इसे छोड़ दूं तो वो आती हैं .……उसे छोड़ दूं तो ये आती हैं  ,ये यादें भी अजीब हैं.……. पीछा ही नहीं छोड़तीं....... 
'सिलीगुड़ी' में,कितने कम में 
घर चलाते थे,
एक रूपये का पाव 
मछली खाते थे.……. 
तब दिल्ली कितना 
खुशगवार था,
कलकत्ते में कितना 
प्यार था,
इंगलैंड की सुबह में 
कितना लावण्य था,
कन्याकुमारी की शाम में 
कितना सौन्दर्य था.……. 
कितना रोमैंटिक था 
नील नदी का किनारा 
रातों में,
मज़ा कितना रहता था 
इंडो-सूडान क्लब की 
बातों में.……. 
हाँ-हाँ.…
वो आसनसोल में.…
ऑफिस-कम-रेसीडेंस था,
ऑफिस और घर का 
अगल-बगल 
इन्ट्रेंस था.……. 
समय के साथ परिवर्तन तो होता ही है , हम चाहें न चाहें ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-05-2014 को चर्चा मंच पर अच्छे दिन { चर्चा - 1620 } में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसच! यादें भी अजीब हैं..
ReplyDeleteखूबसूरत यादों का एल्बम..
ReplyDeleteसच बहुत खूबसूरत था सन सडसट में सब कुछ । हम भी कितने अलग थे।
ReplyDeleteहम तो तब पैदा भी नहीं हुए थे, मगर सन छियासठ इसलिए याद है कि उसी साल मेरे माता-पिता शादी के बंधन में बंधे थे। और वे रहते हैं 'सिलीगुड़ी' में, सो अपना-अपना सी लगी यह कविता :)
ReplyDeleteयादें साथ रहती है , सन किसी की भी हो !
ReplyDeleteभावपूर्ण !