कबाब',
'मलाई-टिक्का',
'वेज' में.....
'समोसा','स्प्रिंग-रोल',
'पनीर -टिक्का',
जो अच्छी दिखे
खा लेती हूँ,
बुरी.....तो
नहीं उठाती हूँ......फिर
बीसियों रंग-रूप के
'पेय',
भ्रमित कर देते हैं,
सही-ग़लत के
चक्कर में,
अब कौन पड़े......
हम 'कोक' उठा लेते हैं.
शनैः  शनैः
भीड़ बढ़ने लगती है,
चमकने लगते हैं
हीरे -मोती -पन्ना
पुखराज,
अलग-अलग 'कौमें'
अलग-अलग
साज़.
नपे -तुले ,
कटे - छंटे,
ज़रूरत से कम
कपड़ों में,
खिलखिलाती औरतें ,
उनसे भी कम में,
मुस्कुराती
लड़कियां.
'स्टेज' पर 
'शीला की जवानी'.......का
शोर
और.....दूसरी ओर
चकित
हिरनी सी,
कूदती-फांदती
एक किशोरी,
'चुटकी जो......तूने काटी है.....
की लय पर,
हदों को
पार करने लगती है.....
मैं
खाने के लिए
उठ जाती हूँ......
भांति-भांति के
कस्बे,जाति,प्रदेश का
खाना,
स्वाद और गुणवत्ता से
भरपूर,
संतुष्ट कर देती है
और
वापसी में
एक तुकबंदी करने को,
मजबूर कर देती है........
"है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत पहन
अश्लील जरा से
वस्त्र,
आँखें शर्म से
औरों की
झुकती जा रही है'.....
है नहीं कोई
तुम्हारे
घर में जो
तुमसे कहे.......
'मत लगा
होठों से इतने
जाम,
आँखों से तुम्हारे
शर्म
उड़ती जा रही है'........















Monday, December 5, 2011

माँ के गले का हार.......

माँ के गले का हार,
भाभी के गले से
होता हुआ....
जब दिखा,
तुम्हारे गले में
उस दिन.....
तो अनायास ही,
कितने वर्ष
पीछे,
चली गयी थी मैं .....
एक चित्र सा
बनने लगा था,
आँखों के सामने.....
माँ के गले में                
झूलते हुए
हार से,
खेलती हुई,
एक छोटी सी बच्ची का
हाथ .....और
उस बच्ची की
उँगलियों की
हरकतों को,
महसूस करने लगी थी
मैं,
खुद की
उँगलियों पर.
दूसरे ही छण,
हास-परिहास
करती हुई,
हमजोली भाभी के
गले में
डोलते हुए
हार की,
पहचानी सी आवाज़,
गूँजने लगी थी,
कानों में.
अतीत के आह्लाद का,
रसास्वादन
करता हुआ
मेरा मन......
जैसे पीछे की ओर
चलने लगा था
कि
सामने से आती हुई
बारात में.......तुम,
सजी-संवरी
मुस्कुराती  हुई,
  पहले   से
कहीं  ज़्यादा
सुंदर  लगने  लगी थी.......
कि
तुम्हारे माध्यम  से
मैं,
उन  सुंदर पलों  को
एक बार फिर
मिल आयी थी.......

Monday, November 21, 2011

एक दिन.......

एक दिन
अकेली मैं उदास,
बुलाने बैठी
आसमान में उड़ते हुए
चिड़ियों को ,
चिड़ियों ने कहा....
'रात होनेवाली है
घर जाने की
जल्दी है'.
सूरज को गोद में लिए
पश्चिम की लाली से
बोली मैं,
कुछ देर के लिए
मेरे पास
आओ तो ,
'विदा करनी है
सूरज को,
कैसे आऊंगी इस वख्त
कहो तो?'
थोड़ी ही देर बाद
आहट हुई
रात के आने की,
दरवाज़े पर ही
खड़ी-खड़ी
रोकने लगी रात को
कि
ठहर कर जाना ,
'अभी-अभी आयी हूँ '
रात ने कहा......
'मुश्किल है इन दिनों
बरसता है शबनम
सारी-सारी रात
भींगने का मौसम है'.
चाँद से बोली,
आओ सितारों के साथ
कुछ बात करें ,
चाँद ने कहा......
'घूमना है तारों के साथ
आज की रात
कैसे बात करें?'.
फूलों,भौरों ,तितलियों ने
रचाया था
उत्सव,
स्वच्छंद  विचरते हुए
मेघ-मालाओं ने कहा........
'बरसना है अभी और',
हवाओं को जाना था
खुशबू लेकर
दूर-दराज़,
नदियों,झीलों को
करनी थी अठखेलियाँ ,
और
पहाड़ पर जमी हुई
बर्फ़ ने कहा.......
'बहुत दूर है
तुम्हारा घर'.
झरनों से गिरता हुआ
कल-कल,
दूबों पर फैली
हरियाली,
ताड़,खजूर ,युक्लिप्टस
और
चिनारों ने
सुना दी
अपनी-अपनी......
और हारकर  कहा मैंने 
अपने मन से,
तुम मेरे पास रहना........
'मुझे नहीं रहना'
  झुँझलाकर बोला
मेरा अपना ही मन,
'मैं जा रहा  हूँ
बच्चों के पास 
आ जाऊँगा
मिल-मिलाकर,
'तुम यहीं रहो'.......
लेकिन
कितने दिन हो गए
मन तो
लौटा ही नहीं......
मेरे बच्चों,
तुमलोग ऐसा करना,
वापस भेज देना
समझा-बुझाकर
मेरा मन
कि
मैं यहाँ
अकेली रह गयी हूँ........



Thursday, November 17, 2011

निश्छलता की 'आँच' पर......

जब नीम के पेड़ पर
चढ़कर
मधु-मक्खी  
छत्ता लगाती है,
शहद  की ताशीर
दुगनी
हो जाती है.
जब रिश्तों की
धूल-धुसड़ित
रेशमी डोर
निश्छलता की 'आँच' पर
चढ़  जाती है
यक़ीनन
निखर जाती है.......

Monday, November 14, 2011

नरम मखमली बिस्तर के........

नरम मखमली बिस्तर  के
कोनों पर
रखकर पाँव,
दूसरे कोने पर
दो तकिया रख......
पेटों के बल
अधलेटी सी,
दायें हाथों की ऊँगली में
है ,फंसी कलम
बांयी को कुहनी से
मोड़े
बाँधी मुठ्ठी,रख दी है अपने
गालों पर.
आँखों को करके बंद
ज़रा
कुछ सोच-समझ ,कुछ
शब्द नए, कुछ
भाव नए,
आ गए लगा.....
आगे की बात कहूं
अब क्या
आ गयी नींद ......
जब खुली आँख देखा
'कॉपी' पर
लिखी हुई .......आराम करो . 

Tuesday, November 8, 2011

जब टेढ़े-मेढ़े उल्टे-सीधे.......

जब टेढ़े-मेढ़े
उल्टे-सीधे
और
उलझे हुए.....
रिश्तों की कौमें 
निकलकर ,
एक -दूसरे की गवाही 
लेकर,
अपने-आपको स्थापित 
करने लगतीं हैं .......
जब नींव-रहित,
कच्चे-पक्के
संबंधों के अलाव,
भौतिक रस-विलास के 
सौजन्य से......
बढ़-चढ़ कर 
फैलने लगते हैं,
तब......
दूर से देखते हुए 
ठोस, 
भावनात्मक 
रिश्तों का वज़ूद,
क्रमश: 
खोने लगता है........
खोने लगता है,
स्नेह-सिंचित जड़ों से,
निश्छल कोमलता का
चिर-संचित
अभिमान.....
और
समय के धरातल पर,
उधड़ते  हुए
रिश्तों का,
धूल-धुसडित रेशमी डोर,
अपने होने  का
एहसास .......भर करा देता है,
या कहूं......... कि
'येन -   तेन-  प्रकारेण'
बहला देता है.......

Tuesday, November 1, 2011

एक दृश्य.......यह भी......

'सन्डे'की सुबह
'पॉश'- 'कालोनी' के
'फ्लैट' की 
'बाल्कनी' में ,
जो एक लम्बा सन्नाटा 
बिछ जाता है........
शनिवार की रात का 
'साइड -इफेक्ट'
साफ़ नज़र आता है.
मंथर-गति से 
सुगबुगाहट सी होती है,
पर्दे सरकते हैं ,
कुण्डियाँ खड़खड़ातीं  हैं,
दरवाज़े खुलते हैं 
और 
हाफ़-पैंट धारी
'डैडी',
'पेपर' लिए हुये
'केन' की कुर्सी पर
फैल जाते हैं.
'रेलिंग' के सहारे 
आकर,
खड़ी हो जाती है
एक बच्ची,प्यारी सी,
'बारबी' 'डॉल' का हाथ
मुठ्ठी में
पकड़े हुए.......
उसका भाई
ऐसा मेरा अनुमान है.....
'स्केटिंग' का जूता पहने,
इधर से उधर  
फिसलता है,झिड़कियाँ   
खाता है
फिर  फिसलता  है,
यही क्रम   
चलता रहता है.
'ट्रौली' पर चढ़कर  
चाय-दूध, बिस्किट,
फल-वल,
जाने क्या-क्या,
एक 'आया'
लगा  जाती है.....
और तब  
बड़े-बड़े  फूलोंवाली  
रेशमी  'नाईटी' पहने 
घर  की गृहणी  
बाहर आती  है.
बैठकर  इत्मिनान  से,
आस-पास  का मुआएना  कर  
संतुष्ट  भाव  से,
बिस्किट के डब्बे  को  
खोलते  हुए,
बच्चों  को  आवाज़  
लगाते हुए,
डालती  है 'कपों'  में
'स्टाईल' से
चाय-दूध
नफ़ासत की हद  तक,
शक्कड़  मिलाती  है 
और........इधर 
मेरी  जिज्ञासा  
बढ़ती चली  जाती है.......
वहाँ सब  पीने  लगते  हैं 
चाय - वाए,
खाने  लगते हैं 
बिस्कुट-विस्कुट  
फल-वल, 
जाने क्या-क्या,
सोचती  हूँ ........
ये  'लाम- काफ़' की चाय  
कैसी  होती होगी?
और........इसी  उधेड़-बुन  में 
उस  'साइड-इफेक्ट'  का 
'आफ्टर-इफेक्ट'  तो  देखिये  
मेरे  सामने  रखी 
गर्म  चाय,
बिना  पीये  
खामखा
ठंढी  हो जाती है.......... 



  
  

Wednesday, October 26, 2011

आती नहीं है घर में मेरे........

पहले जिठानी और अब देवर,
कई बार ऐसा होता है........जब परिवार के लोग  मिलते  हैं ......  अनायास   ही किसी बात पर एक कविता का जन्म हो जाता है. कुछ दिनों पहले मेरे देवर  आये.......अब  देखिये कैसी  कविता बन गयी
खास उनके लिए.........

आती नहीं है 
घर में मेरे,
बोतल-ए-शराब,
बेइख्तियार लत हो तो......
पीकर यहाँ आना.
हर रंग की बोतल में
मिलेगा यहाँ
पानी,
हल्कों की तरावट को
मिलेगा यहाँ
पानी,
निम्बू निचोड़कर,नमक
चाहो तो  डाल लो,
शीशे की गिलासों में 
मिलेगा यहाँ 
पानी.
जो ज़ाम भर सके 
वो 
सुराही नहीं यहाँ,
चढ़ जाये जो 
आँखों में
वो 
प्याली नहीं यहाँ,
'पेप्सी' से सट के 
हैं खड़ी,
'लिम्का' की बोतलें,
धीरे से कह रहीं 
कोई,
हमको भी तो 
पी ले,
कितना भी पियें 
हम तो
बहकने नहीं देंगे.....
अपना तो ये वादा है 
कि
गिरने नहीं देंगे.  

Monday, October 10, 2011

तुम्हारे बिगडैल प्यार ज़िद्दी दुलार........


ये कविता मैं  अपनी जिठानी को संबोधित करते हुए लिखी हूँ  ......... इतनी सारी सच्चाई एक साथ
सुनकर वो बहुत भावुक हो गयीं ...............
कितनी बार सुनतीं हैं .......फिर सुनती हैं .........औरों को भी सुनाने के लिए कहती हैं और  सुनते-सुनते  कभी रो देतीं हैं तो कभी हंस देती हैं...........अपनी डायरी में भी रख ली हैं.......

तुम्हारे बिगडैल प्यार 
ज़िद्दी दुलार
और
गुस्से से लबालब
आँखों के पीछे से,
उमड़ता हुआ
ममता का सैलाब,
सर से पांव तक,
भिगो देता है ........
पिघलते हुए शीशे की 
तरह,
तुम्हारे गर्म मिजाज़ की 
आँच में ,
मीठे झरने की 
मदमस्त फुहार, 
सुनायी पड़ती है.........
डरपोक मन की 
परिधि से 
निकलकर, जब
एकाएक 
चाबुक उठा लेती हो,
आत्मीयता में नटखटपन 
मिलाकर,बस 
होश उड़ा देती हो,
दिल्ली ,बम्बई ,गोवा में 
उधम मचाती हो,
पटना में बैठकर, 
अमेरिका को हिलाती हो.....
चाय नहीं पीऊँ
तो शरबत मंगाती हो,
मिठाई को ना कहूं
तो 
प्रसाद कहकर 
खिलाती हो......
भावनाओं के जहाज से,
क्रोध के कबूतर 
उड़ाती हो,
फूलों का रस 
बिछाकर,
पलकों पर बिठाती हो,
जादू की छड़ी
घुमाकर,
मन से बांध लेती हो,
भगवान कृष्ण की 
बहन हो,
स्नेह का बंधन 
डाल देती हो.........
                                                                                                                                                                                                                  
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           


Tuesday, October 4, 2011

शीत का प्रथम स्वर..........

प्रत्युष  का  स्नेहिल स्पर्श  
पाते ही,
हरसिंगार  के  निंदियाये फूल,  
झरने  लगते  हैं  
मुंह  अँधेरे,
वन-उपवन  की
अंजलियों  में
ओस से नहाया हुआ
सुवास,
करने  लगता  है  
अठखेलियाँ  
आह्लाद की,
पत्तों  की सरसराहट  
रस-वद्ध  रागिनी  
बनकर,
समा जाती  हैं  
दूर  तक .......
हवाओं  में,
गुनगुनी  सी  धूप
आसमान  से उतरकर 
कुहासे  को  बेधती  हुई
बुनने  लगती  है  
किरणों  के  जाल,
तितलियाँ पंखों पर 
अक्षत, चन्दन,रोली  लिए  
करती  हैं  द्वारचार  
और  
धरती,
मुखर  मुस्कान  की 
थिरकन  पर 
झूमती  हुई,  
स्वागत  करती  है........
शीत  के  
प्रथम  स्वर  का.
  


Friday, September 30, 2011

वहां चलती होगी तुम्हारे आस-पास..........

जयपुर के 'गेस्ट-हाउस' से लिखी हुई........एक पुरानी चिठ्ठी मिली तो मन हुआ पोस्ट करने का ............

वहां चलती होगी तुम्हारे 
आस-पास......... 
आश्विनी  बताश
और 
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
लेने को   सांस.
खिड़कियों की जाली से 
छनकर आती है,
ताजगी  
बाहर ही,
रह जाती है, 
शीशा   खुलते ही 
मच्छरों का त्रास  
और
हवा मिलती नहीं
यहाँ,
लेने को  सांस. 
तुम्हें  दिखता होगा  
सारा  आकाश .......
और 
यहाँ,
खिड़कियों  में
बंधा हुआ
आस-पास,
दीवारों  पर लटकते हुए 
'फोटो -फ्रेम'  जैसा, 
होता है 
प्रकृति का एहसास,
तुम घिरी  होगी 
ठीक  जाड़ों के पहलेवाली,
हल्की,सुनहरी 
धूप से, 
नपी-तुली 
सूरज की किरणें यहाँ,
समय के 
अनुरूप से,
देखती  होगी तुम 
गोधूली  की बेला,  
छितिज का हर  पार,
यहाँ, 
सबके बीच में 
आ  जाता  है दीवार,
कट  जाता है
नीम  का पेड़,
कटती  है
चिड़ियों  की कतार, 
यहाँ,
सबके बीच में 
आ जाती है दीवार,
वहां चांदनी  रातों  को  
तुम,
हाथों  से
छू लेती  हो .....
यहाँ, 
कभी  आ जाता  है,
पल - भर
खिड़की  पर चाँद
और सोचती  हूँ.......
वहां चलती होगी 
तुम्हारे 
आस -पास ........
अश्विनी  बताश 
और 
हवा मिलती नहीं 
यहाँ,
लेने को  सांस.     

Saturday, September 24, 2011

चलो आज हम अपने ऊपर.........

चलो आज हम
अपने ऊपर,
एक नया असमान
बनायें,
सपनों की पगडण्डी पर
हम,
फूलों का मेहराब
सजाएँ.
वारिधि की उत्तेजित
लहरों से,
कल्लोलिनी वातों में ,
अंतहीन 
मेघाछन्न नभ की,
चंद रुपहली
रातों में,
धवल ताल में 
कमल खिलें 
और 
नवल स्वरों के 
गुंजन में,
धूप खड़ी पनघट से 
 झाँके ,
नीले नभ के
दर्पण में,
रंगों की बारिश में
भींगी
तितली पंख सुखाती हो,
विविध पुलिन-पंखुड़ियों से
जाकर बातें
कर आती हो,
झरने का मीठा पानी
पीने बादल,
नीचे आयें,
पके फलों से
झुके पेड़ पर
तोता -मैना मंडराएं ,
सघन वनों की छाया में
छिट-पुट किरणें 
रहती हों,
माटी के टीलों पर 
पैरों की छापें ,
पड़ती हों,
जहाँ धरती से आकाश मिले 
उस दूरी तक हम 
हो लें ,
मृदुल कल्पना के 
पंखों से,
आसमान  को छू लें.  

Wednesday, September 14, 2011

तमाम परेशानियों को........

तमाम परेशानियों को
करके नज़र-अंदाज़,
आज बस
तुम्हें ही,
याद करने को
जी चाहा है.......
तेरी यादों में
यूँ खोयी....
कब शुरू किया,
कब ख़त्म,
मुझे
कुछ याद नहीं ........ 

Saturday, August 27, 2011

अन्ना जी के मस्तक पर..........

अन्ना जी के मस्तक पर
अभिषेक
उषा की लाली से,
कुंदहार, नीलाभ वसन
 शोभित ललाट,
उजियाली से.
मलय-गिरी के
सुमल अनिल से ,
दसों दिशाओं के
जल-थल से,
दुग्ध-धवल पर्वत शिखरों 
से ,
मंदिर से, मस्ज़िद,
गिरिजों से.
दूर छितिज के
आकर्षण से,
गुरुद्वारे के ऊँचे
ध्वज से,
शंखनाद 
ध्वनि के  गुंजन से,
झरनों के अति
मीठे जल से.
नव अंकुर के
कोमल दल से,
नव प्रकाश की
मृदु आहट से ,
कोने-कोने के
कलरव से,
कलियों-कलियों के
सौरभ से.
अन्ना जी के मस्तक पर
अभिषेक
ओस की डाली से,
सागर के
अमृत कलशों से,
नए धन की
बाली से..........

Saturday, August 20, 2011

सुबह-सबेरे आज तुम्हारी आँख खुली है..........

ये  कविता 1969-70 की मनःस्थिति  में   लिखी थी . समय कितना आगे बढ़ गया......... और       कितना कुछ   पीछे छूट गया लेकिन ये पंक्तियाँ अभी भी जस की  तस मेरे आस- पास मंडराती रहतीं हैं ..............पता  नहीं आज की    दौड़ में,  जाने-अनजाने प्रबुद्ध  पाठकों    की कैसी    प्रतिक्रिया   होगी इस पर.......होगी भी या नहीं.........



सुबह-सबेरे आज तुम्हारी
 आँख  खुली है ,
बस मुझको एक 
चाय पिला दो......
बाकी दिन की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
ऑफिस जाने  से पहले 
तुम, बिस्तर पर
चादर 
बिछ्बा दो ,
और
एक सूखा कपड़ा ले,
मेज़,कुर्सियां,
सोफा, टीवी से थोड़ी
धुलें,
झड़बा दो ,
धूलों से होती 'एलर्जी'
इसीलिए 
'डस्टिंग' करबा दो ,
बाकी दिन की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
मेज़ लगी है
खा लो जल्दी,
ऑफिस को देरी 
होती  है,
मगर ज़रा तुम 'टोस्ट'
करा दो......
क्योंकि मैंने अभी-अभी
नाखूनों पर,
'पॉलिश' कर ली है.
सब कुछ  रखा है
टेबल पर,
तुम सिर्फ ज़रा
 अंडे छिलबा दो,
बाकी दिन की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
कल मैंने देखा
पेपर में,
कि नई एक दुकान
खुली है,
'कनॉट-प्लेस' के 
चक्कर में ,
शुरू-शुरू में शायद वो
कुछ सस्ता दे,
सो ऐसा करना ,
आते वख्त  वहीँ से,
'तंदूरी-चिकेन'
ले  आना दो,
बाकी खाने की
जिम्मेवारी
मैं  ले लूंगी.
छः-आठ समोसे
रख लेना,
मीठा जैसा तुमको भावे,
आते ही शोर मचाओगे
कि जल्दी से,
कुछ  खाना दो,
सब चीज़ें लेकर
छः बजते  ही, वापस 
घर को 
आ जाना,
सुबह-सबेरे तुमने मुझको
चाय पिलाई,
शाम चाय की
जिम्मेवारी
मैं ले लूंगी.
 



   

Wednesday, August 10, 2011

अलसुबह हम 'मानसर' की , झील में.........

अलसुबह हम
'मानसर' की , झील में 
कल्लोल कर,
गिरी-खंड के ओटों में 
छुप ,
गातें सुखाकर ,
उत्तंग पर्वत  श्रृंखलों  पर 
बैठकर,
बातें  करेंगे..........
बोलो प्रिय,
कब हम चलेंगे ?
शाम को पर्वत की
पगडण्डी से होकर,
दूर तक
जाकर     मुड़ेंगे,
वापसी में.....और 
हम  हर मोड़ पर 
थककर ज़रा, 
रुक-रुक   चलेंगे,
उस रात को हम
चांदनी में
भीगकर,जगकर-जगाकर,
ओस की बूँदें
हथेली में भरेंगे,
अलसुबह फिर......
'मानसर'  की झील में 
कल्लोल कर,
गिरि-खंड के ओटों में
छुप ,
गातें सुखाकर,
उत्तंग पर्वत श्रृंखलों पर 
बैठकर,
बातें करेंगे............
बोलो प्रिय,
कब हम चलेंगे ?



Thursday, August 4, 2011

फुटकर......

दर्द को सीने से निकल जाने दो,
चश्मे -सैलाब का तूफान
गुज़र जाने दो,
मैं तेरे माज़ी का
बहाना ही सही,
किसी हाशिये पर,
मुझे भी
ठहर जाने दो.
......................................

मुट्ठी में आकाश लिए
तुम बोलो कहाँ  उड़ोगे?
खोलो मुट्ठी फिर देखो,
सारा आकाश तुम्हारा है.
.......................................  

सितारों ने समंदर से,
कभी बोलो,
ये बोला है......
कि
परछाईं मेरी तुम पर,
मुझे अच्छी बहुत लगती.

Friday, July 29, 2011

जब कभी तुम्हारी आँखों में.........

जब कभी तुम्हारी
आँखों में,
सावन के बादल डोलेंगे,
मैं भी उस बादल में छुपकर,
उन आँखों में
बस जाउंगी......
या फिर
नैनों के कोरों से,
गिरकर,छूकर
तेरे कपोल,
तेरे अधरों के
कोनों  पर
दो पल रूककर,
तेरी ऊँगली की  
पोरों पर,
सो जाउंगी.......
जब कभी तुम्हारी
आँखों में,
सावन के बादल डोलेंगे.......

जब कभी तुम्हारे
सिरहाने की
खिड़की पर,
सावन की बूँदें आएँगी......
मैं भी
उन बूंदों में रहकर,
दृग के सपने
छलकाऊँगी......
या फिर
झिलमिल लड़ियों के संग,
उनकी लय पर
कुछ-कुछ लिखकर,
वहीँ कहीं
मैं आस-पास,
मीठे मृदु-हास
उड़ाऊँगी, 
जब कभी तुम्हारे 
सिरहाने की
खिड़की पर,
सावन की बूँदें आएँगी......

जब कभी तुम्हारे 
घर -आँगन की 
चौखट पर,
सावन हलचल ले आएगा ......
मैं भी उस हलचल में 
मिलकर 
उन्मुक्त ,मुग्ध हो जाउंगी .......
या फिर
रिमझिम गीतों की धुन ,
तुमको छूकर जब आएँगी.......
मैं मन-तंत्री के तारों पर 
चुपके-चुपके, 
ला-लाकर उन्हें  
बजाऊँगी, 
जब कभी तुम्हारे 
घर,आँगन की 
चौखट पर,
सावन हलचल ले आएगा.......  

Saturday, July 23, 2011

उस अमर-बेल की लता कहाँ........

उस अमर-बेल की
लता कहाँ........
जिनकी कोमल
कलियों को चुन,
पावन-परिणय की
वेला
में,
मैं हार तुम्हें,
पहनाता था.
वह श्वेत, धवल
हिमखंड कहाँ,
जिसकी जगमग
आभा में, मैं
अपलक, अनिमेष,
निःशंकित सा
सौ बार,
तुम्हें नहलाता था.
वह मेघ-माल
है गया कहाँ,
जिसकी श्यामल
तरुणिम छवि में,
विहगों का सुन
कल्लोल........ कभी,
प्रतिपल मैं,
तुम्हें हँसाता था,
है गया कहाँ
मलयज बयार,
जिसकी
मीठी सकुचाहट पर,
द्रुत हरिण गति
पाँवों में भर,
मैं
पास तुम्हारे आता था.

Tuesday, July 12, 2011

उपहार तुम्हारे लिए ........आज......

गुलमोहर की प्रातों से,
रजनीगंधा की
रातों से,
बोझिल पलकों के
सपनों से,
तन्द्रिल अलकों के
कोनों से.
भोंरों के
अलि-चुम्बन से,
दीपशिखा के
कम्पन से,
अमलतास की
साया से,
नीम तले की
छाया से.
मलयज से आती
वातों से,
चाँद दिखे
उन रातों से,
उपहार तुम्हारे लिए
आज,
मृदु मन के
उठते भावों से .

Saturday, July 2, 2011

मन पंख बिना.........

जब रातों की परछाईं पर,
पूनम का चाँद
चमकता है,
उजली किरणों के साये में,
तारों का रूप
दमकता है,
उन नीलम जैसी रातों में,
जब सलिल,सुधा
बरसाती है,
शबनम के मोती झरते हैं
और
चाँद गगन पर
चलता है........
है पंखों का वरदान नहीं
फिर भी मन,
उड़-उड़ जाता है,
कभी तोड़ता है तारे
तो कभी चाँद,
छू लेता है.
जब सुबहों की अरुणाई पर,
सूरज की आँखें
खुलतीं हैं,
जब मणि-माणिक की
चादर पर,
किरणें धीरे से
चलतीं हैं,
उन सुबहों में
अलि गुंजन पर,
मधु का विनिमय
हो जाता है,
मन पंख बिना
तितली बनकर,
बागों में उड़-उड़ जाता है.
जब दिवा-स्वप्न की
लहरों पर,
मन शिथिल कभी
सो जाता है,
बेवख्त   कभी उठता है तो
बेबात 
कभी मुस्काता है,
उन हल्की सी मुस्कानों पर,
आँखों के दीये
जलते हैं,
उन लहरों की हलचल पर 
अपने ,
सपने उड़कर 
चलते हैं,
कभी बादल पर
मंडराता है,
कभी आसमान में 
गाता है
या नव विहान का
हाथ पकड़
मन पंख बिना,
जा सात समंदर पार
तुम्हें,
मिल आता है. 

Monday, June 27, 2011

हवा का एक तेज़ झोंका........

हवा का एक तेज़ झोंका
मेरी उनींदी
आँखों को खोल गया
जब खोली मैंने,
अपने कमरे की         
कबसे बंद खिड़की........
जब खोली मैंने,
अपने कमरे की
कबसे बंद खिड़की,
बारिश की तेज़ फ़ुहार  
सहला  गयी  
मेरे  
अंतर्मन  को.
ख्यालों  के  चक्रव्यूह  में  
घिरा  
मेरा मन,
अँधेरे  की हल्की सी
पदचाप  भर  
सुना  ...... 
कि
अचानक  
सूरज  की तेज़ किरणें    
ठहर  गयीं,
मेरे  ऊपर  
और
धूप की  चमकती  
नर्म  गर्माहट,
मैंने अपनी  मुट्ठी  में  
बांध  ली..........
कि
अब ,अँधेरा  
कभी   नहीं  होगा  .........                                                                                                                                                                                                  

Friday, June 3, 2011

नीम का एक पेड़.......

नीम का एक पेड़,
बाहर के ओसारे से
लगे तो
गर्मियों के दिन में
उसकी, छाँव में
बैठा करेगें,
कड़ी होगी धूप,
जाड़ों में जो सर पर,
नीम की डालों से हम,
पर्दा करेगें.
पतझड़ों में सूखकर
पीले हुए पत्ते,
ओसारे-'लान' पर जब
आ बिछेगें,
सरसराहट सी उठेगी,
हवा सरकायेगी जब-तब,
मर्मरी आवाज
आयेगी,
जो पत्तों पर चलेगें,
हर वक्त कलरव
कोटरों से
पक्षियों का,
किसलयों के रंग पर
कविता करेगें,
नीम का एक पेड़,
बाहर के ओसारे से
लगे तो
हम सुबह से शाम तक,
मौसम की,
रखवाली करेगें ।

Monday, May 23, 2011

संस्कारों के धज्जियों की धूल......

संस्कारों के धज्जियों की धूल,
जब उड़-उड़ कर
पड़ती है.....आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......तब,
मूंदकर चुप-चाप,
कपड़े का बनाकर
भाप,
सेक लेते हैं, अपने आप
निरुपाय
माँ-बाप......
एक कृत्रिम हंसी से
सुसज्जित,
उनके चेहरे के पीछे का
दर्द,
परदे में रह जाता है..... 
और 
आधुनिकता के प्रकोप से 
लहलहाते हुए 
शोर में......
उनका हर दुःख 
अदृश्य हो जाता है........
बताइए ,
आपको कभी दीखता है?
और 
मैं परेशान हूँ 
कि
मुझे क्यों दीखता है? 

Monday, May 16, 2011

यह कोई लेन-देन का कारोबार नहीं........

यह कोई लेन-देन का
कारोबार नहीं,
नफ़ा-नुकसान 
इसका आधार नहीं, 
निःस्वार्थ प्रेम
माँ के आँचल का
खज़ाना है,
यह स्नेह का 
बंधन है,
व्यापार नहीं.
मेरे दोस्त.......
कभी उँगलियों पर 
मत गिनना,
इसकी 
तौहिनी होती है,
यह ममता की 
अनुभूति है,
बस......
मन में सोती है.
और पिता........
हर उम्र में पिता 
बच्चे के 
मन से कहीं ज़्यादा,
दिमाग में ठहरता है
और दिमाग 
मन की तरह,
अँधा  
नहीं होता.
विश्लेषण करता रहता है,
सोचता रहता है,
खोजता रहता है
और 
इस प्रक्रिया में,
पिता से प्यार 
बढ़ता रहता है....... 


Wednesday, May 11, 2011

अलसुबह हम मानसर की झील में........

परिस्थितियां बदल जातीं हैं  लेकिन कवितायेँ,
जब जिस मनःस्थिति में,जिस परिवेश में लिखी जातीं हैं,
उसी रूप में जिंदा रह जातीं हैं........उनके भाव कभी नहीं बदलते ,
यही सोचकर आज यहाँ एक पुरानी कविता उस समय की ........
जब आसमान नीला होता था ,पानी का रंग पन्ने जैसा ,रूबी जैसा मन रहता था.....

अलसुबह हम 
मानसर की झील में 
कल्लोल कर ,
गिरि-खंड के ओटों में 
छुप,गातें सुखाकर,
उत्तंग पर्वत श्रिंखलों पर                    
बैठकर
बातें करेंगे,
बोलो प्रिय ,
कब हम चलेंगे ....
शाम को
पर्वत की पगडण्डी से
होकर,
दूर तक जाकर
मुड़ेंगे,
वापसी में
और
हम,हर मोड़ पर 
थक कर ज़रा
रुक कर  चलेंगे,
उस रात को हम,
चांदनी में,
भींगकर ,जगकर-जगाकर,
ओस की बूँदें 
हथेली में भरेंगे,
अलसुबह फिर .....
मानसर की झील में
कल्लोल कर,
गिरि-खंड के ओटों में 
छुप,गातें सुखाकर,
उत्तंग पर्वत श्रिंखलों पर
बैठकर
बातें करेंगे,
बोलो प्रिय,
कब हम चलेंगे......




Thursday, May 5, 2011

आइये 'कॉमन वेल्थ गेम'........

आपलोगों के इच्छानुसार इसके पहलेवाली मैथिली कविता का हिंदी अनुवाद (थोड़ी-बहुत हेर-फेर के साथ).

आइये 'कॉमन वेल्थ गेम'
आइये,
सब लगे हैं आपकी
ख़ातिरदारी में,
कुछ हमें भी तो
बताइए .
आपकी खुराक,
हमारे जैसे
अज्ञानियों की
समझ से,
बाहर हों गयी है,
सच मानिए,
हर तरफ़
सनसनी
फ़ैल गयी है .
स्वागत की थाली में,
क्या -क्या परोसा गया,
सोच-सोच कर,
दिमाग डोल गया .
इतना कौन ले   सकता है?
परसन पर परसन,
परसन पर परसन
जैसा आप लेते रहे,
बलिहारी है,
आपके सामर्थ्य की,
गाली सुन- सुन कर,
जीमते रहे .
आपकी भोजन-शैली
देखकर,
हम चकित रह जाते हैं,
कहिये तो......
इतना कैसे पचाते हैं?
इंग्लैंड की महारानी के,
खास 'अर्दली' बनकर आये,
जहाँ छूरी-कांटा से
काट - छांट कर,
'नैपकिन' से होंठ
पोछ-पोछ कर,
नफ़ासत के साथ,
छोटे-छोटे ग्रास
खाने की प्रथा है,
आप दोनों हाथ से
लगातार,
निरंकुश व्यभिचारी की तरह
खा रहे हैं,
दूसरे देश में आकर,
कितने
निर्लज्ज हों रहे हैं .
अनपच,अजीर्ण, अफारा,
चालीस करोड़ के
गुव्वारा से
मात हों गया,
ऐसी पाचन-शक्ति,
देखनेवाला
गश खा गया.
बुद्दिजीवी नि:सहाय,
जनता निरुपाय,
बता दीजिये 'कॉमन वेल्थ गेम',
कुल मिलाकर,
कितना खाए?
इठलाते हुए,जवाब आया.......
धैर्य रखिये,
अंतिम चरण है,
अब तो बस,
मधुरेन समापयेत.
कुछ खायेंगे,
कुछ साथ ले जायेंगे,
 हँसते-खेलते
निकल जायेंगे,
और
यहाँ आपलोग.........
हिसाब लगाते रहिये,
बही-खाता
मिलाते रहिये,
अतिथि देवो भव:
गाते रहिये
और
कुछ नहीं हो
तो ..............बस
जय हो !           
जय हो !
गुनगुनाते  रहिये.





Monday, May 2, 2011

हे 'कॉमन वेल्थ गेम'.......(मैथिली)

हे 'कॉमन वेल्थ गेम',               
अहाँक खोराक,
हमरा जकाँ मूढ़ लोकक 
समझ सँ बाहर
भ गेल .
स्वागत क थारी में ,
केहन-केहन 
ज्योनारि, 
भांपि-भांपि क 
दिमाग डोलि गेल.
परसन पर परसन, 
परसन पर परसन, 
के एतवा खा सकैय ?
किन्तु 
अहाँक सामर्थ्यक बलिहारी 
सुनि-सुनि क गारी ,
निर्विकार भाव सँ 
खैने जाईछी ,
कनिक बताऊ त,
केना पचबैछी?
'इंग्लैंड' क महरानिक
खास अर्दली भ क
ऐलों,
जहाँ छूरी-कांटा सँ
कटैत-घोंपैत,
छोट-छोट ग्रास
नफासत देखबैत,
नैपकिन सँ ठोढ़
पोछैत-पोछैत,
भोजन करवाक प्रथा छैक,
अहाँ दुनुं हाथ सँ,
निरंकुश व्यभिचारी जकाँ 
लपा-लप 
खैने जाईत छी ,
दोसर देश में जा क 
केहन 
निर्लज्ज भ गेल छी.
अनपच ,अजीर्ण ,अफारा,
चालीस करोड़ क 
गुब्बारा सँ,
मात भ गेल,
एहन पाचनशक्ति ......
देखनिहार के 
दांती लागि गेल.
बुद्धिजीवी निरुपाय छथि,
जनता निसहाय ,
हे 'कॉमन वेल्थ गेम',
आर कतेक खाएब?
इठलाईत बजलीह.....
धैर्य राखू ,
अंतिम चरण थिक,
आब त बस
मधुरेन समापयेत,
किछ खाएब ,
किछ ल जाएब,
एतै लोक,
कुदैत रहो ,
भुकैत रहो............. 


Sunday, April 24, 2011

दिनकर जी की पुण्य-तिथि पर...........दिनकर जी के बारे में........

दिनकर जी के
बारे में,
जितना लिख दूं
वह कम है,
'रश्मिरथी','कुरुछेत्र'
पढ़ी थी,
अब तक आँखें
नम हैं.
जन-जीवन,ग्रामीण ,
सहज,
कितना गहरा 
स्वाध्याय,
दिए अमूल्य ,अतुल 
वैभव 
'संस्कृति के चार अध्याय '.
'हरे को हरिनाम ',
'उर्वशी ' 
पढ़कर नहीं अघाते,
श्रोता हों या
वक्ता हों,
हर पंक्ति को
दोहराते.
संसद में रहकर भी
सत्ता,
जिनको नहीं लुभाया,
दिनकर जी को मिला,
पढ़ा जो,
अब तक नहीं
भुलाया.
कृतियों का
प्रज्ज्वल प्रकाश,
उत्कर्ष,
कलम का थामे ,
भारत की 
गौरव-गाथा में,
राष्ट्र-कवि हैं आगे.
ऋणी रहेगा
'ज्ञानपीठ',
हिंदी का नभ
सम्मानित,
नमन उन्हें शत बार
ह्रदय यह,
बार-बार गौरवान्वित . 




Tuesday, April 19, 2011

वृद्ध होती जा रही.......

वृद्ध होती जा रही.......
असमर्थ ममता,
मांगतीं हैं
उँगलियाँ, मेरी
पकड़ने के लिए
और मुझको वहम है
कि
उँगलियाँ मेरी
बड़ी अब,
हो गयीं हैं.

Sunday, April 3, 2011

एक लम्हा........

............और एक दूसरा पहलू यह भी , पचासवीं जयंती का ..........

माना कि वो 
नहीं हैं .......
लेकिन 
एक लम्हा ,
सूर्य ,चन्द्र ,अग्नि ,वरुण 
और 
पृथ्वी कि गवाही 
लेकर ,
आपके साथ 
चल रहा है ,
पचास साल से ........
कैद है 
आपकी आँखों में ,
मन में 
उम्र -कैद है,
कितना घुलनशील है,
आपके साथ
रह रहा है,
पचास साल से.......
प्रतिध्वनि जिसकी
संगीत बनकर,
गूंजती है
कानों में,
संजीवनी का जादू
चलाता है,
प्राणों में,
प्रीत की स्मृति 
जिसकी,
किरण बन 
आशा जगाती,
उस लम्हे का 
ज़िक्र हुआ है.......
उस लम्हे का 
ज़िक्र हुआ है.......तो
पुराने ज़ज्बातों से 
थोड़ी सी खुशबू 
निकालकर,
घर के कोने-कोने में 
बिखरा दीजियेगा 
और आज के दिन की 
मधुरता को 
जिंदा 
रखने के लिए,
स्वर्णिम -जयंती 
ज़रूर 
मना लीजियेगा .
माना की वो 
नहीं हैं.......ग़म है 
लेकिन 
आप तो हैं.......
ये
क्या कम है ?
  


Monday, March 28, 2011

ऐ हमसफ़र यहाँ तक.......

मेरे जेठ-जिठानी के शादी की पचासवीं सालगिरह पर,  मैनें  ये  कविता  उनकी ओर से लिखी है.........

ऐ हमसफ़र यहाँ तक,
मंजिल जो तय हुई है,
हम तो, निभाएंगे ही,
तुम भी उसे निभाना,
कुछ हम कहेंगे तुमसे,
कुछ तुम हमें सुनाना.
सुबहों की धूप को हम
शबनम से  नहा देंगे,
पंखों पे तितलियों के
हम मन को उड़ायेंगे,
फूलों के रसों-गंधों में
डूबकर-डुबाकर,
मिट्टी की महक में हवा,
कुछ बूँद मिलायेंगे .
फ़िक्रों की पर्चियों को
हम साथ भुलायेंगे,
कुछ कहकहों  के कतरे
मिल-मिल के सजायेंगे,
खामोशियों की आहट,  
चुन -चुन के हम रखेंगे
फिर देर रात बैठे
वो आहटें पढेंगे........
कुछ हम न बदल जाएँ  
कुछ तुम न बदल  जाना,   
ऐ हमसफ़र यहाँ तक,
मंजिल जो तय  हुई है,
हम तो, निभाएंगे ही
तुम भी उसे निभाना,
कुछ हम कहेंगे तुमसे
कुछ तुम हमें सुनाना.



Tuesday, March 22, 2011

कैसी है ये यात्रा.......

पहली बार जब अकेले  हवाई-यात्रा(1984    में दिल्ली से कुबैत)   करनी पड़ी उसीका एक छोटा सा अनुभव............

कैसी है ये  यात्रा 
कैसा है 
ये सफ़र ,
इधर और उधर 
सिर्फ़
नए ,अपरिचित चेहरे .
कहीं बच्चों की 
कतार,
कहीं सरदारजी 
सपरिवार ,
कोई खा रहा 
चौकलेट,
कोई पी रहा 
सिगार .
किसे दिखाऊँ 
उस औरत का 
जूड़ा,
किसे दिखाऊँ 
उन महाशय की 
मूंछें ,
किससे कहूं 
'एयर -बैग' उतारो ,
किससे कहूं 
'सीट -बेल्ट' 
बाँधो.
किसे पिलाऊँ 
अपने हिस्से का 
'कोल्ड -ड्रिंक',
किसके कन्धों पर 
सोऊँ  उठंगकर
कि
बगल की कुर्सी पर
न तुम,न तुम और न तुम.

Friday, March 18, 2011

काश तुम देख पाते.........

कई बार दूसरों के भोगे गए यथार्थ को हम, अपने शब्दों का जामा पहना देते हैं.........उसीका एक उदहारण आप सब के सामने प्रस्तुत है......
बाबा,
तुम कहाँ चले गए......
खेलने की उम्र में
मुझे
बिलखता छोड़कर.
काश तुम देख सकते,
तुम्हारा
वह असहाय पुत्र,
आत्म-बल से
बाधाएँ
पार करता हुआ,
अपने पैरों पर
खड़ा
हो गया है.
काश तुम देख सकते,
तुम्हारे
पुत्र के सशक्त
 कंधे,                                                    
घर-संसार चलाने में
सक्छम
हो गए हैं,
उसकी हथेलियों में
खुशियाँ
भरने लगी हैं,
काश तुम देख सकते,
तुम्हारे घर की
चौखट को,
तुम्हारी पुत्रवधू ने,
आलता-दूध में
पांव रखकर,
पार कर लिया है
और मैं सोचता हूँ.....
तुम
कितने खुश होते,
काश तुम देख सकते . 




Sunday, March 13, 2011

मेरे एख्तियारों को ज़हन.....

मेरे एख्तियारों को ज़हन(दिमाग) 
मेरे तिश्नगी(प्यास) को
मुकाम दे,
मैं गुम्बदे-बे-दर(खुला आसमान)
फ़रेफ्ता(मुग्ध)
वज्दे-ज़ौक(आनंद की मस्ती)
इकराम(कृपा)दे.
वो बलायें जिनका
यकीन था,
एतराफ़(स्वीकृती)
नामंज़ूर कर
कि अहद-ए-ग़ुल(फूलों का ज़माना)
मंज़रों(दृश्य) का
सिलसिला
कायम रहे.

Thursday, March 10, 2011

नीम के पत्ते यहाँ..........

धीरे-धीरे ब्लॉग-परिवार बढ़ता जा रहा है यह देखकर बहुत ख़ुशी होती है.नाम और चेहरे से काफी लोगों को पहचानने लगी हूँ यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी  उपलब्धि है. जाने-अनजाने लेखकों और पाठकों की स्नेहिल प्रतिक्रियाएं किसी खजाने से कम नहीं लगते. एक ऋण है आपका मुझपर जिसे उतारना  संभव ही नहीं है......परस्पर का यह सद्भाव कभी धूमिल नहीं हो,हम सब एक-दूसरे की कविताओं,कहानियों और लेखों से जुड़े रहें.....बस और क्या चाहिए......


नीम के पत्ते
यहाँ
दिन-रात गिरकर,
चैत के आने का हैं 
आह्वान 
करते,
रात छोटी 
दोपहर 
लम्बी ज़रा 
होने लगी है.
पेड़ से 
इतने गिरे पत्ते 
कि
दुबला 
हो गया है 
नीम,
जो पहले 
घना था ,
टहनियों के 
बीच से, 
दिखने लगा 
आकाश ,
दुबला 
हो गया है 
नीम 
जो पहले
घना था. 
क्यारियों से फूल पीले,
अब विदा 
होने लगे हैं,
और गुलमोहर पे पत्ते 
अब सुनो..... 
लगने लगे हैं,
शीत जो लगभग 
गया था,
मुड़के वापस 
आ गया है, 
विदा का फिर 
स्नेहमय, 
स्पर्श देने 
आ गया है.
इन दिनों 
चिड़ियों का आना 
बढ़  गया है,
घोंसले बनने लगे हैं,
घास ,तिनके 
चोंच में 
दिखने लगे हैं.
पेड़ की हर डाल पे, 
लगता कोई मेला 
कि
किलकारी यहाँ 
पड़ती सुनायी ,
घास पर लगता 
कि 
पत्तों की कोई 
चादर बिछाई ,
हवा में फैली 
मधुर ,मीठी ,वसंती
महक ,
अब जाने लगी है,
चैत की चंचल 
हवा में, चपलता चलने 
लगी है.
सूर्य की किरणें सुबह, 
जल्दी ज़रा 
आने लगीं हैं,
धूप की नरमी पे, 
गरमी का दखल
चढ़ने  लगा है.
शाम होती देर से
कि
दोपहर
लम्बी ज़रा,
होने लगी है,
रात में
कुछ देर तक
अब,
चाँद भी
रहने लगा है .
............और यहाँ की
हर ज़रा सी
बात या बेबात में,
याद तुम आती
बहुत हो
हर सुबह
दिन-रात में.
                    तुम्हारी मम्मी

    



Sunday, March 6, 2011

कि न फ़िक्र हो तुमको मेरी.......

कि न फ़िक्र हो
तुमको मेरी,
न मुझे
तेरा ख्याल हो,
या खुदा
वो दिन न हो,
जिसमें
ये अपना हाल हो.
सूरज तुम्हारा
हो अलग
और
चाँद
अलग हो मेरा,
रंग हमारे
अपने -अपने,
ख्वाब
अलग हो सारा,
तुम कहीं रहो
मैं कहीं
और
दिन ढल जाये,
कोई सोये
कोई जागे,
रातें
चल जाये,
हो आसमान
अपना-अपना,
अपने-अपने
हों तारे,
इन्द्रधनुष के
आर-पार
बँट जाएँ
सपने सारे.
सावन-भादो की
बूंदे हों
अपनी-अपनी,
अपना वसंत
और धूप-छांव
अपनी ले-लेकर,
अलग- अलग
रह जाएँ
कि न चाह हो
कोई तुम्हें,
न मेरा कोई
सवाल हो,
या खुदा
वो दिन न हो,
जिसमें
ये अपना हाल हो.

Wednesday, March 2, 2011

एकांत के प्रतिबिम्ब में.......

एकांत के प्रतिबिम्ब में
डूबता-उतराता हुआ
मेरा मन ,
अन्तरंग वीथियों में
परिमार्जित होते हुए
मेरे
सुख-दुःख,
नीले-नीले सपनों को
सजाते-संवारते
हुए
मेरी पलकों के
पंख
और शब्दों के कोलाहल से
भरी हुई
मेरी चुप्पी ने
एक दिन,
अपना सारा कुछ
बाँट दिया
उँगलियों को.......
उँगलियों ने धीरे-धीरे
सब कुछ
निकालकर,
डायरी के पन्नों में
रख दिया.......
अब
बाँटने जैसा
कुछ भी नहीं है
मेरे पास ,
तुम्हें दे सकूँ
ऐसा
कुछ भी नहीं है
मेरे पास. 

Saturday, February 26, 2011

प्रिय,जब मैं तुमसे दूर रहूँ........

प्रिय,जब मैं तुमसे दूर रहूँ........
तुम
मन-ही-मन में
मन से
मन की
कह लेना...
मैं सुन लूँगा...... 
प्रिय,भोर समय
छज्जों पर,
कोयल का रस-स्वर
गूंजे,
अपने भावों  को
भरकर,
अपने सुर में 
तुम गाना ,
मैं गुन लूँगा......
प्रिय,शाम ढले
आंगन में,
रजनीगंधा की कलियाँ
निज हाथों से
बिखरा देना,
मैं चुन लूँगा....
प्रिय, तम में
पलकों पर तुम,
सुंदर सपनों को 
लाना ,
लेकर अपनी आँखों में 
मैं बुन लूँगा......
प्रिय, जब मैं तुमसे दूर रहूँ.......
तुम मन-ही-मन में 
मन से 
मन की 
कह लेना..... 
मैं सुन लूँगा........ 



Tuesday, February 22, 2011

.......... और एक दिन

.......... और एक दिन
झिंगुर ने,
झिंगुरानी से यह कहा-
प्रिय.....
प्यार,कर्म,विश्वास
मिलाकर,
जो दिवार हम
खड़ी किये,
चलो-चलो
फिर से
रंगते हैं,
आखिर हम-तुम
क्यों
लड़ते हैं?
क्यों न आज हम 
उन लम्हों की
कसमें खाएं,
सूर्य,चन्द्र और
अग्नि-वरुण-जल
साथ चले थे.....
क्यों न आज हम
उन लम्हों का
जश्न मनाएं,
जहाँ हमारे
स्वप्न
पले थे.........
क्यों न शून्य में 
अपने 
दिल की,
धड़कन खूब गुंजाएं,
कोई नाद कहे ,
कोई ध्रुपद कहे,
कोई ओम कहे,
हम सबको साथ 
मिलाएं.