Wednesday, November 26, 2014

अंजू शर्मा की बहुत ही सुन्दर कविता है 'चालीस साला अौरतें '……उसी से प्रभावित होकर मैनें लिखी है 'अस्सी साला अौरतें '....... 

ये अस्सी साला अौरतें ....... 
तनी हुई गर्दन,
दमकता हुआ ललाट ,
उभरी हुई नसें……और 
संस्कारों के गरिमा की 
ऊर्जा लिये,
आसमान को छूने की 
ताकत रखती हैं .......
समंदर को सोखने की 
हिम्मत रखती हैं……
छुपाये रहती हैं 
कमर के घेरों में,
उँगलियों के पोरों में ,
आँखों के कोरों में,
कहाँ- कहाँ के किस्से 
कहाँ- कहाँ की कहानियाँ ……
हाथी,घोड़ा,ढ़ोल-मंजीरा  
तोता- मैना ,पापड़-बड़ियाँ……
यादों की चकबन्दी में 
बहलाकर 
बैठा लेती हैं ,
हर मौसम को अलग सुर में 
गुनगुनाकर 
सुना देती हैं .......
अंग्रेज़ों के षड्यंत्र की,
आज़ादी के मन्त्र की,
जमींदारी के अंत की,
गाँव में वसंत की ……
अनुभवों के रसास्वादन से 
जिज्ञासा जगाती,
सुनहली-रुपहली तारों से 
चंदोवा सजाती 
मखमल सी हो जाती हैं 
ये अस्सी साला अौरतें ……
रिश्तों की दुसूती पर 
फूल-पत्ती काढ़ती ……
दबा देती हैं 
अकेलेपन के एहसासों को,
जामदानी,जामावार,
जरदोज़ी की 
आलमारी में.......
सुख-दुःख 
आँखों के पानी से 
धो-पोछकर 
सुखा लेती हैं,
चश्मे के शीशे का 
पर्दा 
लगा लेती हैं .......
नये-पुराने रंगों को 
मिला-मिलाकर मुस्कुराती हैं,
ओढ़ती,बिछाती,
सिरहाने रख 
सो जाती हैं ……
हवा का हर रुख 
महसूस करती
एकदम कोमल…… 
या फिर 
चट्टान सी ……
इन्हें 
हल्के से मत लीजियेगा .......
कमज़ोर मत समझियेगा……
छड़ी हाथों की 
कभी भी 
घुमा सकती हैं …… 
उफ़!
ये अस्सी साला अौरतें
दुनिया भी 
झुका सकती हैं…… 
 
 
 
  
 

Wednesday, October 15, 2014

जाड़ों में प्रायः दिख जाते हैं………

जाड़ों में प्रायः
दिख जाते हैं, वृद्ध-दंपत्ति, 
झुकी हुई माँ ,कांपते हुए
पिता.....धूप सेकते हुए.....
कभी 'पार्क'में,कभी
'बालकनी'में,
कभी 'लॉन' में
तो कभी'बरामदों' में.
मोड़-मोड़कर
चढ़ाये हुए 'आस्तीन'
और
खींच-खींचकर
लगाये हुए'पिन' में
दिख जाता है.......वर्षों से
विदेशों में बसे,
उनके धनाढ्य बाल-बच्चों का
भेजा हुआ
बेहिसाब प्यार.
ऊल-जलूल ,पुराने,शरीर से
कई गुना बड़े-बेढंगे
कपड़ों का
दुःखद सामंजस्य,
सुदूर........किसी देश में
सम्पन्नता की
परतों में
लिपटी हुई नस्ल को,
धिक्कारती.......
ठंढ से निश्चय ही बचा लेती है,
इस पीढ़ी की सामर्थ्य को
संभाल लेती है........लेकिन
कृतघ्नता  के आघात की
वेदना का
क्या......
आपसे अनुरोध है......
इतना ज़रूर कीजियेगा,
कभी किसी देश में
मिल जाये वो नस्ल......तो
इंसानियत का,
कम-से कम एक पर्चा,
ज़रूर
पढ़ा दीजियेगा.......... 

Thursday, September 4, 2014

घर में शादी -ब्याह हो .........

घर में शादी -ब्याह हो ,मुंडन हो , जन्मोत्सव हो या कोई भी शुभ अवसर हो ,हलवाई के  बैठते ही पूरे 
घर का माहौल गमगमाने लगता है ,रौनक एकदम चरम सीमा पर पहुँच जाती है  . लोग-बाग अकेले ,दुकेले ,सपरिवार आते रहते हैं ,खाते-पीते ,हँसते-गाते ,मौज-मस्ती करते हैं…… न प्लेटों की गिनती न मेहमानों की लेकिन …… ये 'पर -प्लेट' वाली संस्कृति बड़ी बेरहम होती है  . मेहमानों की सूची में लगातार कतर-ब्योंत करती रहती है और अंतत: कितनों का नाम खारिज कर देती है  . बेचारी 'पर-प्लेट' कितनी मजबूर होती है  ……. अपनों को भी गैर बना देती है  ……. 

Sunday, August 31, 2014

हिन्दी साहित्य के जाने -माने रचनाकार........

हिन्दी साहित्य के जाने -माने रचनाकार श्री गंगा प्रसाद विमल ने , अपने अमूल्य शब्दों से मेरी छठवीं कविता-संग्रह 'धड़कनों की तर्ज़ुमानी ' की समीक्षा  की है  . ये मेरा सौभाग्य है और मैं ह्रदय से उनकी आभारी हूँ …….  

'धड़कनों की तर्ज़ुमानी ' मृदुला प्रधान की इधर कुछ वर्षों की लिखी कविताओं का संकलन है  . उनके पहले संग्रह की कविताओं ने यह उम्मीद बनाई थी कि जिस सहजता से वे अपने पहले संग्रह में छविमान हुई हैं उसी सहजता के नये प्रयोग आगे आनेवाली कविताओं का आधार बनेंगे और वे अपनी अलग जगह बनाने के लिये सक्रीय नज़र आयेंगी  . इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने ,अपनी सहजता कायम रखी है और भारतीय स्त्री के स्वभाव की तर्ज़ुमानी कुछ इस ढंग से की है कि आस्था विश्वास और भावानुभावों की तीव्रता तो बरकरार है ,साथ-ही -साथ सांकेतिक रूप से परिवार ,समाज ,संगी -साथी ,मिले-बिछुड़े परिजन और परिचित जनों का भरा-पूरा संसार भी अपने ही ढंग से उपस्थित है  और यह हम सबका अति परिचित संसार या परिवार है जो समय के अनाम पड़ावों से अपने विकसन की दिशा की ओर अग्रसर है  . इसी भौतिक उपस्थिति में हम इसे अपना समाज कहते हैं भले ही उसका वर्गीकरण कहते हुए हम उसके विभाजन के लिए गाँव ,कस्बों ,शहरों के नाम से उसे चीन्हते हैं ,हम उसे वर्गों में देखते हैं पर पहचानते उसके समूचेपन में हैं  . आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कविता की खासतौर से हिन्दी कविता की लम्बी परंपरा में हम उसे अपने विश्वास के घेरे में पाते हैं और हमारा विश्वास भी न जाने कैसे उन्हीं मान्यताओं की चौहद्दी में से चलता हुआ हमें फिर से आद्दय सवालों के सामने ला खड़ा करता है  . 
                                                        मृदुला जी की कवितायेँ एक प्रौढ़ कलम के अनुभव हैं किन्तु उनमें बराबर एक अबोध शिशु जैसे उस सत्य को टोहने के लिए बेचैन है जिसके सामने सारा इतिहास बड़े गुम्बद की तरह दर्शनीय ,रहस्यमय और आकर्षक है  . 'स्त्री 'होने के नाते उन्होंने अपनी उस मृदुलता को छिपाया नहीं है बल्कि एक बड़े प्रश्न को हल करने के लिए जिस स्पष्टता ,सत्यनिष्ठा और साहस की ज़रुरत थी उसे बराबर अभिव्यक्ति की दहलीज पर हर परीक्षा के सामने गुजरने दिया और उसके 'देवत्व 'को मानवीय जरुरत में नैसर्गिक ढंग से तब्दील होने दिया और इसका प्रमाण उनकी भाषा है जो हिन्दी -उर्दू की पुख्ता जमीन से हिंदुस्तानी या हिन्दवी की तर्ज पर आम बोल-चाल से जन्मती है और इसी बोल -चाल में परम्परा  से अपने को जोड़े रखने की चाह का प्रतिफल उनकी सरस्वती वंदना है जिसका आशय खुद को उस समाज से बाँधे रखना है जहाँ प्रकृति की आबद्धता वह अनिवार्य शर्त सी है ,जिससे हम लोक का अविविछिन्न अंग बने रहते हैं और अन्तर्धाराओं में अपने खेत -खलिहानों ,नीम ,पीपल ,बरगदों की छाँव से मिलने वाले  'रसायन' से परिचालित होते रहते हैं  . यह 'रसायन' एकदम उस 'केमेस्ट्री 'का हिस्सा है जिसमें हम एक साथ 'देह ' कहते हैं और उसी तर्ज में 'देवत्व ' का संरक्षण भी करते हैं  . मृदुला जी की कविताओं का यही केन्द्रीय विषय है जिसे हम अपने अतीत में अनेक सृजेताओं की वाणी में रूपायित देखते हैं और देखते हैं कि उसी में हमारा आलौकिक अहसास भी संरक्षित है  . उसे वाणी बुल्लेशाह ने भी दी थी -
    "मंदिर ढाईं ,मसजिद ढाईं
     ढाईं जे कुछ ढ़हदां 
     दिलबर दा दिल कदी न ढाईं 
     ओये विच रब रैन्दां "
मृदुला जी ने उसके आधानुभव को वाणी दी है -
      "कलियों ने 
       शोर मचाया है 
       नये फूल की 
       आहट सुन 
       हर तरफ़ 
       उमंग समाया है "
पर इतना ही नहीं मृदुला जी ने बहुत सहज ढंग से ,करीने से उस रसायन की परत -परत खोल एक साथ यह भी उद्घाटित किया है कि देह के भीतर ही दिव्यता की अदेहता का निवास है  . 
आज हम जिस सवाल से लड़ रहे हैं -हमारा समाज ,हमारी परम्पराएँ जिस आग से झुलस रही हैं वह असंस्कारित पशुत्व असल में राग ,अनुराग के कणों से विराग में विकसित होते नये मनुष्य की विलुप्ति के कारण हैं और उससे फिर जुड़ने -मनुष्यता के सद्रूप संसार से एकमेक होने का द्वार अगर कहीं है तो वह आद्य भाव है जो हर चीज को अनुराग के विगसन के आलोक में ले जाता है  . करुणा से अनुराग के रास्ते उपजी कवितायें शास्त्र नहीं होतीं न मानविकी न मनोविज्ञान पर वे संकेतिकाएँ होती हैं जो लौह दरवाज़ों में भी ज्यादा कट्टरताओं ,थोड़े में सही ,बहुत महीन आवाज़ में अन्तरिक्ष के विशाल सूनेपन के सामने अनुगुंजित कर देती है उसी की अनुगूँज मृदुला जी की कविताओं में झंकृत है  . आईये उसके मूल आशयों में अपने संसार के आहत ,विक्षिप्त चेहरे को सकून के संसार से मिलने दें  . 
                                                                                                                                 - गंगा प्रसाद विमल 

11 2 ,साऊथ पार्क 
कालका जी                                                         
नई दिल्ली -1 1 0 0 1 9 

Friday, August 29, 2014

कभी घड़ी की ओर……

कभी घड़ी की ओर 
बिना देखे 
सो जाऊँ,दिल 
करता है……पर
दिमाग की घड़ी  
जोर से 
टिक-टिक 
करने लगती है.……. 
और पकड़ कर बाँह  
खींच 
मजबूती से,
बैठा देती है …….  

Wednesday, August 20, 2014

' धड़कनों की तर्ज़ुमानी  ' मेरी छठवीं कविता-संग्रह है ……और इस खुशी को आप सबों के साथ बाँट रही हूँ ,यह सोचकर कि.……. और बढ़ेगी.......  
मैं ह्रदय से आभारी हूँ ,हिंदी साहित्य के जाने-माने रचनाकार श्री गंगा प्रसाद विमल का.…… कि उन्होंने 'पुरोवाक' के रूप में ,अपने अमूल्य शब्दों के खजाने से इस कविता-संग्रह को गौरवान्वित कर दिया है ……… 



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Sunday, July 27, 2014

कारगिल से जुड़ी ये घटना याद आ गयी ……

कारगिल से जुड़ी ये घटना याद आ गयी ……लड़ाई एकदम घमासान चल रही थी . शाम में दिल्ली के  विलिंगटन हॉस्पिटल से  एक डॉक्टर साहब का फोन आया ,मेरे पति से बात करना चाह रहे थे . मेरे यह कहने पर कि इस समय वो घर पर नहीं हैं बेहद परेशान लगे सो मैं पूछ बैठी -'कोई खास बात है क्या ?' वे बोले- उनका भाई कारगिल में है ,कभी भी  कोई खबर आ सकती है ….  लेकिन उसके घर का फोन खड़ाब है. किसी भी तरह फोन ठीक करा दें यही रिक्वेस्ट करने के लिये फोन किया था क्योंकि आपके पति टेलेफोन विभाग में हैं …… मैं बोली आपका काम तो ज़रूर ही हो जाता लेकिन वे सरकारी काम के सिलसिले में विदेश गये हुए हैं . मन भाव-विह्वल  हो रहा था ,सोची कुछ तो करना ही है ,उनसे बोली -मैं अपनी ओर से कोशिश करके देखती हूँ . फोन रखने के बाद ,जहाँ तक मुझे याद है रात के 8-9 बजे होंगे ,टेलीफोन विभाग के एक-दो लोगों को फोन की और सारी  बातें बताकर आग्रह की…….  कि डॉक्टर साहब के भाई का फोन ,यथासंभव जल्दी ठीक करा दें ……सुबह-सुबह डॉक्टर साहब का फोन आया, धन्यवाद देते हुये बोले -भाई से बात भी हो गई……. और मैं इतनी खुश कि क्या बताऊँ ? इन खुशियों की न तो कोई कीमत होती है न ही इनका वर्णन किया जा सकता है……

Monday, June 30, 2014

कुछ लिखते समय अगर.…….

कुछ लिखते समय अगर दिमाग में उर्दू का कोई शब्द आ जाये तो मैं उसके लिये हिंदी का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं ढूँढती……इसी स्वभाव के कारण मुझसे एक ऐसी कविता बन गयी जिसमें उर्दू के काफी शब्द एक साथ आ गये ……और सौभाग्यवश वो कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छप गयी . प्रकाशित होने के दो-चार दिनों बाद ,हिंदी साहित्य के एक जाने-माने रचनाकार का फोन आया. अपना नाम बताने के बाद बोले,'बेटे ,आपकी कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' के नये अंक में पढ़ी है.…… मैं गद्गद ,इतने बड़े साहित्यकार ने पढ़कर फोन किया …….तब तक उनकी अगली पंक्ति 'लेकिन आपने इतने ज़्यादा उर्दू शब्दों का प्रयोग क्यों किया ?'मैं एकदम से सकपका कर ,साहस जुटाकर बोली ,'सर ,आपको अच्छी नहीं लगी क्या ? वे बोले ,'अगर अच्छी  नहीं लगती तो क्या मैं फोन करता ? 'मुझे बहुत अच्छी लगी ………पर आगे से उर्दू के नहीं हिंदी के शब्दों का ही प्रयोग किया करो'.…….' 'जी ज़रूर कोशिश करूँगी कह तो दी मैंने…….  लेकिन करूँ क्या ? गाहे-बगाहे उर्दू के शब्द दस्तक दे ही देते हैं…….और मैं मुँह नहीं मोड़ पाती…… उसी का प्रमाण है ये कविता जिसका अभी-अभी ज़िक्र की हूँ ……  

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू  के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख-ए-फ़ितरत का नशा, 
कभी शाम-ए-ज़श्न  ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में 
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें 
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं  भर रहा परवाज़ था.
कभी  था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा 
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी 
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा 
और जिंदगी चलती रही .…… 
  

Sunday, June 8, 2014

आज की युवा पीढ़ी......

आज की युवा पीढ़ी ,एक नई सोच,एक नये उत्साह और भरपूर आत्मविश्वास के साथ ,सर उठाकर जीना चाहती है,आसमान को छूना चाहती है.…और इसके लिये बेहद ज़रूरी है कि समाज का हर वर्ग समानाधिकार के साथ,अपना-अपना दायित्व संभाले,कदम-से-कदम मिलाकर विकास के रास्ते पर     चले ……न कोई छोटा हो न कोई बड़ा,न कोई ऊँचा हो न कोई नीचा......निश्चय ही रास्ता सुगम हो जायेगा,मंज़िल  तक पहुँचना आसान और तरक्की के सभी द्वार खुद-ब-खुद खुलते चले जायेंगे......लेकिन इन सबके बीच में ,एक बहुत बड़ी रुकावट है ……. और वो है 'आरक्षण'. हो सकता है कभी किसी सामाजिक व्यवस्था में इसकी आवश्यकता रही हो किन्तु आज के परिवेश में 'आरक्षण' समाज के विकास में बाधक और एक अनावश्यक बोझ के अलावा कुछ भी नहीं.यह वर्ग,वर्ण और जाति विशेष को आगे की ओर नहीं बल्कि पीछे की ओर ले जाता है,इससे सम्मान की नहीं अपमान की गंध आती है.…… काश! ये 'आरक्षण' नाम का पत्थर रास्ते से हट जाये......और एक स्वस्थ ,खिलखिलाते हुये सुबह का हम स्वागत कर सकें...... ये मैं सोचती हूँ ,पता नहीं आप सब मित्र लोग क्या सोचते हैं.……. 

Saturday, June 7, 2014

दिल से दिल तक के रस्ते पर.…….

दिल से दिल तक के 
रस्ते पर 
भारी,ट्रैफिक जाम लगा है.…… 
हर्ष-विषादों की 
जमघट है,
सही-गलत की 
तख्ती है,
चुप्पी की आवाज़ 
घनी है 
अहंकार की 
सख्ती है.…… 
नाराज़ी की भीड़-भाड़ में 
तरल गरल की 
हलचल है,
चढ़ा मुलम्मा छल पर 
निकला,
जिसमें जितना 
बल है……. 
झूठ-शिकायत की 
पेटी है,
इल्ज़ामों के दश्ते हैं,
राजनीति की सधी 
चाल से 
टूटे-बिखरे 
रिश्ते हैं.……. 

Saturday, May 31, 2014

निकले हुये हैं .......

निकले हुये हैं 
भयावह सर्पों के 
समूह 
तफरीह के लिये……. 
ऐसे में,कंघी 
पाउडर,लिपस्टिक 
रखो न रखो.…… 
सतर्क,सशक्त,सुदृढ़ 
साहस....
ज़रूर रख लेना,
पर्स में,
घर से निकलते हुये.......

Friday, May 30, 2014

एक झटके से उठी कुर्सी से......

एक झटके से उठी 
कुर्सी से, कोई नस खिंचा 
झटपट कमर का.……. और 
'मसल पुल' हो गया है.…… 
कभी सीधी,कभी टेढ़ी 
कभी झुककर  
चल रही हूँ,
दर्द से बातें कभी 
बिस्तर पे लेटे  
कर रही हूँ.……
आये हो अच्छे समय से 
है नहीं जाना कहीं 
हमको, 
नहीं आना किसीको ……
ख़्याल मैं रक्खूँगी 
सहलाकर ,लगाकर 'बाम',
करवट मैं 
तुम्हारे ही कहे 
अनुसार लूँगी.....
खाऊँगी ,पियूँगी 
मन भरकर, 
तुम्हारे साथ ही 
गप-शप करूँगी ,
धूप की गर्मी से 
तकिया को गरम कर 
सेक दूँगी……. 
मित्र ,रूककर 
एक-दो दिन ही 
चले जाना.....
कि मैं भी 
कौन बैठी हूँ यहाँ 
हर रोज़ खाली.....

Wednesday, May 21, 2014

सन छियासठ में .......

इसे छोड़ दूं तो वो आती हैं .……उसे छोड़ दूं तो ये आती हैं  ,ये यादें भी अजीब हैं.……. पीछा ही नहीं छोड़तीं....... 

सन छियासठ में 
'सिलीगुड़ी' में,कितने कम में 
घर चलाते थे,
एक रूपये का पाव 
मछली खाते थे.……. 
तब दिल्ली कितना 
खुशगवार था,
कलकत्ते में कितना 
प्यार था,
इंगलैंड की सुबह में 
कितना लावण्य था,
कन्याकुमारी की शाम में 
कितना सौन्दर्य था.……. 
कितना रोमैंटिक था 
नील नदी का किनारा 
रातों में,
मज़ा कितना रहता था 
इंडो-सूडान क्लब की 
बातों में.……. 
हाँ-हाँ.…
वो आसनसोल में.…
ऑफिस-कम-रेसीडेंस था,
ऑफिस और घर का 
अगल-बगल 
इन्ट्रेंस था.……. 

Sunday, April 27, 2014

रच नहीं पाती मैं .......

रच नहीं पाती मैं 
बेबाक,बिंदास,तुकांत,
अतुकांत, 
'तहलका' मचानेवाले 
शब्दों के सौजन्य से,
कोई एक कविता......
विफल हो जाता है मेरा 
हर प्रयास,
इनकार कर देती है 
कलम,चलने से........ 
या फिर.…फैल जाती है 
स्याही कागज़ पर,
सारे लिखे को 
धुँधला कर देती है.…… 
ढूंढती हूँ जी-जान से
उन अक्षरों को,
शब्दों को,भावों को 
जुटाये थे जो.……
कितने जद्दो-जहद के बाद.…… 
लेकिन 
मालुम तो है आपको,
फिर से वही-वही बात 
नहीं बनती......
नामुमकिन होता है 
बार-बार 
कलम को मनाना,
चिरौरी-मिन्नतें करना,
जबरदस्ती लिखबाना.....तो 
क्षमा कीजियेगा....
रच नहीं पाती मैं 
एक ऐसी कविता जो 
खून को खौला दे..... 
शीशा को पिघला दे.….
बबाल मचा दे.…… 
मालुम तो है आपको 
हर एक की 
अपनी-अपनी सीमा होती है........  
   

Sunday, April 20, 2014

जिसकी हमें तलाश है........

नारी के उत्थान ,अधिकार और सुरक्षा  के लिए ज़रूरी है कि पुरुष को साथ लेकर चला जाये न कि उनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ आंदोलन करते हुये...... नारी विमर्श से उठी समस्याओं का समाधान विरोध में नहीं,बात-चीत में है,यहीं से सकारात्मक वातावरण निकलेगा......जिसकी हमें तलाश है........

Thursday, April 10, 2014

जूही-बेला की पंखुड़ियों में.......

जूही-बेला की 
पंखुड़ियों में 
लिपटी हुई शाम.…… 
रजनीगंधा के किनारे,
चंपा,चमेली,रात-रानी का 
सानिध्य......
बारों-छज्जों पर 
वसंत-मालती का 
अल्हड़पन......
इठलाता मुंडेर पर 
लाल-पीला 
वोगन-विलिया.....
तुम ही कहो,
मुझे कश्मीर की 
वादियों से
क्या लेना.......  
 

Tuesday, April 8, 2014

शाख-ए-गुल से.......

शाख-ए-गुल से 
ये मैंने 
कहा एक दिन.…… 
अपनी खुशबू तो दे दो 
मुझे भी जरा 
कि लुटाऊँगी मैं भी 
यहाँ-से-वहाँ......
कुछ झिझकते हुए 
उसने हामी भरी.…… 
फिर कहा,मित्र 
लेकिन.....
सिखा दो मुझे 
पहले 
अपनी तरह तुम 
ये  चलना  मुझे भी 
यहाँ-से-वहाँ......

Thursday, April 3, 2014

तुम्हारी खामोशियों की सतह पर.......

तुम्हारी खामोशियों की 
सतह पर....... 
छूट दे रखी है 
मैंने,
अपने प्रश्नों को 
बैठने की…… 
शब्दों को 
टहलने की…… 
कि एक तारतम्य तो 
बना रहे…… 
जैसे भी हो…… 

जाने कैसे पता चल जाता है......

जाने कैसे 
पता चल जाता है
मेरी कविताओं को 
मेरा उदास होना.....
आने लगती हैं 
झुंड-के-झुंड
किताबों के पन्नों से,
डायरी की 
काट-छाँट से,
मुड़े-तुड़े कागज़ की 
तहों से....... 
घुमाने,हँसाने,बहलाने.
ले आती हैं,
लुभावने शब्दों के
मनमोहक पिटारे
कि 
चुन-चुन कर सजाऊँ ……
थमा देती हैं 
हाथों में 
कागज़-कलम-दवात 
कि 
कल्पनाओं में 
पंख लगाऊँ......
और …… मैं 
भावों की रस-वीथि में 
विचरती हुई,
डूबती हुई,
उतराती हुई,
पुनः 
लिखने की कोशिश में 
लग जाती हूँ 
कि कर्ज़ है मुझपर 
कविता का…… 
तो फर्ज़ मेरा भी है, 
निभाती हूँ……   

   

Monday, March 31, 2014

साड़ी में फॉल लगाते हुये.......

साड़ी में फॉल लगाते हुये.......अचानक सोचने लगी…… 

सुई के धागों में 
उलझता-सुलझता हुआ 
मेरा मन,
सपनों के टाँके 
लगाता रहा....... 
और……मैं 
समय को 
दोनों हाथों से 
पकड़कर,
मिलाती रही…… 
जोड़ती रही…… 

Wednesday, March 26, 2014

आधुनिकता की दौड़ में.......

आधुनिकता की दौड़ में जब कुछ ऐसी-वैसी कहानियों का 'प्लाट' दिख जाता है तो बरबस मुझे मिथिलांचल से आये हुये एक लेखक की कही हुई बात याद आ जाती है....... " मैं जिस क्षेत्र और परिवेश से आया हूँ ,भूखा मर सकता हूँ ....... पर अपनी माँ-बहन के जवानी के किस्सों को लेकर कभी कहानी-उपन्यास नहीं लिख सकता …… और उनकी इस बात पर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था सभागार.......सबकी नज़रों में उनके लिए सम्मान का भाव था ……लेखक ऐसे भी होते हैं,पाठक ऐसे भी होते हैं……

Saturday, March 15, 2014

नीम के पत्ते यहाँ ........

नीम के पत्ते 
यहाँ 
दिन-रात गिरकर,
चैत के आने का हैं 
आह्वान करते, 
रात छोटी ,दोपहर 
लम्बी ज़रा होने लगी है....... 
पेड़ से इतने गिरे पत्ते 
कि दुबला हो गया है 
नीम,जो पहले 
घना था ,
टहनियों के बीच से 
दिखने लगा 
आकाश,
दुबला हो गया है 
नीम,जो पहले 
घना था ....... 
हवा में फैली 
मधुर,मीठी,वसंती 
महक 
अब जाने लगी है…… 
चैत की चंचल हवा में 
चपलता 
चलने लगी है....... 
क्यारियों से फूल पीले 
अब विदा होने लगे हैं 
धूप की नरमी पे 
गरमी का दखल 
बढ़ने लगा है……
सूर्य की किरणें सुबह 
जल्दी ज़रा 
आने लगी हैं,
रात में 
कुछ देर तक 
अब ,चाँद भी 
रहने लगा है....... 
   

Thursday, March 13, 2014

अभी-अभी साहित्य-अकादमी से लौटी......

अभी-अभी साहित्य-अकादमी से लौटी . नए कवियों के कविता -पाठ  में एक लड़की बोली.....इतिहास में कभी ये नहीं लिखा गया कि रावण का आकर्षक व्यक्तित्व और अपने प्रति आशक्ति देखकर सीता जी मन- ही- मन उससे प्रेम करने लगी थीं…… (प्रेम को वो काफी खोलकर,कुछ अशोभनीय शब्दों के माध्यम से बोली थी ). प्रोग्राम के बाद मैं उसे अपने पास बुलायी और पूछी कि तुम जो ये सीता जी के प्रेम वाली बात लिखी हो ,ये कहीं पढ़ी हो या तुम्हारी कल्पना है ?वो बोली , हाँ मेरी कल्पना है लेकिन इस बारे में काफी लिखा जा चुका है . मैं फिर पूछी कि तुमने ऐसी कोई बात कभी किसी ऐतिहासिक किताब में भी पढ़ी है क्योंकि मैं तो कभी नहीं पढ़ी हूँ....... इस पर उसका जबाब था, नहीं.……तो क्या ये तुम्हारे दिमाग की उपज है ?हाँ ,उसने मुस्कुराकर  जबाब दिया और मुझे आश्चर्य हुआ……कि उसके चेहरे पर गर्व का भाव था ....... और मैं, मेरी तो जैसे बोलती ही बंद हो गयी…… 

Thursday, February 13, 2014

तब…… यानि.....

तब…… यानि 1967-68,आसनसोल में कोयले के चूल्हे पर खाना बनाती थी . एक पीला-लाल रंगवाला मिट्टी के तेल का 'जनता-स्टोव' भी रहता था…… जल्दबाज़ी में कुछ काम हो,उस समय के लिये .एक दिन बगल में रहनेवाली मेरी फ्रेंड मिसेज गुहा आकर बोलीं ,मैंने एक नयी चीज खरीदी है…… चलिये,देखने.वहाँ गयी तो वो दिखाने लगीं.....टेबल पर रखा हुआ एकदम ठोस लोहे से बना गहरे हरे रंग की कोई चीज....... बोलीं,ये डबल बर्नर वाला चूल्हा है . न कोयला ,न मिट्टी तेल ,न बिजली.....बस गैस के सिलिंडर से चलेगा,माचिस कि तीली से जलेगा . जब चाहिये स्विच ऑन, जब चाहिये स्विच ऑफ. दंग रह गयी………क्या मज़ेदार चीज है , मन-ही-मन सोची ,ये तो कोयला और मिट्टी के तेल से रोज़ होनेवाले घमासान का अंत कर देगी सो अता-पता पूछकर घर आयी और आते ही आर्डर कर दिया गया……शायद कलकत्ता से आने में 15-20 दिन लगे थे. कितनी सहूलियत हो गयी थी खाना बनाने में……आज किचेन में इतनी सारी सुविधाओं के बाबजूद भी ,मुझे उस समय की वो सुविधा........अतुलनीय लगती है..........    

Sunday, February 9, 2014

कि ऋतु वसंत है .......

रच लें हथेलियों पर
केसर की पखुड़ियाँ.....
बाँध लें साँसों में
जवाकुसुम की
मिठास.....
सजा लें सपनों में
गुलमोहर के
चटकीले रंग……
बिखेर लें
कल्पनाओं में
जूही की कलियाँ......
कि ऋतु वसंत है .......

Thursday, February 6, 2014

अभी हाल ही में.......

अभी हाल ही में मेरे 'नेफ्यू' की किताब 'when the saints go marching in' प्रकाशित हुई……उसी अवसर पर आधारित है ये कविता......

अच्छा लगता.....कुछ 'गिफ्ट' देती,
लिखने-छपने के 
इस माहौल में.....
लेकिन.....कपड़ा मेरी पसंद का 
तुम्हें पसंद नहीं,
पर्स रखते नहीं,
टाई लगाते नहीं,
जूते,मोज़े ,चप्पल 
मेरा दिमाग खड़ाब है क्या ?
कलम,पेंसिल 
पता नहीं.....कौन रंग ,
कितनी लम्बाई,
कितने डायमीटर का 
रखते हो,
रुमाल ,जाने रखते भी हो 
या 
नहीं रखते हो . 
कौन से राइटर की किताबें 
पढ़ते हो ,
किस-किससे है 'कुट्टी'
जानती नहीं ,
मिठाई-विठाई तुम खाते नहीं 
अंडा-मुर्गी 
मैं लाती नहीं.....
कितना आसान होता 
कमीज़-पैंट ,जूता-मोज़ा,
रुमाल-टाई 
या फिर 
किताबें-कलम ,पेंसिल 
साथ में.....
एक डब्बा मिठाई.……
लेकिन तुम्हें जानते हुये,
ऐसी कोई ज़हमत 
मैंने नहीं उठाई......और 
सोचते-सोचते 
दिमाग में,
ये बात आयी....... 
क्यों न दूं तुम्हें 
अनगिनित शुभकामनायें.....
गिनते रहना......
निश्चय ही खुशी से लोगे,
संभालकर रखोगे.....
अब ऐसा भी नहीं कि 
थैंक यू ,थैंक यू  
कहने लगोगे......
पता है, घिसी-पिटी बातों में 
यकीन नहीं तुम्हें.......पर 
मुझे यकीन है 
हँस दोगे......और 
बड़ों के लिये 
बच्चों की हँसी से 
बढ़कर 
कुछ भी नहीं.......

Wednesday, February 5, 2014

कम उम्र और ......

कम उम्र और दरभंगा जैसे छोटे शहर में पली-बढ़ी, सीमित ज्ञान लिये जब पहली बार कलकत्ता पहुँची......एकदम विस्मित थी . इतना बड़ा स्टेशन ,प्लेटफॉर्म से लगी हुई गाड़ियों की कतार,सब कुछ अजूबा . निकलते ही आँखों के सामने हावड़ा ब्रिज.....अद्भुद.किताबों में पढ़ती आयी थी …… उससे कहीं ज़यादा प्रभावशाली . ईंटों वाला रास्ता ,ऊँची-ऊँची इमारतें ,विक्टोरिया मेमोरियल ,न्यू मार्केट ,चौरंगी ,पार्क स्ट्रीट ,डलहौजी स्क्वाएर , राइटर्स बिल्डिंग  काली बाड़ी ,दक्छिनेश्वर का मंदिर,वेलूर मठ सब कुछ देख-देखकर एकदम अवाक! ख़ुशी की जैसे पराकाष्ठा......(ये 1965-66 की बात है )अम्मा कहती थी कि वो 12 साल की उम्र में ,नाना-नानी के साथ कलकत्ता गयी थी.....और मेरे बाल-मस्तिष्क पर कलकत्ता  की जो अनुपम छवि खींच दी थी......सौ फीसदी सही थी.....बाद में 1981से 1986 तक वहाँ रही……… लेकिन अभी भी वो पहली बार वाली छवि जस-के-तस दिल और दिमाग में सुरक्छित है.......मैं यह कह सकती हूँ कि मेरे लिए कलकत्ता दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक है.किसी एक शहर का खाना और कपड़ा जीवन पर्यन्त के लिए चुनना पड़े तो मैं निःसंदेह "कलकत्ता" को ही चुनूँगी......     

संस्कारों के धज्जियों की धूल.....

संस्कारों के धज्जियों की धूल,
जब उड़-उड़ कर
पड़ती है.....आँखों में,
चुभन होती है,
जलन होती है,
पानी-पानी जैसा
लगने लगता है.......तब,
मूंदकर चुप-चाप,
कपड़े का बनाकर
भाप,
सेक लेते हैं, अपने आप
निरुपाय
माँ-बाप......
एक कृत्रिम हंसी से
सुसज्जित,
उनके चेहरे के पीछे का
दर्द,
परदे में रह जाता है..... 
और 
आधुनिकता के प्रकोप से 
लहलहाते हुए 
शोर में......
उनका हर दुःख 
अदृश्य हो जाता है........
बताइए ,
आपको कभी दीखता है?
और 
मैं परेशान हूँ 
कि
मुझे क्यों दीखता है? 

Tuesday, January 28, 2014

ख्वाबों के पर.....

हवाओं के आँचल पर खोल दें
ख्वाबों के पर.....
तरु-दल के स्पंदन से 
आकांछाओं के जाल बुनें.....
झूम आयें गुलाब के गुच्छों पर
नर्म पत्तों की महक से 
चलो, कुछ बात करें.......
आसमानी उजालों में, सोने की धूप 
छुयें,मकरंद के पंखों से
कलियों को जगायें....
कि ऋतु-वसंत है.......
सूरज की पहली किरण से नहाकर 
तुम...... 
और 
गूँथकर चाँदनी को अपने बालों में 
मैं......
चलो स्वागत करें.......
  

Saturday, January 25, 2014

कतय गेल गणतंत्र-दिवस......

कतय गेल गणतंत्र-दिवस 
झंडा क गीत 
कतय सकुचायेल,
दृश्य सोहनगर,देखबैया
छथि 
कतय नुकाएल.
लालकिला आर कुतुबमिनारक
के नापो ऊँचाई,
चिड़ियाघर जंतर-मंतर क 
छूटल 
आबा-जाही.
पिकनिक क पूरी-भुजिया 
निमकी,दालमोट,
अचार,
कलाकंद,लड्डुक डिब्बा लय 
मित्र,सकल परिवार.
कागज़ के छिपी-गिलास,
थर्मस  में 
भरि-भरि चाय,
दुई-चारि टा शतरंजी वा
चादर लिय 
बिछाए.
ई सबहक दिन 
बीति गेल, आब  
'मॉल' आर 'मल्टीप्लेक्स',
दही-चुड़ा छथि मुंह 
बिधुऔने,
घर -घर बैसल 
'कॉर्न-फ्लेक्स'.
'कमपिऊटर' पीठी पर 
लदने
मुठ्ठी में 'मोबाइल',
अपने में छथि 
सब केओ बाझल 
यैह नबका 
'स्टाइल'....
 

Thursday, January 23, 2014

भूल जाती हूँ मैं........

भूल जाती हूँ मैं ....... कि 
झूलती है तुम्हारी 
कमर पर,
तुम्हारे घर की 
चाभियाँ......और 
तुम,
बड़ी हो गयी हो....... 

Saturday, January 18, 2014

कुछ किताबें ,कुछ कलम......

कुछ किताबें ,कुछ कलम 
अखबार के पन्ने 
सुबह के…… 
एक मैं और एक 
दीवारों पे 
परछाईं मेरी है....... 

Wednesday, January 15, 2014

कि.....मैं तुम्हें......

मैं अपनी पलकों पर 
तुम्हारे 
इशारों के जाल 
बुनता हूँ......
तुम्हारे 
ख्वाबों की उड़ान में 
साथ-साथ 
उड़ता हूँ.......
सहेजता हूँ तुम्हारी 
मिठास,
मन के कोने-कोने में
कि.....मैं तुम्हें
बेहद प्यार करता हूँ..........

Tuesday, January 7, 2014

कहा था मैंने उस दिन बुखार से.....

कहा था मैंने उस दिन 
बुखार से......
चले जाओ,लेकिन 
गया कहाँ ?
मैं बोली,
छुप  जाओ कम- से- कम 
अकेली हूँ,
बच्चे परेशान  हो जाते हैं,
इधर छुट्टी,उधर छुट्टी ,
भाग-दौड़,
झमेला महसूस करती हूँ.
ऐसा करो,
जो मन नहीं भरा 
तो आ जाना,
जब मेरे पति आ जाएँ.....
चाहे रह लेना 
दो-चार दिन,
वो संभाल लेंगे,
दवा-ववा पिलायेंगे 
देख-भाल लेंगे....और 
आ गया बुखार,
सुबह पति,शाम में बुखार.
अरे,इतनी जल्दी क्या थी,
चाहे नहीं ही आते,
क्या फ़र्क पड़ जाता....
कसैली सी जीभ है 
ढ़ीला-ढ़ीला मन....... पर 
तुम्हें क्या.....
आ गए एकदम  
बुखार बोला,
मुझे तुम्हारी फ़िक्र है 
इसीलिए तो 
आया हूँ,
देख गया था 
बच्चों का लाया हुआ 
'हॉर्लिक्स,'केक','एपल',
'पाइन-एपल',
पैकेट भर अंजीर,
हरी-हरी 
पिस्ते की बरफी 
करती रही अधीर.....
मैं देख गया था 
इसीलिए तो 
आया हूँ....
तुम मुझे खिलाओ 
मुझे पिलाओ,
ताकत तुमको दे दूंगा,
कौन यहाँ रहने आया हूँ,
खा-पीकर   
खुद ही चल दूंगा.......  

Thursday, January 2, 2014

सहिष्णुता के आवरण में......

सहिष्णुता के
आवरण में
ज्ञान-विज्ञान से
अन्याय की त्रासदी को
ललकारकर......
आत्मबल के आभूषण से
सुसज्जित
ईंट-पत्थरों के बीच
कंक्रीट सी.....
कोमलांगिनी की सशक्त
उँगलियों ने
पकड़ ली है
समय की रफ़्तार......
तकनिकी ज्ञान के
माध्यम से
खोलती  हुई हर द्वार......
नए-नए आयाम
बनाती है,
शिखर पर झंडे
लगाती है,
यह आज की नारी है......
हर जगह
पहुँच जाती है........

Wednesday, January 1, 2014

चूड़ियों की खनक है........

सूक्ष्म कन्धों पर 
दायित्व का 
जहाज़  लिए…… 
अडिग पैरों के
संतुलन
और
असीमित भुजाओं के
अनुशासन से,
श्रम का
योगदान कर....... 
परिवार को सींचती,
स्वाभिमान के
गौरव को
सहेजती-संभालती,
यह आज की नारी है.......
इसमें
एक अलग ही
चमक है....... 
विकास के
हर आँगन में,
अब
चूड़ियों की खनक है........